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शिक्षा, स्वायतता और नैतिक शिक्षा

शिक्षा, स्वायतता और नैतिक शिक्षा

केवल कृष्ण सेठी

कई बार इस तर्क को दौहराया जाता है कि महाविद्यलयों को अपना कार्य करने के लिये स्वायतता दी जाना चाहिये अर्थात उन के कार्य में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न हो।

प्रश्न यह है कि इस स्वायतता का परिमाण क्या हो गा तथा इस से होने वाले लाभ किस प्रकार के हों गे। इस में कोई संदेह नहीं कि अध्यापक किस प्रकार अपने छात्रों को पढ़ाता है इस में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये जब तक वह पाठ्यक्रम में वर्णित प्रावधान के अन्तर्गत है। पर यहाॅं पर आश्य अलग है। शिक्षेत्तर गतिविधियों के बारे में स्वायतता की बात की जाती है। इस में अध्यापक संगठन तथा छात्र संगठन की बात भी आ जाती है। प्रश्न यह है कि क्या हम उतनी ही स्वायतता शिक्षा के क्षेत्र में अपने युवकों को देना चाहते हैं जितनी आम जनता को उपलब्ध है।

शैक्षिक संस्थान में सब से बड़ी समस्या अनुशासन के बारे में है। स्वायतता को सही मायनों में अपनाने के लिये भी अनुशासन की आवश्यकता होती है। इस के साथ ही कर्तव्य पालन भी स्वायतता को स्थिर रखने के लिये आवश्यक है। इस कारण प्रश्न उठता है कि क्या छात्रों को कर्तव्य पालन और अनुशासन के लिये प्रेरणा दी जा सकती है जिस से वे स्वायतता का सही मायनों में लाभ उठा सकें।

प्रजातन्त्र में व्यक्ति को महत्व दिया जाता है। इसी कारण माना जाता है कि शिक्षक का कार्य प्रत्येक छात्र को उस की प्रतिभा के अनुसार ही शिक्षा दी जाना है। इस का अर्थ यह भी है कि सब छात्र भिन्न भिन्न योग्यता के हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो सब एक जैसा व्यवहार करते। परन्तु वास्तविकता में भिन्न भिन्न होते हुए भी वह एक जैसे हैं जिस से उन में समान चाहतें भी होती हैं। इस बात को भी ध्यान में रखा जाना आवष्यक है।

देखा गया है कि चाहे स्वायतता के प्रति कितना ही मान क्यों न हो पर छात्रों को स्वायतता देने के बारे में हिचकचाहट रहती है। छात्र परिपक्व नहीं होते, यह माना जाता है। उन्हें उन से वरिष्ठ सदस्यों की अनुभवजन्य बात बिना किसी विरोध के मान लेना चाहिये। दूसरी ओर ऐसे भी हैं जो चाहते हैं कि बच्चों को पूरी आजादी दी जाना चाहिये। उन का कहना है कि प्रकृति को अपना काम करने देना चाहिये। वह स्वयं ही अपना संतुलन प्राप्त कर ले गी। तीसरी ओर कुछ विद्वानों का मत है कि यह भी संदेहास्पद है कि बच्चे उतनी स्वायतता चाहते भी हैं। वह भी दिशा निर्देश चाहते हैं। आजादी में भी कुछ दिशा निर्देश आवश्यक है। इन में कुछ अपवाद हो सकते हैं किन्तु अधिकाॅंश छात्र केवल विद्या ग्रहण में ही रुचि रखते हैं।

कुछ का मत है कि स्वायतता केवल अपने में ही अच्छी नहीं, उस के साथ अनुशासन होना आवष्यक है। किन्तु उस के उलट तर्क है ंकि अधिक अनुशासन से शिक्षकों में स्वेच्छाचारिता बढ़ती है। दूसरी ओर छात्रों में हीनता ही की भावना बढ़ती है। वह उस का बदला अपने से छोटों पर उतारते हैं। इस तरह एक गल्त परम्परा चल पड़ती है और इस कारण स्वायतता की आवश्यकता प्रतिवाघित होती है। कुछ अन्य मत वाले भी हैं जो अधिकार तथा स्वायतता को विरोधाभासी नहीं मानते हैं। उन का कथन है कि छात्रों को स्वायतता देने के साथ साथ अधिकार भी देना हों गे। पर अधिकार इस कारण नहीं दिये जा सकते क्योंकि कि इस से अफरातफरी ही फैले गी। उन के विचार के अनुसार असली स्वायतता का अर्थ है कि नियम जो अनुमति देते हैं वही करना चाहिये।

एक और मत यह भी है कि नियम से ऊपर उठ कर भी काम करने की स्वायतता होना चाहिये। इसी से पुराने प्रचलित कायदों से हट कर कुछ नया करने की पहल हो गी तथा उसी से समाज में प्रगति हो गी। समाज को बदलने के लिये नई इच्छा शक्ति ही एक मात्र रास्ता होना चाहिये।

इसी तारतमय में एक मत व्यक्त किया गया है कि स्वायतता न केवल शारीरिक होना चाहिये वरन् मानसिक भी होना चाहिये। बिना मानसिक स्वायतता के शारीरिक स्वायतता अनुत्तरदायित्व ही होगा।

पर स्वायतता की बात मान भी ली जाये तो भी यह कैसे तय किया जाये गा कि कब कितनी स्वायतता होना चाहिये। रसायन शास्त्र की प्रयोगशाला में तब तक किसी को प्रवेश नहीं दिया जा सकता जब तक कि उसे रसायन शास्त्र के बारे में कुछ ज्ञान न हो। क्या समाज में जितनी स्वायतता हो गी उस से अधिक की कल्पना शिक्षा क्षेत्र में की जा सकती है। स्वानुशासन में प्रशिक्षण शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग होना चाहिये। अपने कार्य का परिणाम जब तक समझ में न आये तब तक उसे करने की इच्छा न होना ही स्वानुशासन का ध्येय है। इस से छात्र पर बाहरी अनुशासन की आवश्यकता ही नहीं रहे गी।

बात केवल छात्र की स्वायतता की ही नहीं है। शिक्षक की स्वायतता के बारे में भी बात की जाना होगा। न तो इस को एकदम पूर्णरूपेण किया जा सकता है क्योंकि इस से महाविद्यालय में अफरातफरी फैल जाये गी तथा न ही नियन्त्रण को इतना बढ़ाया जा सकता है कि शाला शाला न रह कर जेलखाना हो जाये। जब तक अध्यापक को अपने अनुभव स्वायतता के माहौल में छात्र तक पहुंचाने का अधिकार न हो तब तक शिक्षा पूरी नहीं मानी जा सकती। पर उसे भी स्वानुशासन में ही रहना होगा।

वस्तुतः अच्छा शिक्षक वह है जो छात्रों में शिक्षा के प्रति इतना लगाव पैदा कर दे कि उस के समक्ष स्वायतता की बात ही न उठे। किसी नैतिकता का प्रश्न ही न उठे। इस का विकल्प यही है कि अध्यापक में इतना विश्वास हो कि छात्र बिना किसी प्रश्न के शिक्षक की बात को शिरोधार्य करें। तीसरा रास्ता यह है कि अनुशासन रखने का दायित्व शिक्षक के स्थान पर पूरी कक्षा का ही हो। यदि कोई ऐसी परियोजना हो जिस में छात्रों का भी उतना ही दायित्व है जितना शिक्षक का तो उसे पूरा करने की सब की ज़िम्मेदारी हो जाये गी।

अगला प्रश्न दण्ड का है। सब कुछ करने के पश्चात भी यदि कोई छात्र कक्षा के साथ न चले अथवा अनुशासन में न रहे तो क्या शिक्षक को उसे दण्ड देने का अधिकार होना चाहिये अथवा नहीं। कुछ को दण्ड के बारे में कोई विश्वास नहीं है। उन के अनुसार इस से कोई लाभ नहीं होता। कुछ का कहना है कि भले ही छात्र को लाभ न हो पर उस को दण्ड देने से अन्य छात्रों को लाभ होता है। पर खतरा यही है कि कहीं भय होने के स्थान पर तिरस्कार की भावना पैदा न हो जाये। कुछ दण्ड को बदले की भावना मान कर चलते हैं। चौथी परिकल्पना यह है कि दण्ड वैसा होना चाहिये जो शिक्षाप्रद हो। इस अर्थ में दण्ड समाज सुधार का लक्ष्य प्राप्त कर लेता है।

अभी तक उन बातों के बारे में सोचा गया है जो सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। पर नैतिकता के बारे में भी सोचना चाहिये। सामाजिक दृष्टि से किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये यह महत्वपूर्ण है पर अच्छे बुरे का ज्ञान भी होना आवश्यक है। नैतिकता के बारे मेें पहले नहीं बताया जा सकता क्योंकि केवल ज्ञान के आधार पर से ही व्यवहार तय किया जा सकता है कि समाज को किस प्रकार का व्यवहार पसंद है। वास्तव में आवश्यकता इस बात की है कि सदव्यवहार की बात छात्र के मन में बैठ जाये। उस के ज्ञान के बारे में बाद में भी बतलाया जा सकता है जब छात्र अधिक परिपक्व हो जाये।

इसी संदर्भ में यह भी कहा जा सकता है कि नीतिशास्त्र का सम्बन्ध धर्म से भी है। कुछ लोग उन को अलग करना नहीं चाहें गे। पर अन्य लोगों का मत है कि नीति शास्त्र का सम्बन्ध केवल समाज से है। जो समाज को मान्य है वही नीति शास्त्र में होना चाहिये। इसी कारण परिवर्तन तथा स्वायतता की बात भी उठती है। पर कुछ का कहना है कि समाज से भी ऊपर की शक्ति के प्रति भी हमारी जवाबदारी है तथा इसे ध्यान में रखा जाना चाहिये।

नैतिक शिक्षा का क्या सम्बन्ध दूसरे विषयों से होना चाहिये इस में भी मतभेद हैं। कुछ इन्हें एकदम अलग विषय मानते हैं। सामान्य विषय में कुछ परिणाम होते हैं जिन तक पहुंचा जाना चाहिये। उन का एक निश्चित ध्येय होता है। पर नीति शास्त्र में ध्येय तो नहीं है वह तो जीवन का अंग ही बन जाना चाहिये। इसी कारण उसे अन्य विषयों की तरह नहीं पढ़ाया जा सकता। नैतिक सिद्धांत इस प्रकार के हैं कि वह सहज हैं। यदि वह सहज नहीं हैं तो वह नैतिकता से दूर हों गे। इस का दूसरा पहलू यह भी है कि सामान्य शिक्षा को ग्रहण करने में कमी हो तो उसे दूर किया जा सकता है। पर नैतिक विषय तो स्वयंमेव ही सिद्ध हो जाते हैं।

पर एक मत यह भी है कि आज कल हर विषय का नैतिक पहलू भी है। उदाहरण के तौर पर एटम के बारे में जानकारी केवल विज्ञान ही नहीं है। अणु बम्ब बनने के पश्चात उस का नैतिक पहलू भी उस के साथ ही सीखा जाना चाहिये। यदि परिणाम का व्यवहारिक पहलू नहीं सीखा जाये गा तो यह कोरा ज्ञान ही हो गा एवं इस का लाभ नहीं हो गा। एक प्रश्न यह भी है कि नीति सम्बन्धी ज्ञान इनिद्रयों द्वार प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः तर्क द्वारा इसे मनवाना कठिन है। यर्थाथवादियों को भय है कि ऐसी शिक्षा का अन्य शिक्षा पर क्या प्रभाव पड़े गा जिस में तर्क को ही महत्व दिया जाये गा।

नैतिक बिन्दुओं में क्या शामिल किया जा सकता है इस पर भी विचार किया जाना चाहिये। उदाहरण के तौर पर व्यक्ति परिश्रमी, हिम्मती, निष्ठावान, लग्नशील हो सकता है पर फिर भी वह नैतिकता की दूसरी बातों को न समझे और नेक चलन न हो तो उस का शेश ज्ञान निर्थक हो जाये गा। ऊपरी बातें तो किसी अपराधी के लिये भी उतनी ही आवश्यक हैं। अतः नैतिकता की शिक्षा में किन बातों पर जोर दिया जाये यह तय करना भी अत्यावश्यक है।

फिर यह भी प्रश्न है कि क्या केवल शिक्षक के कहने पर ही छात्र द्वारा किसी सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाये गा। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि छात्र का अध्यापक के ऊपर कितना विश्वास है।

वास्तव में प्रतियोगिता धर्मनिर्पेक्षता, मानवतावाद तथा नैतिक शिक्षा के बीच में है। प्रश्न यह भी है कि क्या बिना धर्म के बारे में बात किये नैतिकता की बात की जा सकती है। मानवतावादी यह मानने को तैयार हैं कि नैतिक मूल्यों का उदगम सामाजिक पर्यावरण में ही होता है। धर्मनिर्पेक्ष भी इस से इंकार नहीं कर सकते। धार्मिक मनुष्य तो यह कहते हैं कि नैतिक नियम परमेश्वर ने बनाये हैं तथा उन्हें उन से अलग कर नहीं सीखा जा सकता। मन परिवर्तन के बिना नैतिक मूल्यों को सीखा नहीं जा सकता।

एक और बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिये। समाज किसी कर्म के ऊपर से किसी व्यक्ति के दोषी होने की बात तय करता है। इस के विपरीत धार्मिक व्यक्ति उस के दोषों को तभी मानते हैं जब उस ने जानबूझ कर नैतिक मूल्यों का उल्लंघन किया हो। उस के विचारों का महत्व है न कि उस के कार्यों का। वह छात्र की आन्तरिक सदेच्छा पर विश्वास करते हैं। ईश्वर की कृपा उन के लिये प्रथम आवश्यकता है। धर्म चयन में विश्वास नहीं रखता। चारित्रक शिक्षा और धार्मिक शिक्षा में यही अन्तर है। छात्र के लिये कोई चयन शक्ति होना चाहिये या नहीं, इस पर मतभेद है। यदि छात्र चयन शक्ति के आधीन हो तो उस के लिये प्रशिक्षण की आवश्यकता भी होगी। यदि वह सफल नहीं होता है तो उस के लिये न केवल वह वरन प्रशिक्षक भी दोषी होगा। पूरे समाज को भी इस की ज़िम्म्मेदारी लेनी हो गी। कुछ का विचार है कि जब छात्र को शिक्षण दे दिया गया है। यही काफी है।

यहां पर प्रश्न यह भी उठता है कि क्या छात्र के लिये यह आवश्यक है कि वह अपनी प्रतिभा का विकास करे। उस ने शिक्षा का अधिकार प्राप्त किया है। पर इस में यह अधिकार भी शामिल है कि वह अपने को शिक्षित न करे। केवल कानून द्वारा निधार्रित शिक्षा प्राप्त करने के अतिरिक्त उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाना चाहिये।

चाहे नैतिक शिक्षा प्रत्यक्ष दी जाये अथवा परोक्ष रूप से, उस का तब तक कोई लाभ नहीं है, जब तक कि समाज में उस का व्यवहार करने का अवसर न मिले। इस के लिये शिक्षा कुछ नहीं कर पाये गी वह उस से बाहर का विषय है।


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