वैश्विक प्रशासन तथा प्रजातान्त्रिक जवाबदेही
वैश्वीकरण का निहित अर्थ है कि राज्य एक दूसरे को प्रभावित करने की स्थिति में हैं तथा करते भी हैं। न केवल राज्य वरन् बड़े निगमीय निकाय भी इस स्थिति में हैं। हज़ारों किलोमीटर दूर लिये गये निर्णय बिना किसी अन्तराल के सभी देशों को प्रभावित कर सकते हैं। इस के अतिरिक्त स्वैच्छिक संस्थायें भी आजकल उस स्थिति में पहुँच गई हैं जहाँ वह नीति निर्धारण को प्रभावित कर सकती हैं। इस कारण अब वैश्वीकरण केवल राज्य शासनों का आपसी व्यवहार नहीं रह गया है। यह भी विचार करने योग्य है कि सभी अशासकीय निकाय जनता की भलाई के लिये नहीं हैं। विभिन्न देशों में फैले हुए ड्रग माफिया, हथियारों के सौदागर, तस्कर तथा काले धन के व्यापारी भी हैं जिन का कई देशों में व्यापक संगठन है। जवाबदेही की बात करते समय हमें इस ओर भी ध्यान रखना हो गा।
राज्यों में आपसी होड़ का तकाज़ा है कि हर देश अपनी समस्या का समाधान करने का प्रयास करे भले ही इस से अन्य देशों को उन की समस्याओं के समाधान से कठिनाई होती हो। स्पष्ट है कि दूसरे देश भी उसी रास्ते पर चलें गे तो टकराहट हो गी। इस टकराहट को ही रेाकने के विचार से बहु राष्ट्रीय संगठन बनाये गये हैं। इन में अन्तर्राष्ट्रीय संगठन जैसे विश्व व्यापार संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष भी स्थापित किये गये हैं। यह आपसी निर्भरता का स्वाभाविक परिणाम है। दूसरी ओर यह संगठन आपसी निर्भरता को विकसित भी करते हैं। इन संगठनों की विशेषता यह है कि आपसी सहयोग भी रहता है तथा राज्य अपनी स्वतन्त्रता भी बनाये रखते हैं। वे अपनी सुविधा के अनुसार अपने कानून भी बनाते हैं। केवल युरोपीय संघ ही ऐसा संगठन है जिस में राज्यों ने अपने कुछ कर्तव्य एवं अधिकार साँझे कर लिये हैं। राज्यों को विशिष्ट प्रयोजन के लिये कानून बनाने के लिये बड़े व्यापारिक संस्थानों तथा स्वैच्छिक संस्थाओं की ओर से दबाव भी बना रहता है। चूँकि स्वैच्छिक संस्थायें किसी एक लक्ष्य को ले कर गठित होती है अतः वह ऐसे कार्येक्रम विशेष पर अधिक ज़ोर दे सकते हैं जिन का स्थानीय महत्व होता है।
इन सब जटिलताओं के कारण राज्यों का एक समान व्यवस्था बनाने अथवा विश्व व्यापी संस्था की स्थिति अभी निर्मित नहीं हुई है लेकिन यह स्पष्ट हैं कि वैश्वीकरण को सफल बनाने के लिये कुछ व्यवस्था होना अनिवार्य है। स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर दूसरे संगठनों की पैठ इतनी पैनी है कि इस के कई प्रयोग करने पड़ें गे। किसी ऐसे वैश्विक शासन की कल्पना नहीं की जा सकती जो नियमों का पालन करवा सके। कोई वैश्विक संविधान नहीं है जिस के तहत कहा जा सके कि अमुक कार्य अवैध है। फिर भी अंतिम पड़ाव अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था स्थापित करने का ही है, यह बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है।
हम प्रजातान्त्रिक युग में रह रहे हैं अतः यह स्वाभाविक है कि जो व्यवस्था बने वह अधिकांश देशों को तथा संगठनों को स्वीकार्य हो। प्रजातन्त्र का सिद्धाँत है कि कोई भी कर्तव्य निर्वहन करने वाला व्यक्ति अपने कार्य के लिये जवाबदेह रहे। यह बात विचारणीय है कि वर्तमान में कौन सी संस्था किस के प्रति जवाबदेह है तथा किस प्रकार। इस के लिये कोई आदर्श व्यवस्था पर विचार नहीं किया जाना है। बल्कि आम परिस्थिति में क्या प्रतिक्रिया होती है, यह देखा जाना है। व्यवस्था पर विचार करते समय यह देखा जाना हो गा कि कमज़ोर देशों को तो सही रास्ते पर रखा जा सकता है किन्तु बलशाली देशों पर किस तरह का नियन्त्रण रखा जाये, ताकि व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रहे।
वैश्विक शासन के साथ साथ इस बात पर भी विचार करना आवश्यक है कि क्या इस के साथ साथ वैश्विक समाज भी बन सकता है। समाज तब बनता है जब उस के सदस्यों का कोई सांझा ध्येय हो, उन के नैतिक मूल्य सांझे हों, कम से कम उन में आपसी मतभेदों के प्रति सहिष्णुता हो। वैश्विक सरकार बनने के बारे में क्यास तो बहुत लगाया गया है जिस में अनेक राज्य - अपनी आन्तरिक स्वायतता के साथ - सदस्य हों गे तथा यह सरकार उन के बीच सम्बन्धों को संचालित करे गी। ऐसी विश्वव्यापी सरकार एवं समाज तथा सभी भागीदार मिल कर अपने सहमति प्राप्त लक्ष्य को पाने के लिये कार्य करें गे। यह केवल राष्ट्रीय सरकारों के बीच सहयोग की कार्रवाई नहीं हो गी वरन् सामान्य जनता के आकांक्षाओं की पूर्ति करे गी।
क्या इस प्रकार का समाज एक मृग तृष्एाा है। विश्व में अनेक देशों में फैले हुए आतंकवादियों ने राष्ट्रीय सुरक्षात्मक प्रावधानों को और सुदृढ़ करने पर मजबूर किया है तथा मनुष्यों, माल तथा तकनालोजी के मुक्त हस्तांतरण के लिये इन रूकावटों को कम करने के अभियान को क्षति पहुँची है। इन अराजक तत्वों के कारण विश्व को दो अलग अलग भागों - शाँत क्षेत्र तथा अशाँत क्षेत्र - के रूप में भी नहीं देखा जा सकता है। यह भी चिन्ता तथा चिंतन का विषय हैं कि लाखों लोगों ने इन आतंकवादी गतिविधियों की सराहना की है। अल जज़ीरा के अभी कुछ समय पूर्व किये गये सर्वेक्षण में बताया गया है कि अरब देशों के 87 प्रतिशत लोग दायश - इस्लामी राज्य - का समर्थन करते हैं। वैश्विक स्तर पर सर्वनिष्ठ सिद्धाँत का अभाव है। दायश - इस्लामी राज्य, उन के सहायोगी, तथा अफगानिस्तान के तालिबान पश्चिमी राष्ट्रों के सामाजिक बिन्दुओं का अनुसरण नहीं करना चाहते। वे अन्य को स्वीकार्य बहुकोणीय प्रजातन्त्र के सिद्धाँत को भी अस्वीकार करते हैं।
यह स्थिति यूँ ही रहे गी क्योंकि कुछ धर्मों का आधार है कि केवल उन्हीं को सत्य से अवगत कराया गया है तथा यह सत्य उन की पवित्र पुस्तक में वर्णित है। अंतिम सत्य के इस एकाँकित दावे का अर्थ है कि वह अपने अधिकार के लिये मानव अनुभव, विज्ञान, लोकमत को आधार नहीं बनाते वरन् उन का विश्वास है कि उन की सत्ता दैविक स्रोत्र से आती है तथा प्रजातन्त्र का उन के लिये कोई आस्तित्व नहीं है। पश्चिम एशिया में आरम्भ हुए धर्म इस प्रकार की विचार धारा के प्रवर्तक हैं। उन का स्वयं निर्धारित लक्ष्य सभी जीवों को मुक्त (?) करा कर परमात्मा के पवित्र राज में स्थापित करने का है, भले ही इस के लिये उन्हें मजबूर किया जाना पड़े।
इस कारण भले ही कुछ देशों में आपसी सहयोग हो सकता है परन्तु यह अधिकतर केवल सरकारों का आपस में सम्बन्ध हो गा। एक बहुत बड़ा भाग वैश्विक समाज से बाहर रहे गा जो दूसरे भाग का प्रतिपक्षी रहे गा। इस स्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि शक्ति का स्रोत्र सरकारों के हाथ में रहे। कुछ शक्ति इन विपक्षी लघु समूहों के पास भी रहे गी जिन के पास भले ही बड़ा भूभाग न हो किन्तु जो सामान्य नियमों के अनुसार कार्य नहीं करते।
अवधारणा यह है कि वैश्विक व्यवस्था के लिये न केवल सरकारों को एक साथ आना है वरन् समाजों को भी अपने पूर्वाग्रह त्याग कर एक समान विचार धारा वाला बनना पड़े गा। अनुभव दर्शाता है कि यदि वैश्विक शासन आता है तो व्यक्ति का उस पर नियन्त्रण करने की सम्भावना क्षीण ही रहे गी। यह देखा गया है कि शासन धरातल से जितनी दूर होता है, उतना ही आम नागरिक उस के प्रति उदासीन रहता है। भारत में देखा गया है कि मतदाता नगरपालिका के चुनाव में वह बढ़ चढ़ कर भाग लेता है परन्तु लोक सभा में मतदान 55 प्रतिशत के पार हो जाये तो उसे अच्छा माना जाता है। आम नागरिक को नगरपालिका, पंचायत के कार्यकलाप का जितना ज्ञान है, उस का अंश मात्र भी भारत सरकार के क्रिया कलाप का नहीं रहता है। उसे ज्ञात है कि उस के मतदान का महत्व लोक सभा स्तर पर उतना नहीं होता जहाँ प्रत्याशी पाँच लाख से अधिक मतों से विजयी हो सकता है। वैश्विक स्तर पर यह प्रेरणा और भी कम हो जाये गी। यह भी संदेहास्पद है कि इस स्तर पर स्वैच्छिक संस्थायें भी अधिक प्रभावी हो सकें गी। युरोपीय संघ में इस का अनुभव किया जा सकता है। युरोपीय संसद तो है परन्तु वास्तविक आदान प्रदान सरकारों में ही होता है। वर्ष 2014 के चुनाव में मतदान 42.54 प्रतिशत रहा जो अब तक सब से कम मतदान है। 2015 के चुनाव में यू के में प्रतिशतता 66 प्रतिशत थी परन्तु युरोपीय संसद के चुनाव में यह प्रतिशतता 33 के आस पास थी।
चुनाव के माध्यम से मतदाता के प्रति जवाबदेही का मान्य सिद्धाँत है किन्तु क्या यह एक मात्र साधन है। दूसरे प्रकार के आंकलन भी प्रयोग में लाये जाने चाहियें। इन में वर्गीकृत, पर्यवेक्षीय, वैधानिक, समकक्षीय आंकलन भी शामिल हो सकते हैं। लोगों की आम धारणा की भी इस में भूमिका रह सकती है। मोबाईल तथा इण्टरनैट के इस युग में तात्कालिक प्रतिक्रिया भी मिलती है यद्यपि इस में यह कमी रहती है कि केवल वही भाग लेते हैं जो लेना चाहते हैं।
वैश्विक शासन में कुल मिला कर देशों में परस्पर निर्भरता तो रहे गी तथा सार्वलौकिक नियम एवं परम्पराओं पर आधारित व्यवस्था हो गी। साथ ही देशीय समाजों में सर्वमान्य लक्ष्य का प्राप्ति के बारे में विभिन्न मत रहें गे। इस प्रकार वैश्विक समाज पूर्ण नहीं वरन् आँशिक ही हो गा। एक प्रकार से इसे समान व्यवस्था के अन्तर्गत बहु समाज व्यवस्था कहा जा सके गा। शक्ति देशीय शासन के हाथ में ही रहे गी यद्यपि कुछ गुट इस वृत से बाहर रहें गे जो दूसरे प्रकार के विश्वास वालों के प्रति घृणा की भावना संजोते रहें गे। आपसी निर्भरता बढ़े गी किन्तु देश इस में एक पक्षीय परिवर्तन की भावना को त्याग नहीं पायें गे। सौदाबाज़ी तथा दबाव प्रभावित करने के मुख्य औज़ार हो गे न कि प्रबोधन तथा अनुकरण। यदि इस व्यवस्था से हिंसा में कमी आ सकती है और विषमता कम हो सकती है तो यह आँशिक एकता भी स्वागत योग्य हो गी।
जवाबदेही का अर्थ है कि संगठन या सरकार (जिसे हम अभिकर्ता कह सकते हैं) अपने कार्य के लिये किसी के प्रति (जिसे हम नियोक्ता कहें गे) जि़म्मेदार ठहराई जाये। इस में यह निहित है कि नियोक्ता अभिकर्ता पर लगाम लगाने की स्थिति में हो। अभिकर्ता को समय समय पर नियोक्ता को अपने क्रियामलाप का हिसाब देना पड़ता है। प्रजातन्त्र में यह मुख्यतः मतदान के समय होता है यद्यपि, जैसा कि पूर्व में कहा गया है, समकालीन प्रतिक्रिया की व्यवस्था भी की जा सकती है। कर्मचारी सरकार के प्रति जवाबदेह रहता ही है। परन्तु सभी सीधे ही मुख्य नियोक्ता के प्रति जवाब देह नहीं होते वरन् इन में बीच में अन्य व्यक्ति रहते हैं जो एक ओर नियोक्ता तथा दूसरी ओर अभिकर्ता रहते हैं। यह प्रक्रिया वैश्विक शासन में भी हो सकती है। जवाबदेही लम्बवत होने के साथ साथ दण्डवत भी हो सकती है अर्थात एक विभाग दूसरे के प्रति भी जवाबदेह हो सकता है। यह सहायक के रूप में भी हो सकता है तथा प्रभाव के रूप में भी।
वैश्वीकरण के संदर्भ में नियोक्ता कौन हो गा तथा अभिकर्ता कौन, यह स्पष्ट नहीं है। गठन के वैधानिक प्रावधानों के अनुसार तो प्रत्येक देश विश्व बैंक का नियोक्ता है। परन्तु व्यवहार में बड़े देश जिन का अंशदान अधिक है, उन की आवाज़ अधिक बुलन्द है बल्कि विश्व बैंक के साथ तो यह खुला राज़ है कि वह संयुक्त राज्य अमरीका का परोक्ष (प्राक्सी) संगठन है तथा उसी के विचारों का प्रतिपादन करता है। अनुकूल राज्यों के लिये उस के नियम अलग हैं तथा प्रतिकूल के लिये अलग, तथा प्रतिकूल को अनुकूल बनाना उस का दायित्व।
जवाबदेही दो प्रकार की हो सकती है। एक आन्तरिक और दूसरे वाह्य। आन्तरिक जवाबदेही नियोक्ता तथा अभिकर्ता के बीच होती है। वाह्य जवाबदेही नियोक्ता तथा सामान्य जन, जो उस के निर्णय से प्रभावित तो होते हैं किन्तु जिन का प्रतिनिधित्व संगठन में नहीं होता, के बीच। ऐसे व्यक्ति अपना संगठन बना कर अपनी बात कह सकते हैं। उदाहरण के तौर पर ग्रीन पीस अन्दोलन जो पर्यावरण की सुरक्षा के अपनी प्रतिक्रिया विभिन्न सरकारों के कार्रवाई पर देता रहता है। प्रचार प्रसार के माध्यम से वह सरकारों की नीति निर्धारण को प्रभावित करने का प्रयास करते रहते हैं।
वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय संगठन जवाबदेह नहीं हैं, ऐसी बात नहीं है किन्तु वे कई अलग अलग तत्वों के प्रति जवाबदेह हैं। एक ओर वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने वाले के प्रति जवाबदेही है तो दूसरी ओर लाभान्वित होने वाले देशों की सरकारों के प्रति तथा तीसरी ओर जनता के प्रति। इन में तालमेल कैसे बिठाया जाये, यह चिंतन का विषय है। वह आक्रमण का शिकार बनती है क्योंकि वह कमज़ोर धरातल पर हैं। इस की तुलना में शक्तिशाली तत्व जैसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियोँ का आलोचना कम होती है क्योंकि वह नैपथ्य में रह कर अपना कार्य करती है, यद्यपि विकृति में उन का योगदान अधिक है। बहुराष्ट्रीय निगमीय कम्पनियाँ आज इस स्थिति में हैं कि वह छोटे देशों की पूरी वित्त व्यवस्था को नियन्त्रित कर सकती हैं। चूँकि वह अपने आधार देश में भी शक्तिशाली है अतः वहाँ की सरकारें भी उन का पक्ष लेती हैं। वैश्वीकरण के विरुद्ध अन्दोलन का सब से बड़ा कारण इन निगमों की मनमानी है। इन में मीडिया के जो बहृत संगठन हैं, उन की भूमिका विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है।
यही बात अन्तर्राष्ट्रीय स्वैच्छिक संस्थाओं पर भी लागू होती है। उन की संरचना अनौपचारिक है, इस कारण यह पता लगनाा भी कठिन रहता है कि निर्णय किस के द्वारा लिये गये हैं। उन का प्रत्यक्ष कारण तथा उन का परोक्ष कारण क्या है, यह विश्लेषण भी कठिन है। भारत का एक उदाहरण लें तो उत्तरपूर्व राज्यों में रबड़ के वृक्ष न लगाने का कारण पर्यावरणात्मक बताया जाता है किन्तु इस के पीछे केरल के एकाधिकार का ध्यान भी रहता है। इसी प्रकार का संगठन रोमन कैथोलिक चर्च है जो किसी संसारिक व्यक्ति के समक्ष जवाबदेह नहीं है। इस्लामिक स्टेट तथा अल कायदा जैसे संगठन तो खुले आम मानवता के प्रति जवाबदेही से इंकार करते हैं। शक्तिशाली देश अमरीका, इस्राईल किसी अन्तर्राष्ट्रीय कानून को मानें या न मानें, उन पर किसी का ज़ोर नहीं चलता।
अधिक गहन विचार किया जाये तो जवाबदेही कमज़ोर देशों पर ही लागू होती है। यदि देश को विदेशी सहायता चाहिये तो उसे उन के प्रति जवाबदेह होना पड़े गा। यदि वह बात मानें गे तो उन्हें अधिक सहायता मिले गी और इस प्रकार उन्हें सहायता को स्थायी बनाने का प्रयास किया जाये गा। बड़े देशों की कृषि अनुदान को अनदेखा किया जाये गा तथा छोटे देशें में कृषि अनुदान को समाप्त करने की योजना बनाई जाये गी। शक्तिशाली देशों के हित में नहीं हो गा कि कमज़ोर देश शक्तिशाली बनें। पर उन का नेतृत्व तभी तक रह पाये गा जब तक कमज़ोर देशों को उन की आवश्यकता है। वास्तविक नेतृत्व के लिये उन को अपनी पीठिका से उतरना हो गा तथा अन्य देशों के साथ सहयोग करना हो गा क्योंकि आज दूरियाँ सिमट रही हैं तथा कहीं की भी कार्रवाई सभी को प्रभावित करती है। यदि मलेशिया के वन समाप्त होते है तो युरोप की जलवायु भी प्रभावित हो गी। चयन वैश्वीकरण के होने यह न होने में नहीं है वास्तविक चयन न्यायपूर्ण जवाबदेह वैश्वीकरण का ही है तथा इस का अब कोई विकल्प नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र संगठन वैश्विकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है यदि इस में कुछ सुधार किये जायें। जिस समय इस का गठन हुआ था, उस समय पाँच बड़े देशों ने अपने अधिकार असीमित कर लिये थे। सम्भवतः इसी कारण वह अपने उन वायदों को पूरा नहीं कर पाए जो उन के द्वारा संकल्पित थे। विश्व की स्थिति आज वह नहीं है जो 1945 में थी। संगठन का वर्तमान रूवरूप वास्तविक स्थिति के अनुरूप बनाने से ही इस को प्रभावी बनाया जा सकता है। सुधारों के साथ वह भविष्य के विश्व व्यापी शासन का रूप धारण कर सकता है।
Comments