वैश्वीकरण तथा विकास
केवल कृष्ण सेठी
विकास की समस्या आज विश्व के सामने सब से बड़ी चुनौती है। विश्व की लगभग 20 प्रतिशत आबादी एक डालर प्रति दिन के नीचे रह रही है तथा लगभग 50 प्रतिशत दो डालर प्रति दिन के नीचे। इस कारण विकास के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। गत पचास वर्ष के इतिहास ने यह सिद्ध किया है कि विकास सम्भव है। पूर्वी एशिया में प्रगति आशातीत रही है। परन्तु विकास हो सकता है का अर्थ यह नहीं है कि विकास हो गा ही। कई अफ्रीकन देशों में स्वतन्त्रता के पश्चात आय में कमी हुई है। दक्षिण अमरीका महाद्वीप में 1990 की दशक के आरम्भ में अच्छी प्रगति के आसार थे किन्तु दशक समाप्त होते होते हािलत खराब हो गई। मैक्सीको में संकट के बाद 1997 में विश्व व्यापी संकट ने सिथति को काफी झझकोर कर रख दिया।
वैश्वीकारण का सिद्धाँत बिल्कुल स्पष्ट है। न केवल वस्तुओं तथा सेवाओं का मुक्त आदान प्रदान होना चाहिये बल्कि पूँजी का एवं ज्ञान का भी मुक्त हस्तांतरण होना चाहिये। आवागमन के साधनों में गति आने से इस का दायरा बढ़ गया है। न केवल विश्व के बाज़ार एक हो रहे हैं बलिक सामाजिक परिस्थितियाँ भी एक समान हो रही हैं। परन्तु वैश्वीकरण का इस्तेमाल विकसित देशों ने अपनी शर्तों पर तथा अपने हित में किया है। पूर्वी एशिया के कुछ देशों में तीब्र गति से आय वृद्धि हुई परन्तु यह सब निर्यात के दम पर हुआ। इस में विदेशी निवेश की भूमिका अधिक नहीं थी। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का विचार था कि जब तक निवेश नहीं हो गा, विकास नहीं हो सकता तथा इस के लिये खुली आर्थिक नीतियाँ आवश्यक हैं। परन्तु देखा जाये तो अधिकतम निवेश चीन में हुआ है जिस में कुछ वर्ष पूर्व तक् हर तरह के आर्थिक प्रतिबन्ध विद्यमान थे।
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की माँग है कि व्यापार को मुक्त किया जाये परन्तु यह किस स्तर पर किया जाना है, यह महत्वपूर्ण है। अधिकतर अफ्रीकन देश कच्चे माल का निर्यात करते हैं तथा उस से प्रसंस्कृत माल लेते हैं अथवा उस से निर्मित माल लेते हैं जिस का अधिक मूल्य उन्हें चुकाना पड़ता है। यह एक तर्फा व्यापार है जिस में विकासशील देश सदैव घाटे में रहता है। इस से उस के जीवन स्तर में वृद्धि कुछ व्यक्तियों को छोड़ कर शेष के लिये निर्थक हो जाती है।
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का एक सुझाव यह भी है कि आर्थिक स्थिति पर बाज़ार का पूरा नियन्त्रण होना चाहिये। परन्तु ऐतिहासिक पृष्ठभूमि देखी जाये जाये तो ऐसा कहीं भी नहीं हुआ है। संयुक्त राज्य अमरीका में कृषि, जो उस समय प्रमुख आर्थिक गतिविधि थी, को 1860 से ही राजकीय संरक्षण प्राप्त है।
अपनी ही शर्तों पर ऋण देने तथा आर्थिक नीतियों में परिवर्तन पर ज़ोर देने के कारण वैश्वीकरण का परिणाम अधिक गरीबी, अधिक विषमता, अधिक असुरक्षा हुआ है। न केवल इस से लोकतन्त्र कमज़ोर हुआ है बलिक सामाजिक ढाँचा भी प्रभावित हुआ है। हिंसा में वृद्धि भी कई देशों में देखी जा सकती है। आम तौर पर कई देशों में लोकतऩ्त्र लोगों की भागीदारी से विद्यमान था परन्तु वैश्वीकारण ने केन्द्रीयकरण की भावना पर ज़ोर दिया है।
ज्ञान के बारे में आम तौर पर देखा गया है कि धनाढय देश परम्परागत ज्ञान का भी पेटैण्ट करवा कर गरीब देशों के अधिकार पर कुठाराघात कर रहे हैं। शायद यह याद हो गा कि टैक्सास, अमरीका में दौसे का भी पेटैण्ट प्राप्त करने के लिये प्रयास किया गया था। बासमती पर भी एकाधिकार जमाने का प्रयास किया गया। न्यायालय के निर्णय के बाद इसे अस्वीकार किया गया था तथा उस चावल का नाम टैक्समति रखा गया।
वैश्वीकरण का वास्तविक अर्थ तो सभी देशों को एक समान मान कर चलने का ही हो सकता है या फिर होना चाहिये। इस के लिये आवश्यक है कि जो नीतियाँ बनाई जायें, उन में विकासशील देशों की भी उतनी ही भागीदारी हो जितनी विकसित देशों की है। परन्तु अन्तर्राष्टीय मुद्रा कोष में अधिक शक्ति विकसित देशों के पास ही रहती है। इस कारण वे अपनी शर्तें मनवा लेते हैं जो विकासशील देशों के हित में नहीं रहती है। वैश्वीकरण का दावा प्रजातानित्रक सिद्धाँतों पर किया जाता है ताकि कोई रूकावट किसी के लिये न रहे। परन्तु वास्तव में यह तभी हो पाये गा जब सभी देशों की राय का एक समान मूल्य हो।
1994 के यूराग्वे चक्र के पश्चात इस को वैश्वीकरण की दिशा में बड़ी उपलब्धि माना गया तथा यह विकसित देशों के लिये थी भी किन्तु विश्व बैंक की संगणना थी कि इस से अफ्रीकन देशों की आय केवल अमरीका की कपास पर दिये जाने वाले अनुदान के कारण एक से दो प्रतिशत तक घट जायें गी। इसी प्रकार की उपलब्धि बौद्धिक सम्पदा अधिकार के बारे में भी मानी गई थी परन्तु इस का परिणाम यह हुआ कि जीवन रक्षक दवाईयों का मूल्य विकासशील देशों में कमज़ोर वर्ग के दायरे से बाहर हो गया।
इस विपरीत स्थिति के पीछे अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई एम एफ) की नीतियाँ काफी हद तक जि़म्मेदार रही हैं। उदाहरण के तौर पर अर्जनटाईन में जब अन्तर्राष्ट्रीय वित्त फण्ड ने आठ अरब डालर का ऋण दिया तो उस के परिणाम सुखद नहीं रहे। कारण कि अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में पेसो का मूल्य अधिक रखा गया था जब कि बाज़ार में उस का मूल्य उस का एक तिहाई था। निर्यात जिस से ऋण का व्याज समेत भुगतान किया जाना था, वह बाज़ार मूल्य पर ही हो सकता था। इस कारण अर्जनटाईन में प्रगति की सम्भावना नहीं के बराबर थी। फण्ड के लिये यह राशि बहुत नहीं थी परन्तु अर्जनटाईन के लिये इस का अर्थ आर्थिक क्षेत्र में उथल पथल थी। यह कहा जाता है कि अमरीका और युरोप के करदाताओं द्वारा पिछड़े देशों की सहायता की जाती है किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। यह सहायता ऋण के रूप में दी जाती है तथा ऋण तो वापस आ जाता है। देने वालों को कुछ अपने पल्ले से नहीं देना पड़ता पर पिछड़े देशों के करदाताओं को ही इस का भुगतान व्याज समेत करना पड़ता है।
आम तौर पर केन्स के अर्थशास्त्रीय सिद्धाँत के अनुसार माना जाता है कि जब अर्थ व्यवस्था गिरावट की ओर हो तो सरकार को अधिक निवेश करना चाहिये ताकि रोजगार उपलब्धि पर विपरीत प्रभाव न पड़े। जब संयुक्त राज्य अमरीका में बैंकों के फेल होने का अवसर आया तो सरकार ने उन की सहायता की। इस के विपरीत अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष विकासशाल देशों को विषम आर्थिक स्थिति में सरकारी व्यय कम करने का परामर्श देता है।
कहा जाता है कि पूँजी बाज़ार को मुक्त करने से उस के द्वारा अर्थ व्यवस्था में अनुशासन आये गा। परन्तु यह भुला दिया जाता है कि पूँजी बाज़ार सनकी होता है। यदि हमें अनुशासन ही चाहिये तो वह इस प्रकार का होना चाहिये कि वह सनकी न हो तथा हानि न पहुँचा सके। यदि पूँजी के स्थान पर कुशल श्रमिक को अनुशासन की बाग डोर दी जाये तथा कुशल श्रम यह कहे कि मुझे सही वातावरण चाहिये तो उस का माँग पूरी करना पड़े गी। यह दूसरे प्रकार का अनुशासन हो गा जो भलाई ही करे गा। एक बात और है, ऋण तथा व्याज की वापसी के लिये देश को पर्याप्त विदेशी मुद्रा रखना पड़े गी। यह राशि अमरीकन कोष पत्रों में ही रखी जाती है क्योंकि अभी विश्व की मुद्रा का दायित्व डालर ही निभा रहा है। इस पर व्याज 2 प्रतिशत मिलता है जब कि देश को ऋण पर 18 से बीस प्रतिशत व्याज देना पड़ता है। स्पष्टत: ही यह देश के लिये घाटे का सौदा है।
इसी क्रम में रूस का साम्यवाद से पूँजीवाद की ओर परिवर्तन देखा जा सकता है। 1991 में पुराने साम्यवाद को समाप्त कर बाज़ारवाद को आर्थिक गतिविधि का भार सौंपा गया। मुक्त बाज़ार के इस दौर में जो 1999 तक चला, रूस का सकल घरेलू उत्पादन पूर्व समय से काफी कम हो गया। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पादन 1991 में 19500 डालर (क्रय शक्ति के आधार पर) था जो 1999 में कम हो कर 11173 डालर रह गया। इस अवधि में गरीबी भी दो प्रतिशत से बढ़ कर बीस प्रतिशत हो गई। इस के पश्चात विभिन्न प्रतिबन्ध लगाये गये। आयकर व्यवस्था में सुधार किया गया। लघु तथा मध्यम उद्योगों को प्रोत्साहित किया गया। फलस्वरूप आर्थिक स्थिति में सुधार आरम्भ हुआ और वर्ष 2014 में प्रति व्यक्ति घरेलू उत्पादन 23500 डालर के स्तर पर पहुँच गया है।
इस समस्या का समाधान क्या है। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का संचालन केवल संयुक्त राज्य अमरीका तथा कुछ अन्य धनाढय देशों द्वारा किया जाता है। वैसे नाम के लिये सभी देशों के प्रतिनिधि रहते हैं परन्तु उन का योगदान नगण्य ही रहता है। आदान प्रदान गुप्त ही रहता है तथा इस बारे में किसी को पता नहीं चलता है कि अमुक निर्णय क्यों लिया गया। एक तो अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को अधिक पारदर्शी होना हो गा। दूसरे इस में केवल व्यापार से सम्बन्धित मंत्रियों का ही दखल नहीं होना चाहिये वरन दूसरे हितधारियों का भी योगदान नीति निर्माण में रहना चाहिये। यह सर्व विदित है कि देश के भीतर भी जो निर्णय लिये जाते हैं, वे मंत्रीमण्डल द्वारा लिये जाते हैं जिस में सभी विभागों के मंत्री रहते हैं तथा अपने अपने विभाग के दृष्टिकोण से उस पर विचार करते हैं। तीसरे अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में भी प्रजातन्त्र होना चाहिये। प्रजातन्त्र का सिद्धाँत एक व्यक्ति एक वोट है, परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में मतदान का आधार आर्थिक मापदण्ड है और वह भी आज का नहीं वरन् संगठन के आरम्भ होने के समय का। सुरक्षा परिषद में तो पाँच देशों को वीटो का अधिकार दिया गया है किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में केवल एक देश का ही एकाधिकार है तथा वह अपनी शक्ति कि प्रयोग करने से हिचकचाता भी नहीं है।
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