वैश्वीकरण तथा न्याय
वैश्वीकरण आज की वास्तविकता बन चुका है परन्तु इस को केवल अर्थशास्त्रियों की दृष्टि से देखा जाता है। दूसरी ओर यह भी स्पष्ट है कि अर्थशास्त्री बाज़ार पर नियन्त्रण करने में असफल रहे हैं जो अपने ही नियमों से चलता है। बार बार प्रश्न यह उठता है कि वैश्वीकरण से लाभ किस को होता है। क्या इस में सभी देशों को एक समान लाभ मिलता है अथवा क्या सब के साथ न्याय हो रहा है। इस के बारे में हम ने विचार किया है कि वैश्वीकरण से देशों के बीच विषमता बढ़ी है। विकास की गति भी असमान रही है। एक प्रश्न यह भी है कि क्या वैश्वीकरण सिद्धाॅंततः अथवा व्यवहारिक तौर पर पिछड़े देशों को न्याय दिला पाने में सक्षम हो गा।
वैश्वीकरण में न्यायप्रियता का अर्थ है कि सभी देश मिल कर आगे बढ़ें। श्रम विभाजन के सिद्धाॅंत के अनुसार जो वस्तु जिस देश के द्वारा विशेष सुविधा एवं कम लागत पर बनाई जा सकती है, बनाई जाना चाहिये। मुक्त व्यापार के माध्यम से यह विश्व के अन्य लोगों को उसी सुगम तरीके से उपलब्ध होना चाहिये जैसे कि बनाने वाले देश में उपलब्ध होती है। सिद्धांत रूप से यह सब को मान्य है लेकिन इसे व्यवहार में अपनाना कठिन सिद्ध हो रहा है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि कुछ बातें ऐसी हैं जिस पर सभी समाज सहमत हैं, उदाहरणतया यह बात कि किसी की हत्या करना गलत है। इसी प्रकार कई अन्य बातें हैं जिन के बार में सहमति है कि ‘आप ऐसा नहीं करो गे’। यह बातें अमरीका के लिये भी उतनी ही सही है जितनी भारत के लिये अथवा ज़ाम्बिया के लिये भी। परन्तु सकारात्मक बातें कि ‘आप ऐसा करो गे’ में थोड़ा संशय रह जाता है।
इस क्रम में हम कुछ समस्याओं पर विचार करें गे। आर्थिक वैश्वीकरण के समान भ्रष्टाचार भी व्यापक रूप धारण कर चुका है। विकासशील देशों का तेज़ी से आगे न बढ़ने का दोष भ्रष्टाचार के माथे मढ़ा जाता है तथा कमज़ोर शासन को इस के लिये उत्तरदायी माना जाता है। विश्व बैंक तथा अन्य कई व्यक्ति भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये एक मज़बूत सरकार की बात कहते हैं। परन्तु भ्रष्टाचार का वास्तविक कारण बाज़ार है। विश्व में आज भौतिकवाद का प्रचलन है। बाज़ार का एक मुख्य सिद्धांत है कि कोई वस्तु केवल तभी बिक सकती है जब एक अन्य वैकल्पिक वस्तु बिक नहीं पा रही है। इस स्थिति को लाने के प्रयास को प्रतियोगिता का नाम दिया जाता है परन्तु यह खेल सदैव नैतिकता के आधार पर नहीं खेला जाता। संगठन अथवा व्यक्ति अधिक से अधिक धन कमाने को तैयार है तथा इस के लिये अपने ईमान को बेचने के लिये तैयार है। कीमत सही मिलनी चाहिये। दूसरी ओर बाज़ार में इसे क्रय करने वाले हैं। प्रश्न यह है कि उन व्यक्तियों] जो निर्णय लेने की स्थिति में हैं] को बाज़ार के इस नियम से कैसे बचाया जाये। वैश्वीकरण के अग्रणी बहु राष्ट्रीय निगम हैं जिन्हें अपने पैर जमाने के लिये किसी प्रकार की कार्रवाई से परहेज़ नहीं है। वैश्वीकरण इस दिशा में क्या योगदान दे सकता है, इस पर इस के समर्थकों को विचार करना चाहिये।
ऐसी ही स्थिति भाई भतीजावाद की भी है। विश्व कटुम्बम की बात भारत में कही गई है। आज यह बात केवल आदर्श नहीं रह गई है बल्कि वास्तविकता में परिवर्तित हो गई है। इस में संदेह नहीं है कि संचार माध्यमों में आई प्रगति तथा परिवहन साधनों में आई द्रुत गति के कारण विश्व इतना छोटा हो गया है कि फासले अब कोई बाधा नहीं हैं। फिर भी सहानुभूति का जो उद्गार उठता है उस का फासले से सम्बन्ध पूरी तरह विच्छेद नहीं हुआ है। पास के देशों की घटना हम को तुरन्त सहायता करने के लिये अवसर प्रदान करती है। परन्तु वही घटना दूर स्थित देश में हो तो उतनी तीब्र इच्छा नहीं होती है। दूरी के अतिरिक्त परिवार, भाषा, देश, धर्म की समानता की बात भी अपना महत्व खो नहीं पाई है। रोज़गार देने में अपने देश के व्यक्ति को प्राथमिकता देना सामान्य बात मानी गई है। भाषा तथा धर्म को संस्कारों से जोड़ा जा कर विशेष व्यचवहार किया जाता है। अण्धिक व्यापक स्तर पर जायें तो अभी भी मानव सहानुभूति उस स्तर तक नहीं पहुंची कि अपना आराम कम कर किसी दूसरे के आराम का प्रयास किया जाये। हां अपने आराम को सुनिश्चित करने के पश्चात दूसरे का भला करने की प्रवृति में अब काफी कुछ प्रगति हुई है।
वैश्विकता का अंतिम लक्ष्य विश्व बन्धुत्व का है किन्तु अभी इस के लिये बहुत सी मंजि़लें तय करना है। इसी क्रम में एक देश से दूसरे देश में पलायन की बात पर विचार किया जा सकता है। यह पलायन आर्थिक कारणों से भी हो सकता है तथा बहुलता प्राप्त गुट के अत्याचार के कारण भी। दोनों ही स्थिति में जिस देश में लोग आना चाहते हैं] वहां की अर्थ व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। इस कारण सहानुभूति तो इन शरणार्थियों के प्रति जाग उठती है परन्तु उन के स्वागत से भी अपने को बचा कर रखा जाता है जैसे कि आस्ट्रेलिया में शरण लेने वालों को सामना करना पड़ा है अथवा भूमध्य सागर के तटीय देशों में देखने को मिलता है। चूंकि स्थानीय लोगों का रोज़गार भी इस से प्रभावित होता है अतः उस दृष्टि से भी अप्रवास को कम करने का प्रयास रहता है। वस्तुओं के लिये मुक्त व्यवस्था की बात की जाती है किन्तु श्रम की नहीं।
कुल मिला कर वैश्वीकरण के नैतिक पक्ष को तो स्वीकार किया जा सकता है किन्तु व्यवहार में क्या स्थिति होती है] इस में अभी हमें काफी मंजि़लें तय करना है। वैश्वीकरण का मुख्य औज़ार बाज़ार है। यह सर्वविदित है कि बाज़ार को नैतिकता से कुछ लेना देना नहीं है। सामाजिक न्याय में दो बातें कार्य करती हैं - पहला एक बार में एक देश; और दूसरा सब से पास सब से पहले। सामान्यतः अपने देश में सामाजिक न्याय की बात से कार्य प्रारम्भ किया जाता है। केन्स, जिसे मुक्त व्यापर का जनक कहा जाता है, ने अपने देश के बारे में कहा था कि हमारी राष्ट्रीय स्वयं निर्भरता तथा आर्थिक विलग्न हमें मनपसंद की मुक्त व्यवस्था बनाने में सहायक हो गी। इस के तीन पहलू हैं। एक अपने यहां जितना अच्छा कर सकते हो करो] दो दूसरे की हानि मत करो] तीन यदि श्रम के विभाजन का कार्य संकल्पित ढंग से होता रहे गा तो पूरे विश्व को इस से लाभ हो गा। स्पष्ट है कि इस व्यवस्था में दूसरे देशों के प्रति हमारे दायित्व का कोई स्थान नहीं है। धारणा यह थी कि हमारे देश में जो हो रहा है, उस से कोई अन्य देश प्रभावित नहीं हो गा। यह धारणा किसी समय में सही रही हो गी किन्तु आज इस का कोई इमकान नहीं है। अन्याय के सागर में किसी देश के न्याय का द्वीप बनने के दिन अब नहीं हैं। यह अपने तक सीमित न्यायप्रियता नहीं चले गी। हमें सभी स्थानों में न्याय की स्थापना का प्रयास करना हो गा। इस बात की अपेक्षा की जाती है कि वैश्वीकरण के कारण अधिक देश न्याय के इस वृत में आ सकें गे।
वैश्वीकरण का स्थूल रूप विश्व स्तर पर अथवा विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली संधियों के रूप में देखा जा सकता है। विश्व व्यापार संगठन जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संधियों व्यापार में वृद्धि करती हैं] दूसरी ओर आई एल ओ (अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन) जैसी संस्थाएं सामाजिक सुरक्षा की सम्भवना में वृद्धि करती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठन सभी देशों में स्वास्थ्य को बेहतर देखना चाहता है। उस का विश्व व्यापी टीकाकरण अभियान बीमारी को दूर करने का प्रयास है। वास्तव में इस प्रकार के सभी संगठन यह भी मानने लगे हैं कि गरीबी को एक बीमारी मानते हुए इस का इलाज और अधिक निवेश ही है। इस की पिछड़े देशों में अधिक आवश्यकता है] यह भी मान्य किया जाता है। सामाजिक सुरक्षा के इस अभियान में बहु राष्ट्रीय संधियों तथा क्षेत्रीय संगठन भी अच्छी भूमिका निभाते हैं। वैसे तो इन में शामिल होना अनिवार्य नहीं है किन्तु इन से कुछ न कुछ लाभ हो गा, सोच कर देश शामिल हो जाते हैं। एक बार शामिल होने के बाद इन को छोड़ना और भी कठिन होता है यद्यपि कई तरह से इस में निहित भावना के साथ खिलवाड़ किया जाता है। एसियान, सार्क जैसे क्षेत्रीय संगठन आपसी सहयोग के कर्णधार बन रहे हैं। यह आगे प्रगति की युरोपीय संघ तक भी पहुंच सकते हैं
देश के भीतर सामाजिक न्याय स्थापित करने में स्वैच्छिक संस्थाओं की भूमिका भी काफी सहायक होती है। यूं तो उन को कोई अधिकार प्राप्त नहीं होते हैं किन्तु जनता के सहयोग से वह अपने देश की सरकारों को कई सकारातमक कदम उठाने में प्रेरक सि़द्ध हुई हैं। इन में कुछ अन्तर्राष्ट्रीय स्वैचिछक संस्थाओं की भूमिका भी रहती है। देशीय स्वैच्छिक संस्थायें इन अन्तर्राष्ट्रीय स्वैचिछक संस्थाओं से सम्बद्ध हो जाती हैं जैसे एमनेस्टी इण्डिया एमनेस्टी इएटरनेशनल से सम्बद्ध है। इस में सीधे भारत सरकार न भी सुने तो अन्तर्राष्ट्रीय संस्था अपनी दूसरे देशों की संस्था के माध्यम से वहां की सरकार पर दबाव लाती हैं तथा वह सरकार भारत सरकार पर दबाव बनाती है जिस से प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। इस का एक बड़ा उदाहरण बाल श्रम के बारे में भारत में निर्मित दरियों पर प्रतिबन्ध लगाने का है। इस के फलस्वरूप ही भारत को दरी उद्योग में बाल श्रम पर प्रतिबन्ध लगाने पर मजबूर होना पड़ा।
वैश्वीकरण में सभी देशों को एक समान मान कर अर्थ व्यवस्था चलाने की बात निहित हैं किन्तु व्यवहार में इस का लाना कठिन है अलग अलग देशों में खनिज पदाार्थ का प्रदाय एक समान नहीं है। प्राकृतिक स्थितियाॅं भी एक नहीं हैं। प्रश्न उठाया गया है कि क्या समानता की दृष्टि से प्रकृति द्वारा प्रदत्त खनिज पदार्थ पर सभी विश्व नागरिकों को समान अधिकार दिया जा सकता है अथवा इस का उपयोग समता लाने के लिये किया जाना चाहिये। यह स्पष्ट है कि इस के लिये वर्तमान में कोई देश तैयार नहीं हो गा। इसी प्रकार की स्थिति अनुदान के बारे में भी है। संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा अपने कृषकों को भारी अनुदान दिया जाता है जिस से उन के खाद्यान्न का भाव विश्व में कम रहता है तथा अन्य देशों को उसे निर्यात किया जा सकता है। इस से दूसरे देशों की कृषि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
पूर्व में हम ने देशों के समूहों की बात की है। इन संधियों तथा संस्थाओं का प्रभाव सीमित है। वास्तव में वैश्वीकरण के सूत्र बहु राष्ट्रीय निगमों के हाथ में हैं। वैश्वीकरण का अर्थ विदेशी निवेश के रूप में भी लिया जाता है। विकासशील देशों में इस बात की हौड़ रहती है कि किस देश में कितनी विदेशी मुद्रा का निवेश हुआ। इस से आर्थिक प्रगति को गति मिलने में सहायता मिलती हैं पर इस के नकारात्मक पहलू भी हैं जो कि गत शताब्दि के नब्बे की दशक में देखने को मिले। इन अन्तर्राष्ट्रीय स्वैचिछक संस्थाओं द्वारा अपना पैसा निकालने के कारण कई देशों की आर्थिक अर्थव्यवस्था चरमरा गई। इसी का एक दूसरा रूप मुद्रा का एक देश से दूसरे देश का केवल लाभ उठाने की दृष्टि से हस्तान्तरण किया जाना भी शामिल है। इस स्थिति से निपटने के लिये एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री टोबिन ने अन्तर्राष्ट्रीय कराधान का प्रस्ताव किया था। इसे टोबिन कर का नाम दिया गया है।
टोबिन कर की प्रथम संकल्पना अमरीका के प्रसि़द्ध बाज़ार वाल स्ट्रीट के संदर्भ में की गई थी। केवल सट्टेबाज़ी की दृष्टि से बाजार में प्रतिभूति का आदान प्रदान किया जाता है। इस के दुष्परिणाम रोकने के लिये प्रत्येक सौदे पर कर लगाने का प्रस्ताव किया गया। इसी को वर्ष 2001 में टोबिन द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा के हस्तान्तरण पर कुछ नियन्त्रण करने के लिये प्रस्तावित किया गया है। इस के अनुसार जब भी एक मुद्रा को दूसरी मुद्रा में बदला जाये तो एक मामूली राशि कर के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ को दी जाये। इस का इस्तेमाल हो या न हो और इसे चाहे सागर में डुबो दिया जाये, फिर भी इस व्यवस्था का प्रभाव पड़े गा। व्यापार पर रोक लगाने का विचार नहीं है किन्तु स्वयंमेव ही इस से सट्टेबाज़ी कम करने में सहायता मिले गी। यह हो सकता है कि कुछ देश इस में भी सहयोग न करे किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के आगे उन को भी झुकना पड़े गा।
वैश्वीकरण का एक अन्य रूप पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़ा है। यह स्वीकार्य है कि यदि बीस सब से अधिक प्रदूषण करने वाले देश अपना प्रदूषण कम करें तो काफी अन्तर आ जाये गा। ओज़ोन परत के बारे में भी सम्पन्न देशों को आगे आना हो गा। परन्तु अभी तक इस बारे में अधिक उत्साहवर्धक परिणाम देखने को नहीं मिले। वर्ष 2008 में क्योटो प्रोटोकोल अपनाया गया था जिस में कार्बन गैसों को कम करने के लक्ष्य निर्धारित किये गये थे। यह दुर्भाग्य की बात है कि संयुक्त राज्य अमरीका ने इसे मानने से इंकार कर दिया तथा कनैडा ने मानने के बाद पहली जनवरी 2012 को अपनी सहमति वापस ले ली। अमरीका में तो इन गैसों की मात्रा 1990 तथा 2011 के बीच ग्यारह प्रतिशत बढ़ी है। आस्ट्रेलिया] इटली तथा कनैडा भी क्योटो प्राटोल के लक्ष्य पूरे नहीं कर पाये।
उपरोक्त विवरण से पता चलता है कि वैश्वीकरण के सब से अधिक पैरोकार ही उस मर्यादा का पालन नहीं कर रहे हैं जिन को वैश्वीकरण का आधार माना गया था। उन का वैश्वीकरण में उसी सीमा तक विश्वास है जहां तक उन के स्वार्थ सिद्ध होते हैं। इस कारण वैश्वीकरण द्वारा न्याय की आशा धूमिल ही कही जाये गी।
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