top of page

वैश्वीकरण तथा गरीबी एवं कुपोषण

  • kewal sethi
  • Jul 22, 2020
  • 10 min read

वैश्वीकरण तथा गरीबी एवं कुपोषण


इस बारे में परस्पर विरोधी मत हैं कि वैश्वीकरण से गरीबी बढ़ी है अथवा कम हुई है। वैश्वीकरण के समर्थकों का कथन है कि उन देशों में जहाँ वैश्वीकरण को प्राथमिकता दी गई है, उन में आर्थिक प्रगति तेज़ी से हुई है। देशों के आपस में बढ़ते आर्थिक सहयोग के कारण सभी ओर प्रगति हुई है जिस से सभी नागरिकों को लाभ हुआ है। इस से गरीबी चारों और कम हुई है। विरोधी पक्ष का कहना है कि इस से बड़ा झूट कोई हो नहीं सकता है। उन का कहना है कि विश्व बैंक ही गरीबी के संदर्भ में एक मात्र आँकड़े प्रदान करने वाली संस्था है। इस के अध्यक्ष जेम्स वोलफेनसेान का कहना है कि गत 20 वर्ष में (1980 से 2000 तक) में गरीबों की संख्या 20 करोड़ कम हुई है। परन्तु इस की दूसरी ओर विश्व विकास संकेतक 2001 का प्रथम वाक्य है कि ‘‘विश्व के 6 अरब लोगों में से 1.2 अरब लोग एक डालर प्रतिदिन से कम पर गुज़र बसर करते हैं’’। यह संख्या 1987 में वही थी तथा 1998 में भी यही थी।

वास्तव में विश्व बैंक द्वारा जो आँकड़े दिये गये हैं, वह भ्रामक हैं। नब्बे की दशक में विश्व बैंक ने गरीबी के आंकलन के आधार में ही परिवर्तन कर दिया गया है। गरीबी का मापदण्ड एक डालर प्रति दिवस के स्थान पर 1.08 डालर प्रति दिन कर दिया गया है। पूर्व में 1985 में संगणित पीपीपी के आधार पर आंकलन किया जाता था जबकि अब 1993 के पीपीपी आधार पर संगणना की गई है। इस कारण दोनों दरों की तुलना नहीं हो सकती तथा गरीबी कम होने का प्रचार भ्रामक है। नये 1.08 डालर की शर्त से 94 देशों में से 71 देशों में गरीबी में कमी आई है। चीन में यह कमी 14 प्रतिशत है तथा भारत में 9 प्रतिशत। उन का कहना है कि दोनों पुराने तथा नये दरों में गरीबी की तुलना करें तो स्थिति इस प्रकार बनती है -

पुराने आधार पर गरीबी दर नये आधार पर गरीबी दर

सहरा दक्षिण अफ्रीकन क्षेत्र 39.1 49.3

दक्षिण अमरीका महाद्वीप 23.5 15.3

पश्चिमी एशिया/ उत्तर अफ्रीका 4.1 1.9


विश्व बैंक ने आधार में भी परिवर्तन इस तरह कर दिया है कि कुछ वस्तुओं का प्रतिवेदन काल सात दिन से बढ़ा कर 30 दिन कर दिया है। इस के साथ ही पीपीपी की संगणना में भी अनुमान अधिक तथा वास्तविक सर्वेक्षण में अन्तर है। चीन में इस का आंकलन कुछ नगरों में ही अनुमान के आधार पर किया गया है क्योंकि वहाँ पर सरकार ने व्यापक सर्वे कराने से इंकार कर दिया था। भारत ने भी 1993 के सर्वेक्षण में भाग लेने से इंकार कर दिया था, इस कारण वहाॅ पर 1985 के सर्वेक्षण को ही आधार बना कर संगणना की गई है। इन दोनों देशों में गरीबी रेखा से नीचे वालों की संख्या इतनी है कि विश्व के संकेताँक पर विपरीत प्रभाव डाल सकते हैं।

विश्व बैंक द्वारा तथा अन्य अभिकरणों द्वारा अलग अलग मापदण्ड भी सुझाये गये हैं जो उन के द्वारा किन वस्तुओं के अभाव को गरीबी मााना जाये गा, इस पर निर्भर करता है। एक आधार यह है कि 1.25 डालर से कम वालों को गरीब माना जाये। कुछ अन्य दो डालर को न्सूनतम आवश्यकता पूर्ण करने के लिये अनिवार्य मानते हैं। यदि 2 डालर को माना जाये तो 1991 में गरीबों की संख्या 2.2 अरब हो जाये गी। यह आवश्यक है कि गरीबी का मापदण्ड ऐसा हो जो सभी को स्वीकार हो तथा इस में अथवा सर्वेक्षण के आधार में लम्बे समय तक परिवर्तन न किया जाये जोय ताकि तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके।

इस क्रम में एक और मापदण्ड पर भी विचार किया जाता है। यह कुपोषण की स्थिति है। इस में कई अध्ययन किये गये हैं। कुपोषण को गरीबी का ही अन्य रूप माना जा सकता है क्योंकि आज इस से कोई अनभिज्ञता नहीं है कि पौष्ठक तत्व कौन से हैं जिन का सेवन आवश्यक है किन्तु उन्हें प्राप्त करने के लिये आर्थिक स्थिति आड़े आती है। कुपोषण के सम्बन्ध में खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा अध्ययन किया जाता है। अद्यतन प्रतिवेदन वर्ष 2012-14 की अवधि का है। इस के अनुसार विश्व में 80 करोड़ व्यक्ति कुपोषण के शिकार हैं। भारत में इन की संख्या 16.4 करोड़ है तथा चीन में 13.3 करोड़। अवधि 1990-92 के प्रतिवेदन में कुपोषित की संख्या 84 करोड़ बताई गई थी। इस से पता चलता है कि संख्या में विशेष कमी नहीं आई है।

जैसा कि गरीबी के बारे में कहा गया है, कुपोषण अध्ययन के आधार में भी परिवर्तन होता रहता है जिस से दो अवधि के बीच तुलना करना कठिन होता है। वर्ष 2010 तथा 2012 में खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा किये गये अध्ययन में तुलना की जाये तो स्थिति इस तालिका से पता चलती है।

२०१० प्रतिवेदन २०१२ प्रतिवेदन

१९९१ ८४ १००

१९९६ ७९ ९६

२००० ८१ ९२

२००१ ८३ ९

२००५ ८४ ९०

२००६ ८५ ८८॰५

२००८ ९२ ८७

२००९ १०२ ८७

२०१० ९३ ८७


एक ही संगठन द्वारा किये गये दो अध्ययन से स्थिति स्पष्ट होती है कि वैश्वीकरण के बढ़ते चरण का कुपोषण पर प्रभाव नहीं पड़ा है। 2010 के प्रतिवेदन के अनुसार तो इन की संख्या बढ़ी है।

देशों के भीतर आय का वितरण किस दशा में चल रहा है, इस पर भी विपरीत मत देखने को मिलते हैं। इस के आंकलन के लिये कई तरह के आधार हैं जैसे कि क). सकल राष्ट्रीय उत्पादन - पी पी पी के आधार पर डालर में परिवर्तित; ख). प्रत्येक देश को जनसंख्या के आधार पर भार दे कर संगणना; ग). सर्वोच्च दस प्रतिशत जनता का निम्नतर दस प्रतिशत जनता से तुलना; अथवा घ). राष्ट्रीय आय लेखा के आधार पर। इन सब में परिणाम अलग अलग आयें गे। फिर इस बात पर भी ध्यान देना हो गा कि गत दशकों में डालर का मूल्य बढ़ा है जैसे भारत में 1970 की दशक में डालर आठ अथवा नौ रुपये के बराबर था जबकि आज यह 60 के आस पास है। ऋण को वापस करने में इसे अधिक वस्तुओं का निर्यात करना पड़ता है। यह ऋण पी पी पी के आधार पर लौटाये नहीं जाते वरन् बाज़ार दर पर ही लौटाये जाते हैं।

विषमता की संगणना के बारे में भी अर्थशास्त्रियों में एक समान राय नहीं है। इस की संगणना के तीन तरीके हैं - 1. उच्चतम तथा निम्नतम दशमांश का मध्यम से तुलना जिसे जिनि अनुपात भी कहा जाता है, जिस के आधार पर देशों में परस्पर विषमता बढ़ी है (अर्थात अमीर देश और अमीर हुए हैं, गरीब देश और गरीब)। 2. यदि पूरी राष्ट्रीय आय को एक साथ लिया जाता है तथा हर देश को बराबर माना जाता है (भारत=यूगण्डा) तो भी विषमता बढ़ी है। 3. यदि तुलना में जनसंख्या के भार के आधार पर संगणना की जाती है तो गरीबी में वृद्धि अथवा कमी नहीं हुई है।


कुछ व्यक्ति इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि भले ही प्रतिशत वृद्धि एक समान हो किन्तु वास्तविक दूरी बढ़ती है जैसे 30000 डालर में एक प्रतिशत की वृद्धि 300 डालर हो जाती है किन्तु 4000 डालर पर पाँच प्रतिशत की वृद्धि का अर्थ भी 120 डालर ही हो गा जिस से वास्तविक अन्तर पूर्व के 26000 डालर के अन्तर से बढ़ कर 26180 डालर हो जाता है। वस्तुतः जो स्थिति है वह नीचे की तालिका से स्पष्ट होती है जिस में सब से नीचे के बीस देशों में प्रति व्यक्ति आय की तुलना ऊपर के बीस देशों से की गई है।

1960-62 2000-02

नीचे के बीस देश 217 267

ऊपर के बीस देश 11417 32339



जहाँ 1960- 62 की अवधि में नीेचे के बीस देशों में औसत उत्पादन 212 डालर था, वहीं सब से अमीर देशों में यह 11,417 डालर था। (दोनों आँकड़े 1995 की डालर की कीमत के आधार पर लिये गये हैं); वहीं 2000-02 की अवधि में यह आँकड़े क्रमशः 267 एवं 32,339 डालर हो गये हैं। प्रतिशत वृद्धि क्रमशः 26 तथा 83 प्रतिशत है।

दूसरी ओर यह तर्क भी दिया जाता है कि देशों की आपस में तुलना का महत्व नहीं है। असमानता की संगणना का कोई मतलब ही नहीं है। देखना यह चाहिये कि सभी देशों में आय बढ़ रही है। उन के विचार में मूल प्रश्न यह है कि देश के भीतर असमानता की क्या स्थिति है। इस सम्बन्ध में इस्कैप (एशिया पैसीफिक हेतु आर्थिक एवं सामाजिक आयोग) के एशिया के 40 देशों के वर्ष 2012-13 बाबत अध्ययन में कहा गया है कि भारत में आय असमानता का जिनि अनुपात 1990 तथा 2019 के बीच 30.8 से बढ़ कर 33.9 हो गया है। चीन में यह आँकड़े 32.4 तथा 42.1 है एवं इण्डोनेशिया में 29.2 तथा 38.1। भारत में असमानता कम बढ़ी है किन्तु कम नहीं हुई है, यह स्पष्ट है। देखने की बात यह है कि भारत वैश्वीकरण की दौड़ में कुद बाद में आया है। यह कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण के कारण आय असमानता बढ़ी है या कम से कम घटी नहीं है।

यह आम तौर पर देखा गया है कि विकासशील देशों के धनाढय व्यक्ति हर बात में विकसित देशों की नकल करना चाहते हैं। यहाँ तक कि उन के कपड़े धोने के साबुन भी वही होना चाहिये जो विकसित देशों में प्रयोग में लाया जाता है। इस स्थिति तक पहुँचने के लिये भ्रष्टाचार का सहारा लिया जाता है। इस से विकासशील देश की पूरी व्यवस्था ही प्रभावित हो जाती है। इस का अन्य प्रभाव विकासशील देशों से विकसित देशों की ओर उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों का पलायन भी है। प्रतिभा के इस पलायन का विपरीत प्रभाव विकासशील देशों की प्रगति पर पड़ता है। विकसित देशों के लिये यह लाभ का सौदा है क्योंकि उन्हें प्रतिभावान व्यक्ति सस्ते में मिल जाते हैं। वैश्वीकरण गरीबी तथा असमानता को कम करने का सब से बेहतर तरीका है, इस दावे के बारे में हम ने पूर्व में देखा है किन्तु यह कहा जा सकता है कि कम से कम इस से अन्तर स्पष्ट हो जाता है।

वैश्वीकरण के पक्ष में एक दलील यह दी जाती है कि देशें का आपसी व्यापार बढ़ रहा है। विश्व बैंक ने एक अध्ययन कराया है जिस में सभी देशों को वैश्वीकरण की दृष्टि से क्रमबद्ध किया गया है। अधिक वैश्वीकरण वाले ऊपर के एक तिहाई देशों का शेष देशों से तुलना में पाया गया कि उन में आर्थिक प्रगति अधिक तेज़ी से हो रही है। यह अध्ययन 1977 तथा 1997 के बीच के अन्तर के बारे में है। इस अध्ययन में एक कमी यह है कि जिन देशों की तेज़ी से प्रगति दिखाई गई है उन में आधार वर्ष में सकल घरेलू उत्पादन बहुत कम था। इस कारण प्रतिशत वृद्धि बहुत अधिक प्रतीत होती है। बहृत अर्थ व्यवस्थायें जैसे चीन तथा भारत में प्रतिशत वृद्धि कम ही हो गी। इन दोनों देशों में वैश्वीकरण भी उन की अपनी ही धीमी गति से हुआ है तथा अभी भी उन में सुरक्षात्मक प्रतिबन्ध विद्यमान हैं। ऐसे देशों में जापान, दक्षिण कोरिया तथा ताईवान भी हैं जिन्हों ने व्यापार में वृद्धि अपनी अर्थ व्यवस्था को सीमित रखते हुए ही किया है। जब वह अमीर हो गये तो उन्हों ने उदार होने की ओर कदम बढ़ाये जैसा कि अभी चीन में हो रहा है।

गरीबी तथा असामनता न हटा पाने के पीछे कारण क्या हैं, इस पर चिंतन आवश्यक है। विकासशील देशों में निर्माण उद्योग में वृद्धि तो हो रही है परन्तु देखने में यह आता है कि जैसे जैसे निर्माण उद्योग में उत्पादन में वृद्धि होती है, उस का अंशदान सकल उत्पादन में कम होता जाता है। इस का कारण सेवा क्षेत्र में अधिक गति से विकास है। इसी कारण विश्व बैंक ने भी अब निर्माण उद्योग के अंशदान की बात करना छोड़ दिया है तथा मानव आवश्यकताओं की बात पर ज़ोर दिया जा रहा है। यदि निर्माण उद्योग की भूमिका सीमित है तो दूसरा क्या कारण हो सकता है। निर्यातित सामान का मूल्य आयातित सामान के मूल्य की तुलना में कम हो रहा है। इस से विकासशील देशों को आयात निर्यात के अन्तर से मिलने वाली राशि कम हो रही है जिस से असामनता अथवा गरीबी प्रभावित हो रही है। कई अफ्रीकन देश जिन में खुली अर्थ् व्यवस्था है परन्तु जो काफी हद तक निर्यात पर निर्भर हैं, को इस नीति के कारण विपरीत परिस्थिति को झेलना पड़ता है।

देखा गया है कि विश्व की सब से विशाल 500 बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, जिन्हें वैश्विक कहा जाता है, का अधिकांश विक्रय उन के अपने गृह क्षेत्र - उत्तर अमरीका, युरोप अथवा पूर्व एशिया - में हो रहा है। यह कम्पनियाँ विश्व व्यापी न हो कर क्षेत्र व्यापी हो रही हैं। अधिक आय वाले उद्योग विकसित देशों में ही पनप रहे हैं। जर्मनी में कुशल कारीगर की लागत 15 प्रतिशत अधिक है परन्तु निर्माण उद्योग में वह अभी भी अग्रणी है। इस का कारण एक तो यह है कि श्रम का अंशदान अब तुलनात्मक रूप से कम हो गया है। दूसरे उत्पादन का सम्बन्ध फर्म में उपलब्ध तकनीकी ज्ञान से अधिक हो गया है अतः अधिक वेतन वाले व्यक्तियों को भी रखना नाभदायक होता है। विकसित क्षेत्र में अपने स्तर के दूसरे उन्नत उद्योगों से सम्पर्क भी सुगम हो जाता है। इस प्रकार कम तकनीकी ज्ञान वाले उत्पादन कम लागत वाले देशों में करा लिये जाते हैं तथा अधिक लागत वाले, जिन में लाभांश अधिक होता है, विकसित क्षेत्रों में होता है। इस से देशों में आपसी असमानता में वैश्वीकरण से कोई समता नहीं आ पाती है।

उपरोक्त कारण से तथा पलायन के कारण विकासशील देश केवल कम तकनीकी क्षेत्रों में ही आगे आ पाते हैं तथा विषमता को समाप्त करने में वैश्वीकरण सहायक नहीं हो सकता है। दूसरी ओर उन्नत तकनीक वाली वस्तुओं के दाम अधिक रखे जा सकते हैं जिसे विकासशील देशों को ही भरना पड़ता है। वैश्वीकरण का लाभ इस कारण केवल विकसित देशों को ही हो रहा है। इस का एक रूप तकनालोजी में हो रहे अनुसंधान से भी लगाया जा सकता है। जापान को छोड़ दिया जाये तो यह पश्चिमी विकसित देशों में ही हो रहा है। चीन तथा भारत इत्यादि देशों को अभी भी विदेशी निवेश पर ही निर्भर रहना पड़ता है। चीन में उत्पादन में ताईवान तथा अन्य विदेशी तकनालोजी का ही प्रयोग हो रहा है।

अन्य कुछ बातें भी विचार करने योग्य हैं। सूचना प्राद्यौगिकी का विस्तार निर्माण उद्योग के विकल्प में हो रहा है। इस में शिक्षा तथा नकनीकी ज्ञान का अधिक महत्व है। इस के साथ वित्तीय सेवाओं का भी विस्तार हो रहा है। इस स्थिति में रातों रात वित्तीय उड़ान का खतरा बढ़ जाता है। पूर्व एशिया में कुछ वर्ष पूर्व इसी कारण गम्भीर परिस्थिति निर्मित हो गई थी। इस कारण इस पर सतत निगरानी आवश्यक हो जाती है। यह तो सही है कि जनता की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिये विकास आवश्यक है। इस में विकासशील देशों में जहाँ सस्ती भूमि तथा सस्ता श्रम उपलब्ध है, का अपना योगदान रहे गा। स्वयं में ही स्थित अर्थ व्यवस्था का समय गुज़र चुका है। परन्तु इस के साथ ही देश के भीतर तथा देशों में परस्पर असमानता को कम करने का प्रयास भी आवश्यक है जो अभी नहीं हो रहा है। इस के लिये सब से प्रथम तो संगणना के तरीकों को ही बदलना हो गा ताकि केवल बहलाने का काम न हो वरन् वास्तविक उन्नति का पता चल सके। ऐसा न हो कि जलवायु परिवर्तन की तरह अर्थ व्यवस्था भी उलटी दिशा में जा रही हो। इस के लिये आयात करने के स्थान पर स्वदेशी उद्योग विस्तार को महत्व दिया जाना आवश्यक हो गा। इस में राज्य को उचित राष्ट्रीय हित की नीति बनाना हो गी। विश्व व्यापार संगठन को भी इस प्रकार कार्य करना पड़े गा कि परास्परिक आदान प्रदान के स्थान पर विकासशील देशों को अधिक सुविधायों प्रदान की जायें।


वर्ष 2012-14 में भी कुपोषित व्यक्तियों के बारे में विश्व बैंक के माध्यम से जो जानकारी उपलब्ध है (जो परोक्ष रूप से गरीबी का ही सूचक है), उन की संख्या 80 करोड़ है।

 
 
 

Recent Posts

See All
एलोपैथी बनाम आयुर्वेद

एलोपैथी बनाम आयुर्वेद परसों की बात कृत्रिम बुद्धि (ए आई) पर थी। सूचनायें अल्प समय में मिल जायें गी। आपस में मिलान भी हो जाये गा।...

 
 
 
why??

why?? indus valley civilisation is recognized as the oldest civilisation in the world. older than that of mesopotamia and egypt. yet they...

 
 
 
 रोग बनाम रोगी

एलोपैथी बनाम आयुर्वेद परसों की बात कृत्रिम बुद्धि (ए आई) पर थी। सूचनायें अल्प समय में मिल जायें गी। आपस में मिलान भी हो जाये गा।...

 
 
 

Commentaires


bottom of page