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वीर सावरकर काले पानी की ओर

  • kewal sethi
  • Aug 14, 2020
  • 6 min read

वीर सावरकर

काले पानी की ओर

(वीर सावरकर की आत्मकथा मेरा आजीवन कारवास से उद्धृत)


उस जलयान की सीढ़ी से चढ़ा कर मुझे सीधे उस के तल मंजिल पर ले जाया गया। उधर एक बड़ा पिंजड़ा बनाया गया था, जिस में लोहे की मजबूत छड़ें लगाई गई थी। इस जहाज का वह पिंजड़ा बहुत लंबा किंतु संकरा था, इस में कोई 20 30 व्यक्तियों को ही रखा जा सकता था। परन्तु हेतु पूर्वक वह इस तरह बनाया गया था जिस में आजन्म कारावास वाले काले पानी के बंदीजन जानवरों की तरह ठूॅंसे जाते। उस में मैं ने देखा कि उन बंधुओं को, जो ठाणे से आये थे, ठेला ठेली के साथ ठूॅंस कर खड़ा किया गया है। मैं मन ही मन सोच रहा था, क्या मुझे भी इस जहाज के इस घुटन भरे तलमंज़िले के अंधेरे पिंजड़े में इन बंदियों के साथ ठूॅंसा जाये गा। इतने में उस पिंजड़े का द्वार खुल गया तथा मुझे उसी में ठूॅंस दिया गया। इंगलैण्ड में ब्राकांटिस का शिकार हो जाने के मुझे जरा से तंग स्थान पर जाते ही साॅस लेना दुभर हो जाता है और छाती में दर्द होने लगता है, दम घुटने लगता है। मैंने उस अधिकारी को जो मेरे साथ था, से कहा कि इस प्रकार के तंग व घुटन भरे स्थान पर मुझे रोक रखने से गड़बड़ हो सकती है। उस ने जहाज के डॉक्टर को सूचित किया। उस ने कहा फिलहाल तो इधर ही रहो, स्वास्थ्य खराब होने पर देखा जाये गा। और विशेष सुविधा के तौर पर मुझे उस पिंजरे में न रख कर मेरा बिछौना एक कोने में, जहाॅं जहाज का छेद था, उस के सामने सींखचों के पास डालने का आदेश दिया। आगे शीघ्र ही ज्ञात होगा कि इस विशेष सुविधा का मुझे क्या लाभ हुआ.

इतने में एक और सज्जन आ गये। उन्हों ने मार्सेलिस की बात छेड़ी। मैं ने भी खुल कर थाड़ी चर्चा की। “आप से मिलने के हम हेतुपूर्वक आये थे. ईश्वर आप को वापस स्वदेश ले आये, यही हमारी हार्दिक इ्रच्छा है’’। इतना कहते हुये वे सभी अधिकारी अपने टोपी उतार का प्रणाम कर के चले गये। एक गोरे गृहस्थ को जैसे उन का यह व्यवहार अखर गया और वह हेय एवं क्रुद्ध दृष्टि से उन्हें और मुझे घूर कर बिना प्रणाम के चला गया। जैसे उस की दृष्टि बता रही थी- भला, पापी बंदी को इतना सम्मान क्यों।

जहाज़ की सीटी के पश्चात भों भों भों की कर्ण कुट्टू आवाज आई और एक हिचकोले के साथ जहाज़ चल पड़ा। उस पिंजड़े की ऊंचाई पर दो तीन छोटी-छोटी गोलाकार खिड़कियाॅं थीं, जो शीशे से बंद की गई थीं। उन से लटकते हुये, उन अभागे दंडितों में से कुछ तट की ओर टकटकी लगा कर देखने लगे - किनारा दृष्टि से ओझल हो गया. ‘घर छूट गया, भई घर छूट गया’ कहते हुये उन में से एक धम से नीचे बैठ गया। यह सुनते ही’ हम अपना देश पुनः कब देखें गे’ ऐसे बिलबिलाते हुये सितारा की ओर से दो किसान फूट-फूट कर रोने लगे. ‘अब काला पानी लग गया। भैया, रो मत। काले पानी में रोने से कुछ नहीं होता’। इस तरह उन दंडितों में से जो छठे हुये बदमाश अपराधी थे, दार्शनिक की तरह बीचो बीच खड़े हो कर सभी को सांत्वना दे रहे थे। बीच में से किसी ने मेरी ओर संकेत करते हुये कहा, “देखो भैया, तुम्हारी हमारी बात छोड़ो। वह देखो, बालिस्टर साहब, भई अंग्रेज़ अफसर भी टोपी उतार कर उन्हें प्रणाम करते हैं। भला उन के दुख के सामने हमारा दुख क्या है”

इतना कहने की देर थी कि सभी मेरे इर्द गिर्द जमा हो गये। प्रायः सभी को ज्ञात था कि मुझे 50 वर्षों का दण्ड मिला है, तथापि हर कोई पूछता - कितने वर्षों का दण्ड। मैं ने अपने गले में लटका क्रमाॅंक वाला वह बिल्ला ही उन के हाथों में थमा दिया। बार बार पचास पचास की रट लगाते हुये मैं ऊब सा गया था। यह सुन कर कि सच मुच मुझे पचास वर्ष का दण्ड हुआ है - केवल उन्हें ही नहीं अपितु सहस्त्राधिक दण्डितों को भी, जिन्हें 15 वर्ष के दण्ड से ही सिट्टी पिट्टी गुम हो गई थी, धीरज बंधता। उन सभी बंदियों का दुख मुझे देखते ही हल्का हो जाता.

कुछ देर बाद संध्या हो गई। गर्मी से जान निकलती, तिस पर इतना भीड़ भडक़्का. उन चालीस पचास लोगों में जिन में हिंदू मुसलमान सब थे, कुछ तो घिनौने जीवन के अभ्यस्त बन कर निर्लज्ज बने हुये थे. चोर, उचक्के, डाकू, वापी असाध्य रोग से ग्रस्त; कुछ ऐसे घिनौने जिन्हों ने वर्षों से दाॅंत भी नहीं माॅंजे थे। इस तरह के 40 50 आदमियों की बिछौनों पर बिछौने बिछाये हुये भीड़ भाड़ में मैं भी अपना बिस्तर बिछा कर लेट गया। मेरे पैरों से किसी का सिर सटा हुआ था। मेरे सिर से ही नहीं, अपितु मुंह के पास किसी की टाॅंगें सटी हुई थी। और तनिक उधर मुंह करे तो मुख से मुख सटा हुआ। पल भर चित लेटा। सामने ही एक बड़ा सा पीपा आधा कटा हुआ रखा हुआ था। उधर थोड़ा रिक्त स्थान था। उस पिंजड़े में अन्यत्र बहुत भीड़ हो गई थी। उसकी तुलना में मेरे कोने में कम भीड़ थी और इसी कारण मुझे अपना बिस्तर बिछाने की सहुलियत दी गई थी। परंतु इतने में सड़ी हुई दुगंघ का इतना तीब्र बपारा आया कि नाक सड़ गई। मैं ने अपनी नाक जोर से दबा कर बंद की। देखा तो ज्ञात हुआ कि यह पीपा ही रात भर सभी प्राणियों के शौचकूप के स्थान पर काम में आने वाला है। मेरी दृष्टि उधर गई तो वह बंदी, जो उस पर बैठा था, बेचारा उठने लगा. परन्तु मैं ने संकेत से उसे बैठने को कहा. “ अरे यह तो देहधर्म है. भला इस में लज्जा कैसी? थोड़ी देर में मुझे भी उधर ही बैठना हो गा। किसी को भी संकोच करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा नहीं कि मेरी नाक है और तुम्हारी नहीं है, तो फिर तुम लोगों से अधिक भला मुझे यह गंदगी असहनीय क्यों लगे?” उन में से एक पुराना घाघ मेरे निकट आ कर कहने लगा, “दादा, हम इस के आदी हो चुके हैं। मैं काले पानी से ही आ रहा हूं। आप उस कोने में चलिये। वहाॅं न भीड़ है न दुर्गंध। मैं इधर आ जाता हूॅं.” उस की उदारता को मैं ने मन से सराहा। मैं ने सोचा ’ हे प्रभु, इन पतितों के अंतःकरण के आंगन में भी एक सुंदर सा तुलसी वृंदावन होता है,’

मैं ने उस घुटे डाकू को धन्यवाद दिया और कहा, “खुली हवा के लिये डॉक्टर ने मुझे यह विशेष सुविधा दी है कि मैं सलाखों के पास ही सॉे जाऊॅं। इस पीपे की बात पर उन्हों ने गौर नहीं किया। मैं इसे भी एक विशेष सुविधा समझता हूॅं. आप चिंता न करें। भला आप को इस गंदगी में धकेल कर मैं उधर क्यों जाऊं? मुझे भी इस जीवन का आदी होना हो गा.” रात में एक के पीछे एक बंदी उस पीपे पर आने जाने लगे. गंदगी और घिनौने दुश्य की चरम सीमा हो गई। मैं ने अपनी आंखें बंद कर के सोने का स्वांग रचाया ताकि उन बंदियों को संकोच ना हो। मन कसमसाया, ’हाय हाय, यह तो जीवित नर्क भोगना पड़ रहा है तुम्हें”, ”यह सत्य है. पर यह भी अपना अपना विचार है। यह तुम्हें विशेष सुविधा मिल रही है। फिर उस का विशेष उपयोग क्यों नहीं कर लेते’’। जाति पाॅंति, गौत्र, वर्ग का ही नहीं, अपितु शील और शुचिता का अहंकार भी चकनाचूर करने के लिये ही ईश्वर ने तुम्हें यह अवसर तो प्रदान नहीं किया।

अन्न की विष्ठा, विष्ठा की खाद, और खाद से फिर अन्न। ये सब ईश्वर का चमत्कार है। ऐसे ही विचारों से गंदगी का उपद्रव दूर हो गया। रात एक बजे के करीब गहरी नींद सो गया. उस जलयान में इस तरह मेरा उस कोने में अविकल रहना सभी बंदियों के लिये आश्चर्य का कारण बन गया. एक दो जनों ने तो मेरी पीठ पीछे यह संदेह भी व्यक्त किया कि मैं किसी नीच जाति का गंदा, घिनौना व्यक्ति हूं जिस के शरीर से पसीने की दुर्गंध आती है ,

उस जहाज के यात्रियों तथा कुछ भारतीय अधिकारियों की हार्दिक इच्छा रहती थी मेरी कुछ न कुछ सहायता कर के अपनी आदर भावना व्यक्त करें जो उन के मन में मेरे लिये पनप रही थी। आते जाते वैसे यथासंभव मुझ से मिल कर जाते. यूरोपीयन लोगों में कुछ संतरियों ने भी मेरे प्रति बहुत आदर भाव प्रदर्शित किया। कुछ अंग्रेज़ी वृतपत्र, पत्रि कायें प्राप्त हो गईं। जहाज़ में खाने के लिये केवल भुने चने मिलते थे। परंतु कुछ अधिकारियों ने अनुरोध किया कि मैं कुछ खाने के लिये ले लूॅं। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या मागूॅं। मुझे अकेले को देना भी कठिन था। अंत में कुछ उदार व्यापारियों ने कप्तान की आज्ञा प्राप्त कर के सभी बंधुओं के लिये मछली, भात और अचार आदि व्यंजन तैयार कराये। मेरे कारण दो दिन के अनशन के पश्चात ऐसा भोजन प्राप्त हुआ जो कभी नहीं मिलता था, इस लिये सभी बंदी वाॅंसों उछल पड़े. मेरे साथ ही उन्हें घंटा, आधा घंटा के लिये उस घुटन भरे तंग तलमंज़िले पिंजड़े से निकाल कर हवा खोरी के लिये ऊपर के तले पर जब लाया जाता तब साधारण व्यवस्था से अधिक व्यवस्था तथा सुविधा पूर्वक व्यवहार किया जाता। इस के संबंध में वे दण्डित मुझ से कहते, “ बाबूजी, अहोभाग्य कि आप हमारे साथ आये. कितना अच्छा हुआ.” तब मैं हंसते हुये कहता, ‘‘तो फिर यह अच्छा ही हुआ ना कि मुझे दंड मिला’’.


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