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व्याख्या के नियम

  • kewal sethi
  • Aug 16, 2020
  • 3 min read

- व्याख्या के नियम


आज वरिष्ठ विमर्श की बैठक में विषय था ‘गीता का संदेश’। सुश्री क्षमा पांडे जी ने बहुत ही विद्वतापूर्वक कतिपय अंशों के पाठ सहित इस के बारे में जानकारी दी। उन का उदबोधन प्रभावी था पर मैं उस का विवरण नहीं दूं गा किंतु उस के बाद जो दो प्रश्न पूछे गये, उन के बारे में कुछ कहूं गा।


एक प्रश्न था - कहा गया है कि फल की इच्छा के बिना कर्म कर। क्या यह संभव है? क्या बिना फल की इच्छा किए कोई काम किया जा सकता है। ऋषियों ने जो तपस्या की थी उस में भी उन्हें मोक्ष फल के रूप में प्राप्ति की अपेक्षा थी।

दूसरा प्रश्न - कि जब भगवान ने यह प्रतिज्ञा की है कि वह अधर्म के नाश के लिए अवतार लें गे तो क्या हमें कुछ करने की आवश्यकता है। क्या यह इस बात का द्योतक नहीं है कि हमें कुछ करना नहीं चाहिए।


वास्तव में ऐसे प्रश्न पूछा जाना उचित नहीं है। किसी श्लोक के एक अंश या उस के भी आधे भाग को ले कर कोई टिप्पणी करना उचित प्रतीत नहीं होता है। पूरा श्लोक भी उद्धृरित किया जाए तो भी उस की मनपसंद व्याख्या नहीं की जा सकती। हर बात को उस के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। फल की इच्छा न करने का अर्थ यदि उस के सही परिपेक्ष्य में लिया जाए तो यह है कि हर व्यक्ति के लिए एक कर्तव्य निश्चित है और उसे उस कर्तव्य का पालन करना चाहिए, यही धर्म है। उस समय इस बात की चिंता नहीं की जानी चाहिए उस कर्म का फल क्या होगा। वैसे तो कर्म सिद्धांत के अनुसार कोई कर्म ऐसा नहीं है जिस का कोई फल ना हो। पर यदि केवल फल की सोचते हुए कर्म करें गे तो ना तो कर्म ठीक से ही हो पाए गा न ही हम अपने धर्म का पालन कर रहे हों गे।


भगवान की प्रतिज्ञा कि वह धर्म का नाश करने के लिए आएं गे का अर्थ यह नहीं है कि हमें कुछ करना नहीं चाहिए। महाभारत का परिपेक्ष्य में भी देखा जाए तो उस में भी भगवान ने स्वयं अधर्म का नाश नहीं किया बल्कि सभी को प्रेरित किया कि वह अधर्म का नाश करें। निमित तो किसी को, बल्कि हर किसी को बनना हो गा।


इसी संदर्भ में 18वें अध्याय का श्लोक 66 भी देखने लायक है जिस में कहा क्या है कि सब धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आ, मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूॅं गा। यदि केवल इस श्लोक को ही पूरा ज्ञान मान लिया जाए तो इस का अर्थ यह लगाया जा सकता है कि पाप करो, भ्रष्टाचार करो, चाहे जो भी चाहो, करो, पर अंत में मेरी शरण में आ जाओ। इतना ही काफी है। पाप नष्ट हो जाएंगे और मोक्ष प्राप्त हो जाए गा। पर इसी श्लोक को पूरी गीता के संदेश के रूप में देखें गे जिस के हर शब्द में धर्मपूर्वक कर्म करने के लिए प्रेरित किया गया है तो श्लोक का अर्थ ही बदल जाए गा।


बहुत से विद्वानों ने इसी प्रकार बिना समझे अंग्रेजी में अनुवाद भी कर दिया है और पूरे का पूरा अर्थ ही बदल दिया है। इस का इस्तेमाल हिंदू धर्म की बुराईयां गिनाने के लिए किया जाता है परंतु हमें, अपनी परंपराओं का तथा अपनी संस्कृति का ज्ञान है, इस कारण अपने स्वयं के अर्थ और व्याख्या का पालन करना चाहिए।


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