विदेश नीति — चीन तथा हम
कल हमारे समूह में विदेश नीति पर चर्चा हुईं। जैसे कि आम तौर पर होता है, बात चीन से आरम्भ हुई तथा चीन पर ही समाप्त हुई। भारत तथा चीन की प्रतिर्स्पद्धा के बारे में बताया गया। कैसे चीन भारत को घेरने का प्रयास कर रहा है। श्री लंका में हो अथवा माले में अथवा नेपाल में, चीन अपने पैर फैला रहा है। अफ्रीका ज़रा दूर है अतः उस के बारे में अधिक ज़िकर नहीं हुआ। यह भी कहा गया कि चीन विश्व शक्ति बनने का प्रयास कर रहा है तथा इस में उस की सैनिक शक्ति से अधिक उस की आर्थिक एवं तकनीकी एवं बौद्धिक शक्ति का योगदान है।
इस संदर्भ में यह भी कहा गया कि हमारे यहाॅं चीन के बारे में अनुसंधान करने वाले तथा उस की स्थिति का अध्ययन करने वाले बहुत कम हैं इस कारण हम उस की मंशा के बारे में जान नहीं पाते। जानकारी के अभाव में हम अपने दाॅंव भी नहीं खेल पाते।
यहाॅं प्रश्न यह उठता है कि हम चीन से तुलना करते ही क्यों हैं। भारत को महाशक्ति बनाने का इरादा तो बहुत है पर क्या इस की कोई सम्भावना है। जहाॅं तक चीन का सम्बन्ध है, यह कहना सही नहीं हो गा कि वह विश्व शक्ति बनने का प्रयास कर रहा है। वह सदैव से विश्वशक्ति था। जब 1945 में संयुक्त राष्ट्र का गठन किया गया था तो चीन उन पाॅंच देशों में था जिसे सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाया गया तथा उसे वीटो का अधिकार दिया गया। जब साम्यवादियों ने सत्ता प्राप्त कर ली तथा फारमोसा को छोड़ कर सारे देश पर उन का अधिकार हो गया तो भी चीन सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य रहा। प्रश्न केवल यह था कि चीन का प्रतिनिधित्व कौन करे। अमरीका का जब तक बस चला, साम्यवादी चीन को बाहर रखा गया और कम्युताॅंग सरकार को ही प्रतिनिधि माना गया। पर वास्तविकता को अधिक समय तक नकारा नहीं जा सका।
अब प्रश्न यह है कि क्या भारत महाशक्ति बन सकता है। यह विचार व्यक्त किया गया तथा सही भी है कि पहले इसे आर्थिक रूप से सुदृढ़ होना हो गा। अभी तक हम व्यापार में धनात्मक स्थिति में ही हैं तथा इस में परिवर्तन की गुंजाईश भी कम ही प्रतीत होती है। भारत में उद्योग के तेज़ी से बढ़ने का अवसर बहुत कम है जिस के लिये कई अवरोध हैं। लाल फीताशाही के अतिरिक्त श्रमिकों की सुरक्षा ऐसी रूकावटें हैं जिन से पार नहीं पाया जा सकता।
परन्तु मेरे विचार में सब से बड़ी रूकावट आज की स्थिति में भारत में राष्ट्रीयता का अभाव है। भारत के बाहर जा कर ही हम भारतीय बनते है। देश के अन्दर हम बटे हुए हैं। वैसे तो विविधता एक सद्गुण है पर हम इसे अति तक पहुॅंचा देते हैं। राजनीति में यह अधिक देखा जा सकता है। विरोधी दल का काम केवल विरोध करना है। क्या बात देश हित में है तथा क्या देश हित में नहीं है, यह सोचने की उन्हें फुरसत ही नहीं है न ही उस में रुचि है। सरकार का विरोध केवल विपक्ष के राजनीतिक दल ही नहीं करते, इसे बौद्धिक लोगों का भी जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता है। आम लोगों में भी यही धारणा है कि हमें विरोध जताना चाहिये। जो विरोध नहीं जताते उन्हें भक्त कह कर तिरस्कृत किया जाता है। हमें स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान यह सिखाया गया था कि सरकार का विरोध किया जाना चाहिये। शालाओं का बहिष्कार करना चाहिये क्योंकि यह शालायें सरकारी हैं और हमें सरकार से कुछ लेना देना नहीं है। असहयोग अन्दोलन भी इसी की एक कड़ी थी। यह भी आम धारणा थी कि सरकारी सम्पत्ति हमारी गुलामी के चिन्ह हैं। इन को नष्ट करना स्वतन्त्रता संग्राम को मज़बूत करना है। बीस की दशक में गाॅंधी ने एक थाने पर हमले के विरोध में अपना अन्दोलन वापस ले लिया था किन्तु 1942 में कितने ही रोलवे स्टेशन, डाकखाने जलाये गये पर अन्दोलन वापस लेने की घोषणा नहीं की गई। वे देशभक्ति की अभिव्यक्ति मानी गई। हम ने यह सबक भुलाया नहीं है और आज भी सरकार का विरोध सरकारी सम्पत्ति का नष्ट करने से अभिव्यक्त होता है। तथाकथित अहिंसात्मक विरोध केवल भाषणों में ही होता है।
इस बौद्धिक अवरोध के कारण ही हम प्रगति नहीं कर पाते। एक बार फिर दौहराना हो गा कि हमारे देश में राष्ट्रीयता की कमी है। सरकार कोई भी कदम उठाये, उसे हम इसी तराज़ू से तोलते हैं कि इस में हमारा व्यक्तिगत लाभ कितना है। जहाॅं हमें अपना लाभ नहीं दिखता, वहाॅं हम किसी भी कदम के विरोध में हैं जैसे नोटबंदी। इस का आश्य क्या है, इस का क्या परिणाम हो गा, वह सोचने की बात नहीं है, सोचने की बात तो यह है कि इस से हमें क्या लाभ हुआ। कुछ भी नहीं। जितने ईमादारी के पैसे थे, उस के बदले उतने ही मिले। बीस पच्चीस प्रतिशत अधिक दे देते तो योजना ठीक होतीं।
सड़कें बन रही हैं पर हमें इस का क्या लाभ है, यह तो बताया जाये। कर हम दें और लाभ ट्रक वालों को हो, यह तो कोई बात न हुई। बीच में चीनी माल के विरोध की बात उठी। उसे राष्ट्रीयता से जोड़ा गया पर व्यापारी का विचार था कि सस्ते में माल ले कर बेचने में ही हमारा लाभ है। इस में राष्ट्रीयता का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये। भारतीय दवाई उत्पादक सफल उद्योग चलाते हैं। पर उन्हों ने देखा कि मूल दवाईयाॅं तो चीन से सस्ती मिल रही है। उन्हों ने वहाॅं से लेना आरम्भ कर दिया और हमारा मूल दवाईयों का उद्योग ढंडा पड़ गया। आज स्थिति यह है कि यदि चीन हमें यह मूल दवाईयाॅं न दें तो हमारा औषध निर्माण उद्योग ही समाप्तप्रायः हो जाये।
एक बात और जो अवरोध की पराकाष्ठा है। स्वतन्त्रता के पश्चात हमें भिकारी बना दिया गया है। अब स्थिति यह हो गई कि हम माॅंगते ही रह जाते हैं। हमें आरक्षण दे दो। हमें अनुदान दे दो। हमें सरकारी नौकरी दे दो। हमारे खाते में पंद्रह लाख डाल दो। हमारे राज्य का विशेष दर्जा दे देा।
और सरकारें भी इस प्रवृति को पोषित करती हैं। एक रुपया किलो चावल ले लो, निशुल्क बिजली ले लो, बिना परीक्षा के अगली कक्षा में पहुॅंच जाओ। मुफ्त पुस्तकें, वर्दी ले लो। मुफ्त लैपटाप ले लो। अब इस माहौल में व्यक्तिगत प्रगति की क्या सोचें, राष्ट्र की प्रगति तो दूर की बात है। मुझे याद है कि जब देश के विभाजन के बाद लोग पाकिस्तान से आये तो उन्हें शरर्णाथी कहा गया। इस पर आपत्ति ली गई कि हमें शरणार्थी मत कहो, पुरुषार्थी कहो। दो तीन साल में सारे शरणार्थी कैम्प बन्द हो गये। कोई शरणार्थी नहीं रहा। सब अपने काम धंधे में लग गये। पूरे भारत में फैल गये। पर यह भावना आज नहीं है। आज केवल माॅंगने की भावना है। और माॅंग पूरी न होने पर विरोध जताने की भावना है।
बहुत समय बाद संविधान में अनुच्छेद 51 ए डाल दिया गया। इस के बारे में शायद ही किसी को जानकारी हो कि यह है क्या। वैसे भी संविधान देव तुल्य है। उस की पूजा करना चाहिये। उस से कुछ माॅंगना हो तो माॅंग लेना चाहिये वरना मंदिर में मूर्ति की तरह विराजमान रहे, यही काफी है।
बहुत हो गई बात रूकावटों की, पर करना क्या है? काश समाधान इतना आसान होता। पूरे राष्ट्र का चरित्र बदलना कोई सरल काम नहीं है। स्वच्छता अभियान को लीजिये। चार साल बीत गये, एक रह गया। पर कितना अन्तर हुआ। सरकार सफाई करे तो ठीक है। हम तो करने से रहे। वह शौखचालय बना दे तो ठीक। हमें तो इसतेमाल नहीं करना।
पर फिर भी कहीं आरम्भ तो करना पड़े गा। और यह बात केवल शालाओं से ही आरम्भ हो सकती है। शिक्षा नीति विचाराधीन है। बहुत समय तक विचाराधीन रही। अब घोषित हो गई है तो अच्छा है। अब इस पर कार्य योजना बने गी। समय लगे गा। शायद यह भी दो एक वर्ष विचाराधीन रहे। पर है तो उस में इस की नींव डाली जा सकती है।
करना यह हो गा कि यह बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक का भेद सिरे से ही गायब कर दिया जाये। सब भारतीय हैं और केवल भारतीय। न कोई उच्च है न कोई दलित, सब एक हैं तथा यह बात केवल शिक्षा में उभयनिष्ठ शाला - कामन स्कूल - के माध्यम से ही हो सकती है। पहली से आठवीं तक सभी एक ही पड़ोस की शाला में जायें गे। कोई निजी शाला नहीं हो गी (अनुदान प्राप्त शालायें जो सामान्य पाठ्यक्रम अपनाती है, अलग बात है।)।
बाकी रहा, उद्योग की प्रगति, तकनीकी शिक्षा का प्रगति, सैन्य शक्ति की वृद्धि, आधार भूत सुविधाओं की वृद्धि, उन के लिये तो कार्यक्रम हैं औार उन्हें पूरी तत्परता से किया जाना चाहिये। सरकार करे गी ही। पर हमें भी तो करना हो गा। एक बार दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो सब कुछ हो सकता है। हमारा भी योगदान हो गा यदि राष्ट्रीयता की भावना हो। राष्ट्र की सोचें गे तो व्यक्तिगत स्वार्थ की बात छोड़ सकें गे। राष्ट्र की सोचें गे तो केवल राजनीति के लिये विरोध करना बन्द कर दें गे। राष्ट्र की सोचें गे तो भ्रष्टाचार पर अपने आप लगाम लग जाये गी।
फिर समय हो गा सोचने का कि हम महाशक्ति बनें पर अभी तो मंज़िल दूर है।
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