वेदों में क्या है?
हमें बचपन से ही बताया गया है कि ऋगवेद संसार की प्रचीनतम पुस्तक है। शताबिदयों तक इसे मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दिया जाता रहा। बाद में इसे लिखा गया। जर्मन तथा अन्य देशों के विद्वानों ने इन को विश्व के समाने प्रस्तुत किया जिस से विश्व को इन नायाब पुस्तक का पता चला।
इन विद्वानों ने ऋचाओं का अनुवाद किया तथा उसे विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया पर वे स्वयं भी इन ऋचाओं के निहित अर्थ को समझ नहीं पाये। एक ऋचा (ऋगवेद 1.54.6) लें -
त्वमाविध नर्यन्तुर्वशं यदुं त्वं तुवीर्ति वय्यं शतक्रतो।
त्वं रथमेतशं कृतव्ये धने त्वं पुरो नवर्तिदम्भयो नव।।
गि्रफथ ने इस का अनुवाद इस प्रकार किया है -
Thou helpest Narya, Turvasa and Yadu, and Vayya's son Turviti, Satakratu! Thou hast protected their chariots and horses and car in the final battle. Thou breakest down the nine and ninety castles.
एक और विद्वान विल्सन का अनुवाद इस प्रकार है -
Thou hast protected Narya, Turvasha, Yadu and Turviti, of the race of Vayya, thou hast protected their chariots and horses in the unavoidable engagement, thou hast demolished the ninety nine castles (of Shambara).
अब देखें कि इस ऋचा का अनुवाद स्वामी दयानन्द ने किस प्रकार किया है। '
'हे (शतक्रतो) बहुत बुद्धियुक्त विद्वान सभाध्यक्ष। जिस कारण आप (नय्यर्म) मनुष्यों में कुशल, (तुर्वशम) उत्तम (युदं) यत्न करने वाले मनुष्य की रक्षा आप (तुर्वीतिम) दोष वा दुष्ट प्राणियों को नष्ट करने वाले (वय्यम) ज्ञानवान मनुष्य की रक्षा और आप (कृतव्ये) सिद्ध करने योग्य (धने) विधा चक्रवर्ती राज्य से सिद्ध हुए द्रव्य के विषय (एतशम) वेगवाले गुण वाले अ‹वादि से युक्त सुन्दर रथ की रक्षा करते और आप दुष्टों के निन्यानवे नगरों को नष्ट करते हो। इस कारण आप का ही आश्रय हमें करना चाहिये।
शतक्रतो का शबिदक अर्थ तो सौ (यज्ञ) करने वाला है पर स्वामी जी ने इसे अधिक व्यापक रूप दे दिया है। किन्तु कुल मिला कर पूरी ऋचा का अर्थ ही बदल जाता है। केवल कुछ राजाओं तथा युद्ध की बात नहीं रह जाती है जैसा कि पाश्चात्य विद्वान हमें बताते हैं। ऋचा में संदेश है जिसे स्वामी जी ने इस प्रकार बताया है कि केवल उसी को राजा स्वीकार करना चाहिये जो हमारी रक्षा करने में सक्षम हो।
महर्षि अरविन्द ने अपनी पुस्तक "the secret of vedas"में भी इसी प्रकार एक प्रसंग को उस के शाबिदक अर्थों से बाहर जा कर समझाया है। इन्द्र तथा वृत संग्राम के स्थान पर उस में दो विचारों का संघर्ष प्रतिबिमिबत होता है।
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