top of page

वीर सावरकर और बुलबुल

  • kewal sethi
  • Sep 6, 2022
  • 5 min read

वीर सावरकर और बुलबुल

कर्नाटक की एक पुस्तक में लिखा गया कि वीर सावरका बुलबुल पर बैठ कर मातृभूमि के दर्शन करने रोज़ आते थे। सावरकर विरोधियों को तो जैसे एक अपूर्व खज़ाना मिल गया हो। उन के दिल बाग बाग हो गये। इतने मसरूर हुये कि व्यंग्य लेख से फेसबुक और टिविट्टर भर दिया। अब इस में कोई तुक थी या नहीं, इस से व्यंग्य लेखक को क्या सरोकार। उसे तो बस मसाला चाहिये। बालू की भीत बना ले। एक ने तो फिल्मी गीत के आधार पर एक कविता ही बना ली। एक ने कहा कि बुलबुल मातृभूमि का 3000 किलोमीटर का रास्ता एक रात मे तय कर वापस कैसे आ जाती थी जबकि वायुयान भी ऐसा नहीं कर सकता। हो सकता है उन का वायुयान का ज्ञान सीमित हो पर उन का मातृभमि के बारे में ज्ञान तो अवश्य ही सीमित है। शायद उन के विचार में मातृभमि का अर्थ वह कमरा है जिस में उन का जन्म हुआ था। जो व्यक्ति विशेष या परिवार विशेष के ही गुण रात दिन गाता हो और जिस के विचार उसी परिवार के इर्द गिर्द घूमते रहते हों, उन से मातृभूमि के ज्ञान की अपेक्षा भी नहीं की जाना चाहिये। हाँ जब उन का सिकूलरिज़्म ज़ोर पकड़ता है तो वह अलामा इकबाल का ज़िकर करना नहीं भूलते जिस ने कहा था - घुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में, समझों हमें वहीं, दिल हो जहाँ हमारा। पर वह बात तो उस समय ही है। हर समय थोड़े ही मातृभमि का सोचें गे।

कहते हैं आज़ादी चरखे से आई। पता नहीं कैसे। क्या इतने चरखे बन गये कि बंदूकें बनाने के लिये लकड़ी ही नहीं बची। बंदूकें न होने से बेचारे अंग्रेज़ क्या लड़ते। इस कारण वह हिन्दुस्तान छोड़ कर ही भाग गये। शुक्र है कि चरखे ने उन की पीछा नहीं किया नहीं तो इंगलैण्ड छोड़ कर वह कहाूं जाते। पर शायद चरखे ने उन का पीछा किया और इस कारण आज़ादी मिलने के बाद चरखा भारत से गायब हो गया। काँग्रैस जिस ने चरखे को अपना परचम बना लिया था, ने अपना परचम देश को दे दिया। चरखा तो गायब था पर उस का चक्र रह गया। उसे उन्हों ने अशोक चक्र का नाम दे दिया। खुद उन्हों ने अपने झण्डे के लिये गाय बैल को चुन लिया। फिर जब मशीन का युग आया तो बैल भी चले गये और हाथ आ गया। उन्हों ने दोनों हाथों से देश का लूटा पर वह अलग कहानी है।

प्रतीक के रूप में झण्डा बहुत महत्वपूर्ण है। कहते हैं कि लोगों ने लाशें बिछा दी पर स्वतनत्रता की लड़ाई में तिरंगे को नहीं झुकने दिया। पर यह प्रतीक तब भार बन गया जब स्वतन्त्रता मिल गई। अभी पता चला कि भारतीय नौ सैना स्वतन्त्रता के चार साल बाद तक अंग्रेज़ों का दिया झण्डा इस्तेमाल करती रही। उस प्रतीक को सत्ता के नशे में भुला दिया। उन के जनरल ही हमारी थल सैना के अध्यक्ष रहे। सिकूलरिज़्म वालों का कहना है कि हम जाहिल थे। अ्रग्रेज़ आये और उन्हों ने हम को ज्ञान बख्शा। एक अंग्रेज़ ने काह कि एक अंग्रेज़ की पुस्ताकालय में इनता ज्ञान है कि पूरे भारत में नहीं हो गा। यह तो पता नहीं कि उस के पुस्तकालय का आकार क्या था पर जिस अंदाज़ से बात कही गई तो छोटा ही हो गा। और हमारे लोगों ने उन की बातों को सच मान लिया और उन के ज्ञान के गुण गाण में लग गये। उन्हीं के विचारों को अपनाया, उन्हीं के तौर तरीकों को अपनाया और अर्थव्यवस्था को उन की पुस्तकों के अनुसार ढाल लिया। नतीजा यह हुआ कि 1991 में दीवालिया होने की स्थिति आ गई। तब पुराने समाजवाद के पैरोकारों को छोड़ा और विश्वबैंक की आज्ञा के अनुसार काम करने लगे। विश्व बैंक के एक पूर्व अधिकारी को वित्त मन्त्री भी बना लिया।

इस किस्से को यहीं छोड़ें और अपनी पहले वाली बात पर आ जायें। अच्छा तो नहीं लग रहा पर चरखे की बात करना ही हो गी। चरखा एक प्रतीक था - सादगी का, आत्म निर्भरता का, परिवार के प्रति स्नेह का। चरखा घर घर की शोभा था। दहेज़ में गाड़ी घोड़ा, पलंग नहीं दियेे जाते थे, चरखा दिया जाता था। वह चरखा जो अपने मायके की याद दिलाता था और अपने उपयोग से नये घर की मुरादें पूरी करता था। इस प्रतीक को राजनैतिक रंग दे दिया गया। प्रतीक के रूप में वह मशीनों का विरोध था जिस का प्रभाव इंगलैण्ड तक हुआ। परन्तु यह विरोध सीमित ही रहा और इसे भुला दिया गया जब देशी कपड़ा मिलों ने मुम्बई, इंदौर, उज्जैन इत्यादि ने अपना रुतबा जमा लिया। वह चरखा, जो कभी एक सबल हथियार था, कुन्द पड़ गया। चरखा केवल दल के किस्से कहानियों में सिमट गया। खादी का यूँ तो आज़ादी तक प्रचार प्रसार रहा और नेताओं की वह वर्दी रही पर दिल उस में नहीं था। वे तो सत्ता के दीवाने थे और उन्हें लगा कि खादी सत्ता की कुंजी है। और वह सत्ता जब देश का बटवारा कर के मिली तो भी स्वीकार्य थी। जब लाखों लोगों की मृत्यु के बदले मिली तो भी स्वीकार्य थी। जब लाखों लोगों को अपना सब कुछ छोड़ कर भागना पड़ा तब भी स्वीकार्य थी। बिरला भवन में प्रार्थना उस के बदले मिली थी तो बुरी नहीं थी।

वैसे ही राजनैतिक उपवास भी एक प्र्तीक था। अपने को कष्ट देना ताकि अपनी बात मनवाई जा सके। इसे मनोवैज्ञानिक ब्लैकमेल या भावनात्मक ब्लैकमेल भी कह सकते हैं। गाँधी जी ने 16 बार उपवास रखा। इन में से दो दक्षिण अफ्रीका में थे। एक बार इक्कीस दिन का छोड़ कर शेष दो चार रोज़ के ही रहे। वैसे एक दिन का उपवास छह बार रखा औेर एक बार तो आधे दिन का ही। पर भारत छोड़ों के समर्थन में उपवास नहीं रखा। बल्कि अंग्रेज़ों के विरुद्ध कभी भी नहीं। सम्भवतः उस पक्ष में भावना प्रधान नहीं थी। उपवास केवल अपने धर्म के लोगों को समझाने के लिये उपयोगी था। विभाजन के विरुद्ध नहीं। पाकिस्तान मेरी लाश पर बने गा, कहने वाले ने, उस पर उपवास नहीं रखा। शायद कोई मानता ही नहीं इस कारण। खैर यह प्रतीक था, हथियार नहीं। उस का उपयोग स्वतन्त्रता के बाद भी हुआ पर एक पट्टाबी सीतारैया को छोड़ कर कोई मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि वह प्रतीक था, हथियार नहीं। यहाँ यह कहना आवश्यक हो गा कि भारत में लाखों लोग एकादशी को, जन्माष्टमी को, महाशिवरात्री को उपवास रखते हैं पर वह ब्लैक्मेल के लिये नहीं होता। उस में किसी अन्य से कोई अपेक्षा नहीं होती। किसी को सुधारने का विचार नहीं होता। राजनैतिक उपवास की बात अलग है। वह बतला कर, जतला कर किया जाता है, तथा अपने ही लोगों के लिये होता है। हम बात कर रहे हैं प्रतीकों की। वीर सावरकर की रात को उड़ान भी उसी वर्ग में, उसी संदर्भ में, उसी मननोभावना से देखी जा सकती है। भले ही शरीर बन्दी था पर स्वप्नों पर प्रतिबन्ध तो नहीं था। यदि वह मातृभूमि का प्रति रात मन में दर्शन करते थे तो इस में आश्चर्य कया है। यदि बुलबुल इस की प्रतीक थी तो इस में बुरा क्या है। इस पर व्यंग्य करने वाली कौन सी बात है। यह सर्वविदित है कि अन्दमान बंदीगृह में उन्हों ने दो ग्रन्थों की रचना की। उस के लिये उन के पास कलम दवात नहीं थी। वह नेहरू इत्यादि जैसों के वर्ग में नहीं थे जो जेलों में शाही ठाठ से रहते थे। उन्हें सभी श्लोाकों को याद रखना था। जब रत्नागिरी लौटे तो उन्हें लिखा। जेल की दीवारें कल्पना को बन्दी नहीं बना सकतीं। और इसी संदर्भ में वह किसी लेखक के विचारों को भी प्रतिबंधित नहीं कर सकती। परन्तु राजनैतिक व्यंगकारों की अपनी सोच होती है। उन से अपेक्षा करना बेकार है कि वह मन की बात को समझें गे। यह अपेक्षा बेकार है कि वह निहित अर्थ पर मणन करें गे। उस के लिये समय चाहिये और कुछ और भी चाहिये जो उन के पास नहीं है।

Recent Posts

See All
revision of voter list

(note - this was written on 8th july, 2 days before the date of hearing by the judges. of course they did not conform to this idea but...

 
 
 
यह दुनिया वाले क्या जानें

यह दुनिया वाले क्या जानें गिरधारी लाल नारंग मुबारक हो तुम को यह देहर-ओ-हरम। मुबारक हमें यह दार- ओ- हरम।। हम अर्श से बातें करते हैं, यह...

 
 
 

Comentarios


bottom of page