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वर्तमान समय और हमारी सामाजिक दृष्टि

  • kewal sethi
  • Jul 30, 2020
  • 9 min read

वर्तमान समय और हमारी सामाजिक दृष्टि


समाज सदैव समय के साथ परिवर्तित होता रहता है। वह बुरे के लिये हो अथवा अच्छे के लिये परन्तु परिवर्तन स्वाभाविक क्रिया है। इस परिवर्तन को रोकने के किसी प्रयास की असफलता निशिचत है। इस कारण एक मात्र रास्ता स्वयं को परिवर्तन के अनुरूप ढालना हो गा। अपने विचार, अपनी दृष्टि बदलना हो गी। इस के लिये यह आवश्यक है कि हम परिवर्तन तथा उस को प्रभावित करने वाले कारणों के प्रति सचेत हों। इस कारण वर्तमान को जानना आवश्यक है ताकि भविष्य को कुछ सीमा तक ढाला जा सके।

वर्तमान समय में जो प्रमुख विशेषतायें हैं, उन में भूमण्डलीकरण तथा वैश्वीकरण को प्रथम स्थान पर रखा जा सकता है। विश्व सिकुड़ रहा है। किसी देश में होने वाला कोई परिवर्तन पूरे विश्व को प्रभावित करता है। आज के संचार युग में तकनालोजी तथा सूचनायें अति द्रुत गति से फैलती हैं। विज्ञान की इस देन का लाभ भी है तथा हानि भी परन्तु इस से बचा नहीं जा सकता है। आज अमरीका में बैठा डाक्टर संचार सुविधाओं के कारण भारत में हो रहे आपरेशन के बारे में परामर्श दे सकता है। दूसरी ओर केवल इन संदेशों के माध्यम से लाखों लोगों की भीड़ जुटाई जा सकती है जैसा कि हम ने काहिरा के तहरीर क्षेत्र में देखा जिस ने एक क्राँति को जन्म दिया। विज्ञान ने चमत्कारिक रूप से बीमारियों का इलाज भी डूँढा है तथा विनाश के भयंकर साधनों का भी आविष्कार किया है। परिवर्तन के इस माध्यम ने कई पुरानी रस्मों को प्रभावित किया है। वैबसाईट पर ज्ञान का अनुपम खज़ाना उपलब्ध है और हर दिन इस में वृद्धि होती जाती है। यह ज्ञान युवाओं को सरलता से उपलब्ध होता है। इस का परिणाम यह हुआ है कि पिछली पीढ़ी के प्रति आदर का वह भाव नहीं रहा जो पूर्व में था। जब ज्ञान के विस्तार की गति धीमी थी तो उम्र अनुभव की प्रतीक थी तथा यह अनुभव अगली पीढ़ी को दिया जा सकता था। आज का युवा पुरानी पीढ़ी से अधिक ज्ञान रखता है और इस कारण उसे ऐसा प्रतीत होता है कि उसे पुरानी पीढ़ी से कुछ ग्रहण नहीं करना है। इस कारण पुरानी पीढ़ी परिवर्तन को कोर्इ दिशा देने की सिथति में नहीं है। यह तथ्य पुरानी पीढ़ी में उत्काहट उत्पन्न करता है। इस का समाधान समय के साथ चलना ही हो सकता है तथा ज्ञान के नये साधनों में पारंगत होने का प्रयास करना है।

आज की दूसरी सब से बड़ी विशेषता बाज़ारवाद है। यह मनुष्य के स्वभाव में है कि वह अपनी तुलना आस पास के लोगों से करे। प्रगति का यह आधार रहा है। इसी से कार्य तथा परिश्रम करने की प्रेरणा मिलती है। इसी का दूसरा रूप ईष्या है जो दूसरे का सुख समाप्त करने की ओर अग्रसर होता है। हम किस को चुनते हैं, यह हमारे चरित्र पर निर्भर करता है। आज समृृद्ध देशों में रहन सहन का जो स्तर है, हमारे भीतर भी उसे पाने की लालसा जागृृत होती है। इस का एक परिणाम कड़ी मेहनत में होता है तथा दूसरा शीघ्र प्राप्ति के लिये किसी भी साधन, उचित अथवा अनुचित, को अपनाने को बाध्य करता है। इस भौतिकतावाद की दौड़ में सब से अधिक योगदान विज्ञापन का रहा है। अर्थशास्त्र में पूर्व में माँग तथा पूर्ति का एक सम्बन्ध रहता था। जब माँग बढ़ती थी तो उस के अनुसार प्रदाय में भी वृृृद्धि होती थी। आज जब कम्पनियाँ लाभ कमाने की जल्दी में हैं तो यह सिद्धाँत काम नहीं आता है। माँग को कृत्रिम रूप से उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है। इस को बढ़ाने के लिये अनेक प्रकार के तरीके अपनाये जाते हैं। विज्ञापन इन में प्रमुख माध्यम है। विज्ञापन में हर वस्तु को ऐसे दर्शया जाता है जैसे उस के बिना जीवन व्यर्थ हो जाये गा। आपसी तुलना की जो बात हम ने पूर्व में की है उसे उभारा जाता है। र्इष्या को लगभग व्यवसिथत रूप से प्रोत्साहित किया जाता है।

इस के विकृत रूप में देखने को आता है कि व्यक्ति किसी भी प्रकार से दूसरों से समकक्ष आने अथवा उस से आगे रहने का प्रयास करता है। इस की प्रप्ति न होने पर उस में कुण्ठा उत्पन्न होती है। इस के परिणाम स्वरूप ही हिंसा बढ़ रही है। सहिष्णुता कम हो रही है। क्रूरता बढ़ रही है। अभी दिल्ली में दो कार की मामूली सी टक्कर का परिणाम यह हुआ कि एक व्यकित ने दूसरे के सिर पर लोहे की छड़ से प्रहार कर उसे मार दिया। अपना हित साधने की लालसा ने बुद्धि को मन्द कर दिया है। अपराध बढ़ रहे हैं। एक अध्यापक ने केवल इस कारण से 6 वर्ष के बच्चे का सिर दीवार से पटक कर मार दिया कि उस ने गृह कार्य नहीं किया था तथा अपनी फीस नहीं भर पाया था। भौतिकतावाद ने एक और प्रहार कर्तव्य निष्ठा पर किया है। लिंकन का कहना था कि यदि आप अपने को मिलने वाले वेतन की तुलना में उस से अधिक कार्य नहीं करते हैं तो आप उस वेतन के हकदार नहीं हैं। परन्तु आज वेतन ही मुख्य हो गया है तथा कर्तव्य निर्वहण गौण। शासकीय कर्मचारी अधिक वेतन की मांग तो करता है किन्तु अपने कार्य के प्रति उदासीन रहता है तथा उस के लिये अतिरिक्त पूर्ति की अपेक्षा करता है।

इस सब के पीछे भौतिकतावाद एक प्रमुख कारण है। परन्तु दूसरा बड़ा कारण समाज में हो रहा बिखराव है। नगरीयकरण भारत में द्रुत गति से हो रहा है। ग्रामों की संख्या वर्ष 2011 की जनसंख्या के अनुसार छह लाख से अधिक है तथा नगरों की संख्या 7,933, परन्तु 31.2 प्रतिशत लोग नगरों में रहते हैं। नगरों में आवास इत्यादि की कर्इ समस्यायें हैं। मलिन बसितयों की भरमार है। इन में जन घनत्व काफी अधिक है। स्थानाभाव के साथ साथ साधनों का अभाव तथा धन का अभाव वातावरण को दूषित बना देता है। दूसरी ओर सम्पन्न क्षेत्रों में मिश्रित जनसंख्या है जो अपने आप में मस्त रहते हैं। लोग एक दूसरे से कट गये हैं। जो सदभाव पड़ोस के प्रति रहता था, उस का स्थान उपेक्षा ने ले लिया है। पड़ौसी सुख दुख के साथी नहीं रह गये हैं। दूरदर्शन ने फुरसत के क्षणों को कम कर दिया है। धारावाहिक कार्यक्रमों ने कल्पित पात्रों के प्रति सहानुभूति अथवा घृणा को उजागर किया है किन्तु जीवित व्यकितयों के प्रति संवेदनहीनता को जन्म दिया है।

परन्तु यह कहना सही नहीं हो गा कि यह अवांछनीय परिवर्तन केवल नगरों में हो रहे हैं तथा ग्रामीण अञ्चल में स्थिति पूर्ववत है। यह वास्तविकता से बहुत दूर है। ग्रामों में जीवन का चरित्र सामान्य तौर पर रूमानी प्रस्तुत किया गया है। यह सदैव वास्तविकता से दूर था तथा आज स्थिति और भी बिगड़ गई है। अम्बेडकर ने कहा था कि 'हमारे ग्राम अधोगति, भ्रष्टाचार तथा अतिरिक्त बुराईयों का मलकुण्ड है'। आज कोई भी ऐसी व्यवस्था नहीं है जो अधिक बिगड़ी नहीं है। हमारी कृषि एक संकटावस्था से दूसरी की ओर अग्रेषित रही है। एक समय था जब कहावत थी कि 'उत्तम खेती, मध्यम बाण, निषिद्ध चाकरी, भीख निदान'। अब यह बदल कर 'उत्तम चाकरी, मध्यम बाण, निकृृष्ट खेती, भीख महान' हो गई है। वोटों की भीख माँगने वाला आज सब से सुखी है। सब से नीचे कृृषि है। मालगुज़ारी समाप्त होने के पश्चात भूमि कृषकों के पास आ गई है किन्तु इस का इतना बटवारा हो गया है कि आज कुूछ ही व्यक्ति हैं जिन के पास लाभदायक कृषि करने योग्य भूमि है। लगभग 85 प्रतिशत भूमि खाते पाँच एकड़ से कम हैं तथा 63 प्रतिशत तो 3 एकड़ से भी कम हैं। इन पर लाभदायक कृषि होना कठिन है। भूमि का एक बड़ा भाग अनुपस्थित काश्तकारों के पास है जो नगरों में रहतें हैं तथा कृृषि भूमि को केवल काले धन को स्फैद करने का साधन मानते हैं क्योंकि कृषि की आय करमुक्त है। इस परिस्थिति का परिणाम यह है कि मज़दूरों को कृृषि का कार्य मिलने में कठिनाई होती है जिस कारण वह नगरों का रुख करते हैं। यह व्यकित उन जातियों से हैं जिन्हें छोटा माना जाता था किन्तु नगरों में उन के साथ वैसा व्यवहार नहीं हो पाता क्योंकि यहाँ वे अजनबियों की भाँति रहते हैं। एक ही स्थान में रहते हुए भी उन का कार्य क्षेत्र अलग अलग रहता है जिस कारण उन में अलगावपन रहता है। साथ ही वह हृदय से ग्रामवासी ही रहते हैं तथा सदियों के अनुभव के कारण उन में परिश्रम से आगे बढ़ने की भावना का अभाव है।

इस परिवर्तित व्यवस्था का एक परिणाम यह भी है कि संयुक्त परिवार की परम्परा समाप्त हो रही है। संयुक्त परिवार प्रणाली व्यापार तथा कृषि पर आधारित थी जिस में अकेले काम करना अधिक जोखिम वाला था। नौकरी में अथवा नगर में मज़दूरी में एक दूसरे पर निर्भरता नहीं के बराबर रह जाती है जिस में संयुक्त परिवार की आपसी मिल बैठ कर कार्य करने की आवश्यकता नहीं है। एकल परिवारों की बढ़ती संख्या समाज को नया रूप दे रही है। इस का एक परिणाम यह भी हुआ है कि एक पीढ़ी द्वारा दूसरी पीढ़ी को जो अच्छी परम्परायें स्वयंमेव ही प्राप्त हो जाती थीं, उन का स्रोत्र सूख गया है। इस का स्थान शालाओं ने ले लिया है। परन्तु शालाओं में अध्यापकों की भावना भी परिवर्तित हो गई है तथा वह केवल थोथे ज्ञान को प्रदाय करने तक सीमित हो गये हैंं। वह अच्छे नागरिक नहीं बनाते वरन केवल अपने वेतन को सुनिश्चित करते हैं। चरित्र निर्माण न पाठयक्रम में है न ही अध्यपाकों के मन में। विद्यालयों में अनुशासन की कमी है क्योंकि अभिभावकगण ही इस की अनुमति नहीं देते तथा अध्यापक बिना कारण कलेश नहीं डालना चाहते। इसी का परिणाम आगे चल कर उद्दण्डता होता है।

कुल मिला कर आज की परिस्थिति में नगरों में अलगावपन का वातावरण है। किन्तु मनुष्य प्रकृतिवश अलग थलग रह नहीं सकता। इस कारण परम्परागत समाजों का स्थान नये संगठनों द्वारा लिया जा रहा है। यह नये समूह कई विभिन्न आधारों पर गठित किये जा रहे हैं। कार्यालय अथवा कारखाने में कार्य करने वाले एक समूह में बंध जाते हैं। उन के निवास आस पास नहीं हैं किन्तु आज के संचार युग में यह बाधा नहीं हैं। एक पेशे वाले अलग समूह बना लेते हैं। समान हित वाले अन्य वर्ग भी समूह में बंध जाते हैं। व्यकित एक से अधिक समूह का भी सदस्य हो सकता है क्योंकि उस की कई प्रकार की आवश्यकतायें होती हैं। इन समूहों में वरिष्ठ नागरिक संगठन भी शामिल किये जा सकते हैं जिन का आपसी संवाद ही समूह का कारण बन जाता है। कई अशासकीय संस्थायें केवल भाईचारा की भावना के साथ ही गठित होते हैं जो गठित होने के पश्चात अपना लक्ष्य तय करते हैं। कई बार यह स्वयं निर्धारित कर्तव्य समाज सेवा पर आधारित होते हैं किन्तु कई बार यह केवल अन्य प्रयोजन सिद्ध करने के लिये दिखावट का काम ही करती है।

कुछ विचार भविष्य के लिये भी। सोचना यह है कि इन समूहों को कैसे बहृत समाज के लिये हितकारी बनाया जा सकता है। जैसा कि कहा गया है कि कर्इ समूह गठित होने के पश्चात अपना आस्तित्व को किसी प्रयोजन विशेष के लिये परिवर्तित कर लेते हैं। इस प्रवृति को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये। सरकार द्वारा भी कर्इ योजनाओं के तहत समूह गठित किये जाते हैं जैसे शालाओं में अध्यापक अभिभावक समूह। इन को केवल अध्यापकों द्वारा अपने आश्रितों की प्रगति का ब्यौरा लेने के लिये न रखा जाये वरन् शाला को उन्नत बनाने के लिये भी इन का प्रयोग किया जा सकता है। वास्तव में अनिवार्य शिक्षा अधिनियम के अन्तर्गत शाला प्रबन्धन समिति के गठन का प्रावधान है। इस को आधार बनाया जा सकता है। नगरों में इन का उपयोग छात्रों से सम्पर्क करने के लिये भी किया जा सकता है ताकि उन्हें उन बुराईयों से बचाया जा सके जिन में वह भ्रमवश फंस जाते हैं। नगरपालिकाओं तथा पंचायतों को अधिकार सम्पन्न बनाने के लिये जो संशोधन लाये गये थे उन में मौहल्ला समितियों के गठन का प्रस्ताव भी है। यह भी समाज को एक नई दिशा देने के काम में आ सकते हैं। इन में अधिकारी वर्ग भी रहता है जिस पर नियन्त्रण करने के लिये इन का उपयोग किया जा सकता है।

प्रश्न यह है कि हम ने भौतिकतावाद को अधिकतर बुराईयों की जड़ माना है। क्या इस का कोई निदान है? जैसा कि पूर्व में कहा गया है व्यापारिक संगठनों का यह प्रयास रहता है कि नई वस्तुओं के प्रति लोगों को आकर्षित किया जाये। इस से ही उन के व्यापार में वृद्धि सम्भव है। इसी कारण कारों अथवा मोबाईल अथवा अन्य वस्तुओं में नये नये माडल लाये जाते हैं। रोज़मर्रा की वस्तुओं जैसे नहाने अथवा कपड़े धोने के साबुन में भी कई माडल आते है। टुथपेस्ट में कभी नमक आ जाता है कभी लौंग और कभी नीम जबकि वस्तु वही रहती है तथा उन में कोई अन्तर केवल कल्पना में रहता है।

अमरीका में एक अभियान चला था 'वही खरीदो जो आवश्यक हों' जिस का उद्देश्य था कि केवल वही वस्तु क्रय की जाये जिस की वास्तव में आवश्यकता है न कि वह जो आप चाहते हैं। इस प्रकार के अभियान की अत्यन्त आवश्यकता है। बच्चों में आरम्भ से ही इस की भावना भरी जाना चाहिये पर यह तभी हो सकता है जब व्यस्क स्वयं इस का पालन करें। कहने में यह आसान है किन्तु व्यवहार में कठिन क्योंकि एक ओर पूरे व्यापारिक जगत की शकित तथा स्रोत्र रहें गे और दूसरी ओर केवल विचार। परन्तु हमारे अध्यातिमक वातावरण में यह सम्भव है यदि हमारे संतजन इस भावना का प्रचार करें। यह समूह यदि बन सके तो स्थिति को परिवर्तित किया जा सकता है। यदि अनावश्यक वस्तुओं को खरीदने से इंकार किया जाये गा तो इस का विपरीत प्रभाव विज्ञापन व्यापार पर पड़ें गा। नये नये माडल बनने बन्द हो जायें गे। इस से दूरदर्शन जो केवल विज्ञापन के बल पर जीता है, का आकर्षण कम हो जाये गा। लोगों को फिर सामाजिक जीवन जीने का आनन्द प्राप्त हो गा। आशा है कि इस कपोल कपोल्पित अभियान के लिये मुझे क्षमा किया जाये गा।


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