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kewal sethi

लंगड़ी सरकार

लंगड़ी सरकार


जानबूझकर हम ने किसी एक दल की सरकार नहीं बनने दी क्योंकि समाज का मत है कि केंद्र में मजबूत नहीं, मजबूर सरकार होनी चाहिये। एक दल की सरकार टिकाऊ होती है। अपने बारे में ही सेचती है। ल राजनीति में राष्ट्रहित को महत्त्व नहीं देना चाहिए। व्यक्ति भी कुछ होता है तो उसका भी ख्याल होना चाहिए।

इस चुनाव में हमने अपने व्यक्तिगत चरित्र को ज्यादा महत्त्व दिया है। जिसप्रकार हमारे उम्मीदवारों ने अपने चरित्र की तिलांजलि देकर चुनाव मैदान में उतरने का प्रयास किया है, उसी प्रकार हमने भी अपनी नैतिकता बेचकर उसे अपना मत दिया है। ये सब हमने अपने राजनेताओं से ही सीखा है। आप टापते रह जाओगे स्थिर कुर्सी नहीं दें गे तुम्हे। बड़ी मेहनत से हमने ये लंगड़ी कुर्सी बनाई है इस देश में।

इस कुर्सी का सिद्धांत ये है की इस में हर लोकतांत्रिक कार्य को अलोकतांत्रिक तरीके से काम कराया जाता है। तुम्हारे भरोसे में रहे तो ना हमारी भैस अपने दूध में पानी मिलाने देगी ना ही अपना चारा हमें खाने देगी। कार्यालय में कुछ इधर उधर ना करे तो कुछ होगा नहीं। तुम्हारा आदर्श, तुम्हारी नैतिकता किस काम आती है इस देश के?

ये जनता ने जिंस तंत्र को अपनाया है, उसे लोकतंत्र नहीं, लोकनायक तंत्र रहना चाहिए। स्थिर सरकार को अस्थिर करने का सिद्धॉंत एक लोकनायक ने हीं दिया था। याद होगा आपको? उन्होंने शिक्षकों और छात्रों के बीच ऐसा आदर्श स्थापित किया कि शिक्षक पढ़ाते रहते हैं और छात्र है कि राजनीति से अलग ही नहीं होती। अगर पढ़ने लिखने के बाद भी राजनीति में जाएंगे तब तक देश बरबार्द हो चुका होगा। हाँ, तो आज तक कोई अच्छा व्यक्ति गया है राजनीति में।

मैं कहना यह चाहता था, कि केंद्र की स्थिर सरकार को लोकनायक ने जिस चक्र से ताड़ा था उसे बनाने में बहुत समय लग रहा था। पर फिर वो चक्र ऐसा टूटा कि उसके टुकड़े 1000 हुए कुछ यहाँ गिरे, कुछ वहाँ गिरे। जब उस चक्र के भग्नावशेष के लिये अलग से चुनाव होना चाहिए। इन पोथियों के देश में सब कुछ दस्तावेज में संजो कर रखने का पारंपरिक विाान है उसे व्यवहार में लाने से लोक मर्यादा भंग होती है।

मेरे प्रिय पाठकों, यह मत समझ लेना कि आज मैं सोच विचार समझकर या थोड़ा दिमाग लगाकर कुछ अच्छी बातें लिख रहा हूॅ।। याद ही होगा आपको, लेखन कार्य में मैंने भी अपने चरित्र को यथासंभव नीचे गिराया है, क्योंकि अपनी राष्ट्रीय संस्कृति का ज्ञान मुझे भी है। अच्छा लिख कर बेवकूफ नहीं बनना है मुझे।

तो मैं कह रहा था कि हमारे चुनाव में राष्ट्रीय नीति का ख्याल रखा गया। नीति शास्त्र में हमारा विश्वास है। इस कृशी प्रधान देश की 80 प्रतिशत जनता लोग खेतों में रहती है तभी तो चुनाव कराने में असली राजनीति है। इसे चुनाव में 56 प्रतिशत मूर्खों ने लोकतंत्र के लिए कुर्सी तैयार की थी।

पता नहीं किसने कह दिया कि प्रजातंत्र मूर्खों का शासन है। उसे कहना चाहिए था की ये पढ़े लिखे विद्वान मूर्खों का शासन है। पिछले दिन जिन से मेरी बात हो रही थी, उसे लोग सज्जन भी कहते हैं। वह बड़े गर्व से कह रहे थे कि उन्होंने अपने 45 साल के नागरिक जीवन में कभी मतदान नहीं किया, जबकि प्रत्येक चुनाव सभा में जाते है तो पीठासीन अधिकारी के रूप में किसी न किसी पीठ पर आसीन रहते हैं। उन की बात पर आप विचार करें। यदि हर समझदार व्यक्ति मतदान करने लगे तो लोकतंत्र कैसे चलेगा भला? कोई उसकी टांग तोड़ने वाला भी चाहिए न। लंगड़ाते हुए नहीं चला तो फिर लोकतन्त्र क्या? अतः आम जनता को चाहिए कि चुनाव के पहले वो स्वयं को बाजार में बेच दें और अपने मालिक का आदेशानुसार ठप्पा लगाकर लोकतंत्र की परंपरा को जीवित रखें।

बाज़ार लगा हुआ है तो लगा लो अपनी कीमत वरना भाग में पछताओं गे। चोर, उचक्के पाकेट मार ठग, बेईमान सब है इस बाज़ार में। सावधान भी रहना। अपने सगे संबंधियों के साथ अपनी कीमत बोलो इस बाजार में, देखो तो है कोई माई का लाल दो तुम्हें खरीद सके। मैं तो बिक रहा हूँ, इस बाजार में, है कोई मुझे खरीदने वाला।

(शंकर मुनी राय गड़बड़ द्वारा लिखा गया लेख पर थोड़े संशाधन के साथ। भाव वही है - पुस्तक खबर है कि .... पृष्ठ 49-51

वैसे यह 2024 के चुनाव पर भ्ी अक्षरक्षः लागू होता है। )

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