1982 में आकाशवाणी ग्वालियर ने एक पॉंच मिनट का कार्यक्रम प्रात: आरम्भ किया था। नाम था —— चिंतन। इस मे उन्हों ने नगर के गणमान्य व्यक्तियों से अपने विचार व्यक्त करने को कहा था। आयुक्त होने के नाते मेरी गणना भी इन में हो जाती थी। उस समय मैं ने दो तीन बार इस में भाग लिया। मेरे पूछने पर उन्हों ने कहा कि यदि मैं इस का संदर्भ दूॅं तो मैं इसे प्रकाशित भी कर सकता हूॅं। इस कारण उन्हें धन्यवाद के साथ इसे पेश कर रहा हूॅंं (28 वर्ष के बाद)। यह विचार बहुत गम्भीर तो नहीं हैं पर जैसे हैं , वैसे पेश हैं — (इस की पहली किस्त 13 अप्रैल को पोस्ट की गइै थी और दूसरी 22 अप्रैल को) चिंतन राष्ट्रीय हानि अक्सर हम ने रास्ते चलते यह देखा हो गा कि नल बह रहा है. क्या हम इसे वैसे ही छोड़ देते हैं या फिर इसे बन्द करते हैं. इस बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता. कुछ लोग तो इस के बारे में सोचते हैं और कुछ को दिखाई देते हुए भी दिखाई नहीं देता. एक आदत सी हो जाती है. पानी तो वैसे ही बहता है. यह पानी की आदत है. हम पास से गुजर जाते हैं, यह हमारी आदत है. हम ने कभी इस बार पर शायद ध्यान भी नहीं किया है के पानी बह रहा है या नहीं. मैं उन की बात नहीं कर रहा जो कि जानबूझ कर पीतल बेचने के लालच में नलों को खोल कर ही ले जाते हैं. वह तो चोरी है. चोर को पकड़ा भी जा सकता है. पकड़े जाने पर सजा भी मिल सकती है. मैं तो केवल लापरवाही से खुला छोड़े जाने वाले नल की बात कर रहा हूं,. हम ने पानी भरा, बालटी या मटका उठा कर चल दिए. नल जिस स्थिति में था, वैसे ही रह गया. आम तौर पर तो इतनी भीड़ रहती है कि एक ने छोड़ा तो दूसरे ने अपना बर्तन रख दिया. पानी बहने का सवाल ही नहीं उठता. इतना पानी है ही कहां कि उस के बहने का सवाल पैदा हो. पर फिर भी ऐसा हो जाता है. बरसात और सर्दी है ही पर कभी-कभी गर्मी में भी. क्या हम ने कभी सोचा कि यह बात किस चीज की द्योतक है. पानी कम है. उस की हानि तो होती ही है पर असल में यह बात उस से भी बड़ी है. वास्तव में हम ने उस दूसरे आदमी की कठिनाई की तरफ ध्यान ही नहीं दिया. हम ने उस दूसरे आदमी के बारे में सोचा ही नहीं. पानी की आवश्यकता जैसे हमें थी और हम ने अपने लिए भर लिया, अपनी बाल्टी भर ली, वैसे ही दूसरे आदमी को भी है. वह भी आए गा और पानी भरना चाहे गा. पर शायद पानी बह कर खत्म हो गया हो गा. अब वह नदी वाला जमाना तो है नहीं कि नदी बहती रहती है और पानी भरने वाले पानी भर कर चल देते हैं. अब तो सीमित मात्रा में पानी है. उसे इकट्ठा करना पड़ता है, उसे साफ करना पड़ता है, उसे सम्भाल कर रखना पड़ता है. तब जा कर कहीं दो-तीन घंटे दिन में पानी दिया जा सकता है. वह पानी भी बह गया तो क्या हो गा. यहां पर यह बात सही है कि दूसरा आदमी हमारे सामने नहीं है. पर वह है अवश्य, इतना हमें मालूम है. उस अनदेखे आदमी का हमें उतना ही ख्याल रखना चाहिए जितना कि सामने वाले आदमी का. हो सकता है कि हम ही वह दूसरे आदमी हों। हमें ही कुछ देर बाद फिर पानी लेने के लिये आना पड़े. यह कहा गया है कि सब आदमियों में एक ही आत्मा है. मेरे में व अन्य आदमी में कोई फरक नहीं है. क्यों ना मैं दूसरे को अपने समान ही मानूॅं. जब कभी हमें पानी नहीं मिल पाता तो हम दुखी होते हैं. जाने अनजाने कहते हैं कि देखो आदमी आदमी का ख्याल नहीं करता. नल बंद कर जाता तो हम भी पानी भर लेते. फिर हम स्वयं ऐसा क्यों नहीं करते. नल पानी तो एक प्रतीक है. हर पहलू में, हर कदम पर दूसरे की सुविधा का ध्यान रखना हमारा कर्तव्य है. हम किसी पार्क में बैठे हैं. अपनी मूंगफली साथ आए हैं. वह चाट वाला वाला आ गया है. क्या हम खा पी कर छिलके, पत्ता वही फैंक देते हैं. पर क्या हम सोचते हैं कि वह अनदेखा दूसरा आदमी आए गा और वह भी उम्मीद करे गा कि वह साफ सुथरी जगह पर बैठे. जैसे हम आए थे। घूम फिर कर साफ सुथरी जगह की तलाश की थी. हमें यह नहीं करना चाहिए हम भी उस जगह को वैसे ही, बल्कि पहले से अधिक साफ सुथरी रखें. हम स्टेषन पर हैं. गाड़ी रुकते ही उस में चढ़ने की जल्दी है. कुली की हौसला अफजाई कर रहे हैं. बच्चे को आगे कर रहे हैं। उतरने वालों से भिड़ रहे हैं. उन का रास्ता रोक कर खड़े हैं. क्या हमें मालूम नहीं कि यहां हम चढ़ने वाले हैं तो अगले स्टेशन पर हम उतरने वाले भी हैं. वहां पर हमें भी यही कष्ट होने वाला है. जरूरत है इस बात की कि हम दूसरे आदमी की मुश्किल समझें और उस का हल खोजने की कोशिश करें. ताकि हमें भी सुविधा हो और दूसरे आदमी को भी. इस दूसरे आदमी की परिभाषा में सभी व्यक्ति आते हैं, अपनी गली के, अपने मोहल्ले के, अपने शहर के, अपने देश के। जो हम करते हैं, उस का निष्चित प्रभाव अन्य पर पड़ता है। हम जिस पंखे को चलता हुआ, जिस बल्ब को जलता हुआ, छोड़ आये हैं, उन से बिजली खर्च हो रही है. उस बिजली के अभाव में कहीं कोई पंप चलने से मजबूर है, कहीं कोई कारखाना बन्द है. क्या? एक बल्ब के जलने से, एक पंखे के चलने से, एक नल से पानी बहने से क्या अन्तर पड़ने वाला है। पर यह एक बल्बए एक पंखे , एक नल की बात नहीं है। कहा गया है कि बूॅंद बूॅंद से नदियां बनती हैं. इसी प्रकार छोटे छोटे पत्थरों से पहाड़ बन सकता है। एक एक धागे से ही पुरी चादर बन जाती है. . .फिर शंका कि दूसरे नहीं करते तो हम ही क्यों करें। क्या हम ने ठेका ले रखा है. पर दूसरा कौन. क्या मैं ही वह दूसरा तो नहीं. जिसे हम दूसरा व्यक्ति मानते हैं क्या वह हमें दूसरा व्यक्ति नहीं मानता. क्यों न हम वह दूसरा व्यक्ति बन कर यह कार्य शुरू कर दे. अगर हम में से हर एक इस प्रकार की कार्रवाई करे गा हम इस धरती की काया पलट सकते हैं. हम भविष्य बना सकते हैं. हम नया जीवन ला सकते हैं
kewal sethi
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