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राष्ट्रवाद और वैश्वीकरण

राष्ट्रवाद और वैश्वीकरण


भारत एक विशाल देश है। इस की संस्कृति प्राचीन है। इलामा इकबाल ने सच ही कहा था

यूनानो मिस्रो रोमा सब मिट गये जहाॅं से

अब तक मगर है बाकी नामो निशाॅं हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी

सदियों रहा है दुश्मन दौरे ज़माॅं हमारा


इस लिये इस मे कोई आश्चर्य नहीं है कि हमारे नेतागण हमें इस बारे में याद कराते रहें कि हम महान थे तथा इस कारण विश्व को हमारी महानता स्वीकार करना चाहिये। लोकमान्य तिलक ने 1919 में शाॅंति सम्मेलन के अध्यक्ष को पत्र लिखा था कि ‘‘भारत के विशाल क्षेत्र, उस के सम्पन्न स्रोत, उस की विलक्षण जनसंख्या को देखते हुए उसे विश्व की नहीं तो एशिया की महान शक्ति के रूप में पहचाना जाना चाहिये। वह पूर्व में लीग आफ नेशन्स के लिये एक शक्तिशाली प्रतिनिधि हो सकता है’’।


इसी प्रकार नेहरू ने 1939 में कहा था कि ‘‘स्वतन्त्र भारत अपने विशाल स्रोतों के कारण विश्व के लिये तथा मानवता के लिये महान सेवा कर सकता है। भारत विश्व में एक नवीन योगदान दे सकता है। प्रकृति ने हमें बड़ी बातों के लिये चिन्हित किया है। जब हम गिरते हैं तो हम काफी नीचे होते हैं किन्तु जब हम जागृत होते हैं तो विश्व में बड़ी भूमिका निभाते हैं’’।

स्वतन्त्रता के पश्चात 1947 में संविधान सभा को सम्बोधित करते हुये श्री नेहरू ने कहा कि ‘‘भारत एक महान देश है, उस के स्रोत महान हैं, उस की मानव शक्ति महान है, अपनी सम्भावनाओं में हर ओर से वह महान है। मुझे कोई संदेह नहीं है कि भारत विश्व में हर ओर महति भूमिका निभाये गा तथा इस में भौतिक शक्ति भी सम्मिलित है’’।


ऐसे ही उदगार संविधान सभा में कई बार सुनने को मिलते रहे। भारत की विश्व में अग्रणीय भूमिका एक जनून की तरह थी। नेहरू ने इसी के अनुरूप कार्य किया। स्वीकारनों, नासेर तथा टीटो के साथ मिल कर अन्तर्राष्ट्रीय संगठन ‘नाम’ बनाया। चीन के साथ पंचशील के नाम से सम्पर्क किया। हर तरह से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि भारत गया गुज़रा देश नहीं है। वह एक कुशल खिलाड़ी है। उन का मत था कि भारत जैसे विशाल देश के लिये किसी देश के साथ गुट बनाने की आवश्यकता नहीं है तथा किसी भी शक्ति द्वारा भारत को प्रभावित करने के प्रयास का अन्य गुट विरोध करे गा। इस को देखते हुए भारत की सैनिक शक्ति की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी सैद्धाॅंतिक शक्ति की।


पर भारत ने इस बात को अनदेखा किया गया कि सैद्धाॅंतिक शक्ति के पीछे भी विश्व में अपनी आर्थिक शक्ति का दृढ़ होना आवश्यक है। केवल आदर्श ही काफी नहीं हैं। उसे यह यकीन था कि उस की मानव शक्ति विश्व को उसे चीन के समकक्ष मानने के लिये मजबूर करे गी। दूसरी ओर चीन का समाजवादी चेहरा उसे आश्वासन देता था कि वह मानव प्रगति का पक्ष ले गा तथा वे भाई भाई ही रहें गे।


1962 के आक्रमण ने इस पूरी आस्था को झझकोर कर रख दिया। सैनिक शक्ति को अन्देखा करना उसे भारी पड़ा। चीन ने एक पक्षीय युद्ध विराम कर दिया पर यह सिद्ध कर दिया कि वह भारत का सम्मान उस के आदर्शवाद के कारण नहीं करे गा। यह भी सिद्ध हो गया कि भारत के महान होने के दावे के पीछे उसे आर्थिक दृष्टि से भी शक्तिशाली होने की आवश्यकता है। 1964 में चीन ने अपना प्रथम आणविक बम्ब का परीक्षण किया तथा भारत के लिये यह आवश्यक हो गया कि इस का तोड़ निकाला जाये। 1965 में श्री लाल बहादुर शास्त्री ने भूमिगत आणविक विस्फोट परियोजना को स्वीकृति दी किन्तु इस का प्रथम परीक्षण 1974 में ही हो सका। उधर विश्व में भागीदारी बढ़ाने का प्रयास किया गया। ग्रुप आफ 77 की संस्था 1964 में स्थापित हुुई जिस के द्वारा भारत ने विश्व सम्पर्क बढ़ाने की ओर रुचि दिखाई। 1968 में संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास आयोग की बैठक का आयोजन दिल्ली में किया गया। इस से विश्व आर्थिक जगत में आने का भारतीय इरादा ज़ाहिर किया गया। 1985 में सार्क संस्था की स्थापना की गई जिस में दक्षिण एशिया के देशों में आपसी मेल जोल को बढ़ाने का प्रयास किया गया। 1991 में भारत ने लुक ईस्ट - पूर्व की ओर देखो -े नीति का आरम्भ किया जिस का उद्देश्य पूर्वी एशिया के देशों से सम्पर्क बढ़ाना था। इसी क्रम में 2009 में ब्रिक्स नाम की संस्था का गठन भी इसी अन्तर्राष्ट्रीय उपस्थिति दर्ज करने की कड़ी माना जा सकता है। इस की बैठकें भारत में 2012 में तथा फिर 2016 में आयोजित की गई हैं। उधर भारत में सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता पाने के लिये भी अभियान छेड़ा हुआ है। जापान, ब्राज़ील तथा जर्मनी के साथ मिल कर सुरक्षा परिषद में सुधार का अभियान चल रहा है।


यह सभी प्रयास भारत को विश्व में उस का उचित स्थान दिलाने के लिये किये जा रहे थे। आर्थिक प्रगति के लिये भी प्रयास आरम्भ किये गये। परन्तु पुरानी आदत कठिनाई से ही छूटती है। पूर्व में प्रगति का दारेामदार शासकीय प्रयासों पर केन्द्रित था। पंचवर्षीय योजनायें इस के मूल मन्त्र थे। समाजवाद की धारा में बह रहे देश के लिये 1969 में बैंकों के राष्ट्रीकरण को आर्थिक बल प्रदान करने के समतुल्य मान लिया गया। पर इस से अधिक लाभ नहीं हुआ और स्थिति बिगड़ती गई। अन्ततः 1991 में समाजवाद को तिलांजलि दे कर उदारवाद की नीति को तथा स्वदेशी छोड़ कर वैश्वीकरण की नीति को अपनाना पड़ा। इस बीच चीन हम को कहीं पीछे छोड़ कर आर्थिक महाशक्ति बन चुका था। उदारीकरण की इस नीति के कियान्वयन के लिये चीन की भाॅंति भारत में भी निर्यात क्षेत्रों की स्थापना की गई जिस में करों एवं प्रतिबन्धों से आंशिक छूट दी गई। इन का आश्य विदेशी निवेश को प्रोत्साहन देना था। विदेशी मुदा निवेश को प्रोत्साहित करने के लिये और भी कदम उठाये गये। 1996 में सरकार द्वारा यह स्पष्ट घोषणाा की गई कि ‘‘स्वदेशी का अर्थ अलगाव नहीं है वरन् अपने पर भरोसा है’’। पर यह सब अनमने ढंग से हुआ।


वर्तमान में तीन दिशाओं में प्रयास किये जा रहे हैं। जहाॅं पूर्व में संस्कृति तथा देश के विशाल होने पर ज़ोर दिया जा रहा था, अब अन्य देशों के साथ सम्पर्क, विदेशी निवेश तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं में अधिक ध्यान देने पर कार्रवाई की जा रही है। सैन्य शक्ति बढ़ाने पर भी आवश्यक ध्यान दिया जा रहा है। दुर्भाग्यवश इस में कई अड़चनें आ रही हैं। एक लम्बी अवधि तक अनुदान तथा रियायती दरों पर उपलब्ध खाद्यान्न इत्यादि पर निर्भर रहने वाली जनता को यह समझाना कठिन हैं कि यह आर्थिक प्रगति में सहायक नहीं वरन् बाधा हैं। यद्यपि उदारीकरण की नीति को 1991 के बाद अपनाया गया है किन्तु इस में प्रगति की गति काफी कम रही है। यह तो कहा गया कि स्वदेशी का अर्थ बाहरी जगत से मुख मोड़ना नहीं है, पर इस के साथ ही श्रमिक कानूनों में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। सैन्य शकित बढ़ाने के लिये सोचा गया किन्तु बोफोर्स काण्ड के पश्चात इस में वह तत्परता नहीं दिखाई गई जो ऐसे अभियान में आवश्यक है। विशेषकर वर्ष 2004 से 2014 तक इस मे पूर्णतया उपेक्षा की गई। इस में भ्रष्टाचार की विशेष भूमिका रही है जो प्रगति के आड़े आ रही थी। समानान्तर आर्थिक व्यवस्था की पैठ काफी गहरी हो चुकी थी तथा इस के चलते आर्थिक शक्ति बनने में बाधा आ रही थी।


इन सब कारणों से भूतकाल से नाता तोड़ने के लिये एक नई पहल की आवश्यकता थी। सौभाग्य से यह पहल 2014 में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलने के कारण सम्भव हो सकी। भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण को प्राथमिकता देते हुए सर्व प्रथम एक अभियान के तौर पर जन धन योजना के अन्तर्गत खाते खुलवाये गये। इस से राशि सीधे बैंक खाते में जाने से बिचैलियों पर कुछ नियन्त्रण हो सका है। इन को आधार कार्ड से जोड़ने से काफी राशि जों अवैघ रूप से काले धन में वृद्धि का कारण बन रही थीं, पर रोक लगाने में कुछ सफलता प्राप्त हूई है। विमुद्रीकरण द्वारा काले धन को बाहर लाने की कवायद की गई। उधर मेक इन इण्डिया तथा कौशल विकास के कार्यक्रमों के माध्यम से आर्थिक सुधार की बात की गई तथा स्वदेशी अथवा आत्म निर्भरता को एक बार फिर से केन्द्रीय स्थान देने का प्रयास किया जा रहा है। सैन्य शक्ति बढ़ाने की दिशा में भी प्रयास किये जा रहे हैं। इस के साथ ही विश्व में अपनी उपस्थिति जताना आवश्यक था। इस कारण सभी देशों से सम्पर्क बढ़ाया गया।


महान बनने के इरादे को कभी छोड़ा नहीं गया परन्तु इतने बड़े लक्ष्य को पाने के लिये कुछ समय लगना अनिवार्य है एवं सतत प्रयास भी आवश्यक हैं। इस कारण ही श्री मोदी को तथा भाजपा को पूर्ण बहुमत के साथ फिर लाना आवश्यक है। चाहे जो भी कारण हों, हम अपना मुकाबला चीन से ही करते हैं। पाकिस्तान के साथ हमारी स्पद्र्धा केवल सैन्य बल की ही है। आर्थिक क्षेत्र में वह हमारे समकक्ष नहीं है। राजनयिक स्पर्द्धा में भी भारत कहीं आगे है। पर चीन की बात अलग है। सैनिक, आर्थिक, राजनयिक, तीनों क्षेत्रों में हमारी तुलना की जा सकती है। इस प्रतिस्पर्द्धा में एक ही हथियार सब से अधिक कारगर है तथा वह है राष्ट्रवाद। नेहरू काल का अन्तर्राष्ट्रवाद इस प्रतिस्पर्द्धा में सहायक नहीं हो गा। देश को ही सर्वापरि मान कर चलना हो गा - हर स्तर पर, हर व्यक्ति द्वारा। चीन की सफलता का राज़ भी उस के नागरिकों की राष्ट्रवाद की भावना ही है। स्मर्पण की भावना प्रदान हो तो कोई भी लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। संकीर्ण तथा अल्पावधि के विचार इस में सहायक नहीं हों गे। दुर्भाग्यवश नेहरू के उत्तराधिकारी न तो अन्तर्राष्ट्रवाद कायम रख पाये न ही वे राष्ट्रवाद को पोषित कर पाये। इस के लिये राष्ट्रवाद पर आधारित दीर्घ अवधि की कूटनीति अपनाना हो गी। तथा आज इस के लिये श्री मोदी के अतिरिक्त कोई उपयुक्त पात्र दिखाई नहीं पड़ता।


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