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राम सीता संवाद

  • kewal sethi
  • Jul 17, 2021
  • 3 min read

राम सीता संवाद


बाल्मीक आश्रम में अश्वमेध यज्ञ के पश्चात छोड़ा गया लव कुश द्वारा घोड़ा पकड़ने और अयोध्या के सभी वीरों को हारने के पश्चात राम स्वयं युद्ध की इच्छा से वहाॅं पहुॅंचे।


लव कुश ने घोड़े को एक वृक्ष से बाॅंध दिया था और सैना का मुकाबला करने को तैयार खड़े थे। सीता भी उस समय वहीं थी।

राम ने सीता को देखा तो अचम्भे में पड़ गये। सीता ने उन्हें प्रणाम किया तो लव कुश अचम्भे में पड़ गये। सीता ने उन्हें बताया कि यही राम तुम्हारे पिता हैं। फिर उस ने राम को सम्बोधित किया।


सीता - आप आ गये, यह बड़ी प्रसन्नता की बात है। मैं प्रतीक्षा कर रही थी कि आप की धरोहर आप को सौंप दूॅं।

राम - मेेरी धरोहर

सीता - हाॅं यह है लव और यह कुश। दोनों आप की ही धरोहर हैं। मेरा कर्तव्य तो केवल इन को पालने का और आप को सौंपने के लिये सुरक्षित रखना था।

राम - मेरा अहोभाग्य। मुझे इतने वीर पुत्र मिले। वाकई आप शक्ति रूप हैं तो आप के पुत्र भी तो वैसे ही शूरवीर हों गे। मैं इन का पा कर धन्य हो गया। इन के आने से अयोध्या जगमगा उठे गी। आइ्रये आप सब मेरे रथ में बैठें। तब तक मैं ऋषिप्रवर के दर्शन कर कृतार्थ हो लूॅं। उन की कृपा से ही मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है।


जब तक राम लौटे, लव ओर कुश रथ में बैठ गये थे। सीता उन्हें विदा करने के लिये वहीं खड़ी थी।


राम - सीते, आप विराजमान नहीं हुईं।

सीता - नहीं, मेरा स्थान यहीं पर है। मैं ने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया।

राम - नहीं आप को भी चलना हो गा।

सीता - क्यों क्या, उस धोबी ने धोबिन को अपने घर में पुनः स्थान दे दिया।

राम - उस का ज्ञान नहीं। पर वह मेरी भूल थी। मुझे दूसरे पक्ष पर भी विचार करना चाहिये था। उस व्यक्ति को पत्नि को लाॅंछित करने के लिये दण्ड देना चाहिये था।

सीता - तो क्या उसे अब दण्ड मिल चुका है।

राम - हर व्यक्ति को अपने पाप का दण्ड स्वयं ही मिल जाता है। उस में राजा को कुछ करने की आवश्यकता नहीं है।

सीता - पर मेरे कर्म का दण्ड बनवास ही था।

राम - मैं ने कहा न कि मैं भूल पर था। मैं ने वह किया जो नहीं करना चाहिये था किन्तु अब मुझे और लज्जित न करें। कृपया राि में विराजमान हों।


सीता ने ऋषि के एक शिष्य को संकेत से बुलाया। उस के आने पर उस से कहा कि वह अग्नि को प्रज्वलित करे।


राम - नहीं, नहीं। आप को अग्नि परीक्षा देने की कोई आवश्यकता नहीं है।

सीता - यह अग्नि परीक्षा मेरी नहीं, आप के लिये है।

राम - मेरी?

सीता - हाॅं, मैं तो यहाॅं आश्रम में ऋषि प्रवर की निगरानी में थी। लंका में भी मैं अशोक वन में थी, राजमहल में नहीं। मेरी रखवाली के लिये त्रिजटा और दूसरी स्त्रियाॅं तैनात थीं। लेकेश भी कभी बिना सूचना के वहाॅं नहीं आये। और जब आये तो राजरानी मन्दोदरी उन के साथ थी। परन्तु आप तो राजमहल में हैं जिस में कई दासियाॅं भी हैं। जब मेरी अग्नि परीक्षा आवश्यक थी तो आप की तो और भी अधिक होना चाहिये। आईये। क्या आप तैयार हैं।

राम - आप की बात सही है कि वहाॅं भी मेरी गल्ती थी परन्तु संसार को आप की शुद्धता का प्रमाण देने के लिये ही ऐसा किया गया था। मुझे विश्वास था कि अग्नि तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सके गी।

सीता - नहीं। अग्नि के साक्ष्य का भी कोई मूल्य नहीं था। उतना भी नहीं जितना एक धोबी के कथन का था।


थोड़ा रुक कर सीता ने फिर कहा -

सीता - पर आप हिचकचा रहे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो आप अग्नि परीक्षा का स्वागत करते जैसे कि मैं ने किया था। मैं जानती हूॅं, अग्नि आप को निर्दोष सिद्ध नहीं करे गी जैसे वह मुझे भी नहीं कर पाई। मेरी परीक्षा का परिणाम तो संसार ने देख लिया। पर इस परीक्षा का परिणाम क्या हो गा, यह संसार नहीं जान पाये गा।

राम - सीते, मैं मानता हूॅं कि मेरी कमज़ोरी रही है और मैं उसे हृदय से स्वीकार करता हूॅं। अब आप लौट चलें ओर राजमहल की शोभा बढ़ायें जो इतने दिन से श्रीहीन रहा है।

सीता - नहीं राजन, अब मेरा स्थान उस स्वर्ण प्रतिमा ने ग्रहण कर लिया है। उसी ने अश्वमेध यज्ञ के आयोजन में आप का साथ निभाया है। अब आप को उसी से ही काम चलाना हो गा। उस की अग्नि परीक्षा की आवश्यकता नहीं हो गी। और यदि कभी हुई भी तो अग्नि उस को भी निदोष ही सिद्ध करे गी। हाॅं, उसे एक नया रूप अवश्य दे दे गी। मुझे भी अब नया रूप मिल जाये गा। मैं धरती की बेटी हूॅं, धरती में ही लौट जाऊॅं गी। मेरा इस धरातल पर अपना कर्तव्य पूर्ण हो चुका है।



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