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मानवता के प्रति कर्तव्य

मानवता के प्रति कर्तव्य


आप का सब से बड़ा कर्तव्य, समय के हिसाब से नहीं वरन् महत्व के अनुसार मानवता के प्रति कर्तव्य है। इस के बिना आप शेष कर्तव्य निभा नहीं पायें गे। आप के कर्तव्य हैं एक नागरिक के नाते अपने देश के प्रति, अपने परिवार के प्रति जिस में आप पिता, पुत्र, भाई या पति हो सकते हैं। आप का कर्तव्य है अपने आप के प्रति परन्तु यह सब कर्तव्य तभी पवित्र हो पायें गे जब आप मानवता के प्रति अपने कर्तव्य को निभायें गे। परिवार तथा देश वृत हैं जिन का मानवता के बड़े वृत में समावेश है।


मनुष्य सामाजिक प्राणी है। एक दूसरे से सम्पर्क से ही मानव आगे बढ़ सका है। इस प्रगति की कोई सीमा नहीं है। यह सहयोग, यह आपसी भाईचारा ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग करता है। यह ही ईश्वरीय व्यवस्था है। यह मानव का स्वभाव है। इस को यदि आप दबाना चाहें गे या दूसरों को इसे दबाने की अनुमति दें गे तो आप ईश्वर के कानून का उल्लंघन कर रहे हों गे। मानवता ने पीढ़ी दर पीढ़ी प्रगति की है इस कारण कि एक ने दूसरे को अपना ज्ञान, अपना अनुभव भेंट किया है। हम आज जो आराम पा रहे हैं, यह दूसरों के किये हुए कार्य का परिणाम है। यदि हम अपने व्यक्तित्व का प्रयोग दूसरों की प्रगति के लिये, मानवता की प्रगति के लिये नहीं करें गे तो इस श्रृंखला को तोड़ दें गे। यदि आप का विचार हो कि आप अपने को अलग थलग रख कर अपने को पवित्र बनायें रखें गे तो यह भी आप की भूल हो गी। भ्रष्टाचार आप से दो कदम दूर हो रहा हो और आप इस के बारे में कुछ न करें तो आप अपने कर्तव्य से विमुख हो रहे हैं। आप अपने आप को ईश्वर का भक्त या ईश्वर को मानने वाला किस प्रकार कह सकें गे जब आप उस का नियम तोड़ रहे हैं।


हम चाणक्य के कृत्यों पर गर्व करते हैं, अशोक, विक्रमादित्य, महाराना प्रताप, शिवा जी का आदर करते हैं। उन की कथा सुन कर हमारा सीना फूल जाता है। गुरू तेग बहादुर अपने धर्म के लिये बलिदान देते हैं तो हम उन का आदर करते हैं। पूर्वजों की विजय की बात पर प्रसन्न होते हैं, उन की हार की बात हमें गमगीन कर देती है। इन्दरा नूई पैप्सी का दायित्व लेती हैं, कल्पना चावला अन्तरिक्ष में जाती हैं तो हमें गर्व होता है। अमरेन्द्र सैन को नोबेल पंरस्कार मिलता है तो हम गर्व से इस के बारे में बात करते हैं। वे सब किस लिये। वे हमारे परिवार के सदस्य नहीं है। हमारी उन की जान पहचान नहीं है। जो चले गये, वे चले गये, जो हैं, उन से भी हम कभी मिलें गे नहीं पर फिर भी हमें उन के कृत्यों से आनन्द की अनुभूति होती है। न केवल देशवासी वरन् विदेश के भी वाल्टेयर का, चे ग्वेरा का, मार्टिन लूथर किंग का, विवरण हमें गर्व का अहसास दिलाता है। सम्भवतः उन के विचार हमारे विचार से मेल नहीं खाते, उन की जीवन शैली हमारी जीवन शैली नहीं है पर फिर भी उन का अपने आदर्शों के लिये लड़ना हमें अच्छा लगता है। उन के विचार - स्वतन्त्रता, समानता, भातृत्व भावना - मानव मात्र के लिये थे। उन के विचारों, उन के बलिदानों ने हमें इस योग्य बनाया है कि हम अपने लिये स्वतन्त्रता की मांग कर सके। समानता का अनुभव कर सके।


वर्तमान में भारत की स्थिति क्या है? आज हम कुछ व्यक्तियों की बात सुनते हैं। उन के हित को अपना हित समझते हैं। उन के इशारे पर अपना मत बनाते हैं। हम इस पर भी विचार नहीं करते कि क्या वे मानवता के प्रति अन्याय तो नहीं कर रहे हैं। क्या वे केवल अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। उन्हें हमारी प्रगति से कोई लगाव नहीं है। वे अपने लिये जीते हैं। अपने परिवार का येन केन प्रकारेण महत्व बनाये रखने के लिये कार्य करते हैं। हम किसी व्यक्ति विशेष के पीछे चल कर भूल जाते हैं कि यदि वे मानवता की प्रगति के लिये कार्य नहीं कर रहे तो अनर्थ कर रहे हैं तथा हम इस में भागीदार बनें गे तो हम भी पाप के भागी हों गे। हमें ईश्वर के सिपाही की तरह अपना कार्य करना है। वह सर्व शक्तिमान है। वह जानता है कि प्रगति किस दिशा में है। हमें उन के कानून पर चल कर उस के कार्य को सिद्ध करना है।


आरम्भ से ही मनुष्य ने ईश्वर के बारे में अनुभव किया परन्तु उस समय उस का अपना अस्तित्व केवल अपने तथा अपने परिवार तक सीमित था तथा इस कारण ईश्वर को भी उस ने कुल देवता की दृष्टि से ही देखा। आस पास की वस्तुओं - वृक्ष, नदी, पर्वत - में ही उस ने ईश्वर का प्रतिबिम्ब देखा। परिवार के बाहर के व्यक्ति या तो अजनबी थे अथवा प्रतिस्पद्र्धी। फिर उस का दायरा थोड़ा बढ़ा। परिवार से आगे उस का कबीला, उस का गाँव उस के अनुभव में आये। कुल देवता का स्थान ग्राम देवता ने लिया। परिवार से सम्पर्क समाप्त नहीं हुआ, परिवार का ही विस्तार हुआ। कुल देवता अपने स्थान पर रहा यद्यपि ग्राम देवता का महत्व भी स्थापित हो गया। फिर मनुष्य ग्राम से भी आगे बढ़ा ग्राम समूह की ओर जो अन्ततः राज्य का आधार बना। राज्य का परिमाण कम या अधिक होता रहा। ग्राम से आगे राज्य के प्रति कर्तव्य भावना जागृत हुई। ग्राम देवता से आगे राजा के रूप में उस ने देवता को देखा।


पर दूसरी ओर उस ने यह भी महसूस किया कि देवता से आगे भी कुछ है। सूर्य, चन्द्रमा, ऋ़तुयें अपनी मरज़ी से कार्य नहीं करतीं। उन में भी एक नियमता है। वेदों ने इस नियमता को ऋत कहा। पर मानव का विचार वहीं तक नहीं रुका, उस के आगे एक समग्र शक्ति का अनुभव उस ने किया। अलग अलग लोगों ने अलग अलग समय पर महापुरुष, महा शक्ति की कल्पना की। इसे उस ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र इत्यादि का नाम दिया। पर इस से भी उस की सभी समस्याओं का समाधान नहीं हुआ। फिर उस ने बह्म की कल्पना की - एक सर्वशक्तिमान, निराकार, निर्गुण, अनादि, अनन्त शक्ति की कल्पना। पूर्व के महापुरुष, पूर्व की महाशक्तियाँ इस अनन्त के स्वरूप मात्र रह गये। उस के किसी गुण के प्रतिनिधि रह गये।


जब तक मनुष्य का विचार उस के परिवार तक सीमित था, वह अपना पूरा समय परिवार के हित में व्यय करता था किन्तु जब उस का विस्तार ग्राम तक हुआ तो उस ने दूसरे लोगों के हित को भी अपने कार्य करते समय ध्यान में रखना आरम्भ किया। दूसरे ग्रामों के साथ स्पर्द्धा में उस ने अन्य ग्रामवासियों का सहयोग किया। फिर और विस्तार हुआ तथा ग्राम से राज्य तक बात पहुँची। राज्य के प्रति तथा राजा के प्रति निष्ठा का आलम था कि प्रजा उन के लिये मरने को तैयार रहती थी। भारत में यह स्थिति तब तक रही जब तक राजा भी अपनी प्रजा की भलाई सोचते रहे। कालक्रम में राजा अधिक महत्वाकाँक्षी हो गये। उन का ध्यान अपने अधिकार के विस्तार तक सीमित हो गया। उन की तथा प्रजा की दूरी बढ़ती गई। राजा तथा उस के संगी साथी अपनी मौज मस्ती में व्यस्त हो गये। प्रतिक्रिया स्वरूप प्रजा ने राजा के भविष्य में रुचि लेना बन्द कर दिया। सिवाये प्रत्येक फसल पर कर देने के उस का कोई प्रयोजन राजा से न रहा। पूर्व में राजा द्वारा परिचालित नियम समाज का मार्गदर्शन करते थे। यह स्रोत्र सूखने के परिणामस्वरूप समाज ने स्वयं आपसी व्यवहार को कुछ सिद्धाँतों के बंधन में रखने की व्यवस्था की। भारत में इसी से जातिप्रथा का आरम्भ हुआ। प्रत्येक जाति ने अपने हित की रक्षा करने के लिये अपनी व्यवस्था की। इस की परिणति ऐसे नियम बनाने में हुई जिस से उस समाज अथवा जाति का कोई व्यक्ति उस का उल्लंघन नहीं कर सकता था ताकि आपसी भाईचारा बना रहे।


एक दूसरे धरातल पर मनुष्य ने अनुभव किया कि वह केवल शरीर नहीं हैं। इस से अलग भी कुछ हैं जो इस शरीर को चलायमान रखता है। उस ने उसे आत्मा का नाम दिया। उस ने यह भी अनुभव किया कि सभी मनुष्यों में आत्मा है। इस के साथ ही उस ने इस बात पर भी विचार किया कि मृत्यु के पश्चात शरीर तो यहीं रह जाता है पर आत्मा जाती कहाँ है। इसी संदर्भ में स्वर्ग नरक की कल्पना की गई। इस के पीछे विचार था कि मनुष्य को इस बात के लिये तैयार किया जाये कि मनुष्य मात्र का आपसी सम्बन्ध मृत्यु के पश्चात भी रहता है। आरम्भ में पूर्वज भक्ति में परिवार के प्रति कर्तव्य की भावना निहित थी। फिर स्वर्ग नरक के भाव में समाज के प्रति न्याय की भावना की स्थापना हुई। जब मनुष्य की सोच का दायरा कुछ और बढ़ा तो विश्वकटुम्ब की बात सामने आई तथा पूरे विश्व के निवासियों में एक समान आत्मा होने तथा उस का आदर करने की बात भी आई। स्वर्ग नरक इसी संसार में होने की बात आई। मानव कल्याण की बात सामने आई।


जिस प्रकार राज्य में, समाज में क्रमशः विस्तार की भावना आई, उसी प्रकार व्यक्ति के जीवन में भी विस्तार की कल्पना की गई। इसी से आश्रम व्यवस्था की कल्पना हुई। जीवन को चार चरणों में बाँटा गया। प्रथम चरण में अपने प्रति कर्तव्य पूरा करने की बात थी। दूसरे चरण में परिवार के प्रति कर्तव्य निर्वाह था। तीसरे चरण में समाज के प्रति कर्तव्य पालन था तथा शेष बचे जीवन में आत्मा के प्रति, मानवता के प्रति अपने दायित्व पूरा करने की बात थी। महर्षि अरविन्द ने अध्यात्मक दृष्टि से इसी कल्पना को आगे बढ़ाया। उन का विचार था कि मानव जाति के सदस्यों में विशेषता रही है कि उस ने प्रगति को अपने तक सीमित नहीं रखा। जब उस ने कोई आविष्कार किया तो उसे दूसरों के साथ बाँटा। इस दृष्टि से मानव समाज सदैव उत्तरोतर प्रगति करता रहा है। प्रगति का यह क्रम सदैव जारी रहता है। कंद्राओं में रहने वाले तथा शिकार पर निर्भर मनुष्य अपने घर बना कर कृषि एवं पशुपालन की ओर बढ़ा। फिर उस ने नगरों की बसाहट की तथा सुख सुविधा के साधन जुटाये। भौतिक सुख के साथ साथ अध्यत्मिक शाँति के लिये भी उस का यात्रा जारी रही। प्रगति का यह सिलसिला रुक नहीं सकता। इस से आगे हमें और बढ़ना है। एक नये अध्यात्मिक जीवन की ओर बढ़ना है। महर्षि ने इसे अतिमानव का नाम दिया। उन्हों ने यह भी कहा कि पूर्णता की ओर की यह यात्रा अकेले नहीं, सभी को साथ ले कर पूरी करनी है।


इस बात पर कई महापुरुषों ने विचार किया है कि विश्व निर्माण में ईश्वर का क्या प्रयोजन रहा हो गा। इस बात का खुलासा अभी नहीं हो पाया है। अलग अलग मत हैं पर आगे चल कर हमें ज्ञात हो गा कि मनुष्य को, संसार को बनाने में ईश्वर का क्या कल्पना थी। मानव जाति से उस की क्या अपेक्षायें थीं। पर एक बात स्पष्ट है कि मूल तथ्य यह है कि व्यक्ति तभी आगे बढ़ सकता है जब पूरा मानव समाज आगे बढ़े। व्यक्ति अपने आप को समाज से अलग कर प्रगति नहीं कर सकता। न तो यह भौतिक रूप से सम्भव है, न ही अध्यात्मिक रूप से। जब चारों ओर भ्रष्टाचार हो तो एक व्यक्ति अपने को उस से पूर्णत्या अछूता रखे, यह व्यवहारिक नहीं है। आस पास के वातावरण से अपने को अप्रभावित रखना कठिन ही नहीं, असम्भव सा है। ठीक उस प्रकार जैसे हम यह कल्पना नहीं कर सकते कि शरीर का एक भाग हृष्ट पुष्ट रहे तथा शेष भाग से हमें सरोकार नहीं हो। जिस समाज में धन की पूजा हो। मान, सम्मान, प्रभाव, प्रतिष्ठा सभी धन की मुहताज हों, वहाँ पर गरीबी में रह कर सम्मानपूर्वक रह पाना कठिन हो गा। कोई एक कबीर हो सकता है, कोई एक ईसा मसीह हो सकता है पर आम व्यक्ति के लिये यह सम्भव नहीं है। उस के लिये पूरे समाज में ही सुधार की आवश्यकता हो गी।


कुछ व्यक्ति सोचते हैं कि वे अपने धन का एक भाग दान में दे कर स्थिति को सुधार सकते हैं। पर यदि व्यवस्था ही इस प्रकार की हो कि दो वर्ग आपस में हर स्थान पर टकरायें तो कुछ व्यक्तियों की दान की महिमा गौण हो जाती है। आज संसार इतनी प्रगति कर चुका है कि यह भी सम्भव नहीं है कि एक नगर अथवा एक देश प्रगति की राह पर हो तथा शेष अवनति की राह पर। किसी एक देश में न्याय हो, आपसी मेल जोल हो तथा शेष देश अन्याय, अत्याचार, शोषण के शिकार हों, यह व्यवस्था आज के युग में चल नहीं पाये गी। सभी का हित जुड़ा हुआ है। शुद्ध अर्थव्यवस्था की धरातल पर यदि कोई अन्य देश भुखमरी का शिकार है तो अपने देश के उत्पादन के ग्राहक उतने कम हो जायें गे। अमरीका में अर्थ व्यवस्था के बिगडने का प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ता है। विश्व व्यापी सुधार के बिना प्रगति सम्भव नहीं है। इस कारण हमें न केवल अपने देश के प्रति वरन् पूरे विश्व के प्रति अपना कर्तव्य का निर्वाह करना है, मानव मात्र के प्रति कर्तव्य का निर्वाह करना है।

इस दृष्टि से देखा जाये तो जहाँ जिस देश में भी मनुष्य अपने सम्मान के लिये ल़ड़ रहा है, वह हमारा युद्ध है। जो न्याय के लिये प्रयासरत है, वह हमारा भाई है। यह कहना अर्थहीन है कि हम बहुत छोटे हैं तथा मानवता बहुत बड़ी है। ईश्वर शक्ति के परिमाण को नहीं वरन् भावना को देखता है। मानवता के प्रति प्रेम भाव जागृत करो। हर कार्य करने से पहले सोचो कि इस में मानवता का भला है या नहीं। यदि हमारा मन इंकार करता है तो ऐसे कार्य से हाथ पीछे खींच लो भले ही यह लगे कि इस में हमारा या हमारे देश का निजी लाभ हो रहा है। किसी के कहने पर, किसी के निर्देश पर, अपना कर्तव्य निर्धारित करना अर्थहीन है। ईश्वर ने सभी मानव को सोचने की, समझने की शक्ति दी है। उस का उपयोग करो। अपने सिद्धाँतों के प्रति, मानव मानव के भाई चारे के प्रति सजग रहो। जिस सीमा तक हो सके, वहाँ तक इस पर अमल करो। ईश्वर में विश्वास रखो, पवित्र रहो। ईश्वर पवित्रता का मान करता है, वह आप के लिये नई राह रोशन कर दे गा। हमारी प्राचीन काल से प्रार्थना रही है - सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद दुःख भाग भवेत।। परन्तु यह केवल प्रार्थना नहीं, हमारा कर्तव्य भी है कि इस के लिये निरन्तर प्रयासशील रहें।



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