ईश्वर और मृत्यु एक किंदवती है - ईश्वर और मौत को हमेशा याद रखो। वास्तव में केवल मौत को याद रखना ही काफी है। यदि मृत्यु याद रहे गी तो ईश्वर स्वयं ही याद आ जायें गे।
सभी धर्मों की शुरूआत केवल इस प्रश्न से ही हुई है कि मृत्यु के बाद क्या होता है। आदि धर्म में पितृजन पुराने घर के आस पास ही मण्डराते हैं ऐसा माना जाता था। उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयास किया जाता था। उस समय पाप पुण्य का प्रश्न नहीं था। केवल पुराने संबंधों की याद धी। फिर जैसे जैसे भले बुरे का प्रश्न सामने आया, इस बात पर विचार किया गया कि जिस को मृत्यु के पूर्व नहीं पकड़ा जा सका तथा बुंरे काम का दण्ड तथा अच्छे काम का पारितोषिक नहीं दिया गया तो उस को यह कब मिले गा। इसी से ईश्वर का ध्यान आया। जब हम दण्ड नहीं दे सकते तो कोई अन्य इस के लिये सक्षम होगा। शरीर तो यहीं रह जाता है फिर दण्ड किस को दिया जाये गा। इसी से आत्मा के आस्तित्व का प्रश्न उठा।
मृत्यु उपरान्त क्या होता है इस के बारे में विभिन्न मत हैं। कुछ ने नर्क व स्वर्ग की कल्पना की और कहा कि चित्रगुप्त के लेखा के अनुसार यमराज द्वारा इन में भेजा जाये गा। समय भी उन के किये अनुसार होगा। कुछ ने कहा कि सब रूहों का हिसाब इकठ्ठा किया जाये गा और इस के लिये एक दिन नियत कर दिया गया। यह कयामत का दिन कहलाया। प्रश्न यह उठा कि जिन को दण्ड दिया जाये गा वह कब तक दोज़़ख या नरक में जलते रहें गे और जिन्हें बहिश्त अथवा स्वर्ग में भेजा जाये गा वह कब तक आनंद भोगते रहें गे। जब अवधि समाप्त हो जाये गी तो क्या होगा। साथ ही यदि किसी ने पाप और पुण्य दोनों किये हैं तो क्या होगा। अत: पुनर्जन्म की बात उठी। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में भुगतना पड़े गा। इस से यह भी समझाया जा सकता कि किसी को जन्म से ही सुख तथा किसी को जन्म से ही दुख क्यों मिलता है। किसी के सारे प्रयास व्यर्थ जाते हैं तथा किसी को अनायास ही सब कुछ मिल जाता है। इस मत में कर्म ही प्रधान थे। ईश्वर का भी स्थान नहीं था। बस आना, कर्मों का फल भोगना, नये कर्म करना और जाना, यही अनंत चक्र था। जब पुनर्जन्म की बात तय हो गई तो प्रश्न उठा कि इस चक्र का अन्त है कि नहीं। और यदि अंत है तो उस के बाद क्या होगा। यहीं से परब्रह्म की कल्पना पैदा हुई। निर्वाण अथवा मोक्ष की भावना पैदा हुई। इस में ही धर्म की परिणिति है। वेदान्त इसी की व्याख्या करता है।
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