मैक्स वैबर के ब्राह्मणों के बारे में विचार
(इन विचारों से सहमत होना आवश्यक नहीं है)
मैक्स वैबर (1864-1920) जर्मन विद्वान थे जिन्हों ने प्राचीन संस्कृतियों तथा धर्मों के बारे में विस्तृत विचार व्यक्त किये हैं। इन के लेख में गम्भीर अध्ययन स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उन्हों ने चीन तथा भारत की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन किया है जिस की झलक यहाॅं प्रस्तुत की जा रही है। उन के चिंतन में वह पूर्वाग्रह देखने को नहीं मिलता जो ए्रंग्लो सैक्सन विद्ववानों के लेख में आम तौर पर पाया जाता है। (मूल स्रोत्र रेनहार्ड बैंडिक्स की पुस्तक मैक्स वेबर - ऐन इंटलेक्चयुल पोट्रेट — कैलीफार्निया विश्वविद्यालय)
मैक्स वैबर ने उन परिस्थितियों का अध्ययन किया है जिन के कारण ब्राह्मणों को कई शताब्दियों तक भारतीय समाज में उच्च स्थान प्राप्त रहा। दूसरे अध्ययनों की तरह उन का ध्यान इस ओर था कि धार्मिक नेताओं ने किस प्रकार धार्मिक तथा राजनैतिक विचारो को प्रभावित किया है। इस में उन्हों ने समानतायें तथा असमानतायें, दोनों पर विचार किया है।
मैक्स वैबर के अनुसार यूनानी दर्शन की कई बातें भारतीय दर्शन से प्रभावित हैं जैसे कि होमर से ले कर सभी यह मानते थे कि विश्व दुखालय है। आवागमन तथा पुनर्जन्म में उन का विश्वास था। इसी प्रकार भारतीय दर्शन तथा कन्फूशियस के विचारों में भी समानता थी। दोनों ही समूह ज्ञान की उत्कृष्ठता तथा तदजनित कर्मकाण्ड में विश्वास करते थे। दोनों में ही यह ज्ञान सामान्य भाषा में न हो कर पवित्र भाषा में था। दोनों में ही इस ज्ञान के लिये अभिमान था तथा जिन्हें यह ज्ञान नहीं था, उन के प्रति करुणा। इसी से वह सत्ताधारियों को प्रभावित कर सके।
परन्तु जो असमानतायें भारतीय तथा चीनी स्थिति में था, वह अधिक संगत है। चीन में ज्ञानवान उच्च पद के लालायित थे जबकि भारत में वह राजगुरु होने के साथ सामान्य परिवारों केे पुरोहित, दर्शनवेता तथा विधिवेता थे। उन की भूमिका परामर्श देने की थी। यह सही है कि सभी चीनी विद्वान पद पाप्त नहीं थे परन्तु अपेक्षा तो रहती थी। उन की आय का स्रोत शासकीय वेतन अथवा अन्य भुगतान से थी जब कि ब्राह्मण इस प्रकार की आय को उचित नहीं मानते थे। वे या तो भूमि से प्राप्त आय पर निर्भर थे या अपनी सेवाओं के लिये दिये गये स्वैच्छिक दान के। सम्भवतः यही कारण है कि चीन मे राजनैतिक एकता की नींव पड़ी जब कि भारत में ऐसी एकता नहीं पनप पाई। चीन में सभी विद्वान अपने को सम्राट का ही प्रतिनिधि मानते थे पर भारत में शासक ने कभी अपने को इस का अंश नहीं माना। राजपुरोहित अंतिम रूप से धार्मिक कार्य में निर्देश दे सकते थे। राजा इन को कुछ प्रभावित तो कर लेते थे पर इन्हें ही अंतिम निर्णायक माना जाता था। राजा को धर्म के अनुरूप चलना ही होता था तथा वह एक छत्र शासक नहीं बन पाते थे। इस का एक परिणाम यह भी था कि शिक्षा का पूरा दायित्व इन ब्राह्मणों के हाथ में ही रहा।
इस अन्तर में एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि चीन में लिखित शब्द पर अधिक ध्यान दिया गया जब कि भारत मे श्रुति पर। न्यायालयीन कार्य भी मौखिक रूप से ही किया जाता रहा। शास्त्रार्थ इस में विशेष भूमिका निभाते रहे। दूसरी शातब्दि ईसा पूर्व के बाद ही भारत में लिखित साहित्य का आरम्भ हुआ। इस का एक परिणाम यह भी है कि भारतीय ज्ञान सूत्रों के रूप मं रहा। इन की व्याख्या गुरू द्वारा की जाती थी तथा बाद में इन पर भाष्य लिखे गये।
मौखिक साहित्य पर केन्द्रित इस परिपाटी का एक प्रभाव यह भी हुआ कि विशेषण, समानार्थी शब्दों तथा संकेतकों की भरमार हो गई। इसी में कई प्रकार की विशिष्ट आलंकृत शब्दावली तथा प्रतीकों का आविष्कर हुआ। चीन में इस के विपरीत शब्दों की मितव्ययता पर ध्यान दिया गया। अलंकृत भाषा के इस बाहुल्य का अर्थ वास्तविक संसारिक वस्तुओं के प्रति उदासीनता में भी हुआ। इस के फलस्वरूप अध्यात्मिक शक्तियों को भी बल मिला जिस ने सामाजिक तथा राजनीतिक संरचना को प्रभावित किया। चीन में माना गया कि सामान्य जन को रोटी कपड़ा मकान से मतलब है और इस से एक प्रकार की जन कल्याण सरकार का उदृभव हुआ। भारत में ब्राह्मण वर्ग द्वारा अपनी उत्कृष्टता स्थापित करने के कारण अन्य वर्गों में भी इसी प्रकार की भावना का उदय हुआ। हर एक वर्ग द्वारा अपना विश्ष्टि धर्म अपनाया गया। यहाॅं तक कि वैश्याओं, ठगों ने भी अपना अलग धार्मिक मान्यताओं को मान्यता दी तथा समाज ने उसे स्वीकार किया। इसे कर्म सिद्धाॅंत के अनुरूप माना गया। सभी मनुष्य समान है, यह धारणा कभी पनप नहीं पाई। बहु आयामाी आस्तित्व को स्वीकार किया गया। प्रत्येक वर्ग द्वारा अंतिम लक्ष्य - मोक्ष - को पाने के लिये उन का अपने धर्म में विश्चास तथा उस का पालन समुचित प्रयास माना गया। यह सही है कि अंतिम रूप से एक ब्रह्म तथा एक सी आत्मा के विचार को भी मान्यता दी गई किन्तु व्यवहार में पूर्व व्यवस्था स्थापित रही।
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