मृतोत्थान
प्रष्न - हिन्दु धर्म में पाप का स्वरूप क्या है। यह अन्य धर्मों से अलग क्यों है।
ईसाई मत में तथा इस्लाम में पाप तथा पुण्य को दो विपरीत संघर्षरत शक्तियों के रूप में देखा जाता है। एक ओर ईष्वर है जो शुद्ध स्वरूप है। सदैव सही कर्म करने वाला है। दूसरी ओर शेतान है जो पाप को ही प्रोत्साहन देता है।
इन दोनों में सदैव संघर्ष की स्थिति रहती है। ईश्वर की ओर फरिष्ते हैं और शैतान के अपने प्रतिनिधि। दोनों का संघर्ष मानव जाति की आत्मा के लिये है। शैतान मानव को बहकाता एवं भटकाता है। ई्रश्वर अपने संदेशवाहक पैगम्बर के माध्यम से लोगों को सही रास्ते पर लाने का प्रयास करता है। कुछ सुपथ पर दृढ़ रहते हैं। कुछ बहक जाते हैं।
क्यामत के दिन ईष्वर की विजय हो गी। अच्छे कर्म वालों को स्वर्ग मिले गा जो चिर काल तक रहे गा। पापियों को नरक जहॉं वह चिर काल तक रहें गे।
विरोधाभास यह है कि ईश्वर ने ही शैतान को बनाया पर वह उस पर नियन्त्रण नहीं कर पाता है।
हिन्दु धर्म में अथवा किसी भी भारतीय धर्म में यह विसंगति नहीं है। अन्त में केवल एक ही शक्ति है। एक ही ब्रह्म है। अच्छे बुरे का आस्तित्व समय, स्थान तथा भावना के आधीन है। इस में एक दूसरे पर विजय पाने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि सब एक हैं।
प्रश्न किया जाता है कि सुर तथा असुर में संग्राम की बात साहित्य में जाती है। क्या यही ईश्वर विरुद्ध शैतान का स्वरूप नहीं है। वास्तव में गम्भीरता से विचार किया जाये तो यह संघर्ष लाक्षणिक है। असुर विश्रृंखलता का रूप है। इस में से शॅंति का उद्भव सुर द्वारा किया जाता है। यह दोनों बातें व्यक्ति में ही हैं तथा इन में से चयन प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किया जा रहा है। कोई बाहरी शक्ति इसे संचालित नहीं करती है।
यह कथन सही नहीं हो गा कि जो व्यक्ति पाप के पक्ष में अथवा उस के प्रभाव में हैं, उन का उद्धार सम्भव नहीं है। इसे धर्म तथा अधर्म के रूप में लिया जाना चाहिये। जो अधार्मिक हैं, उन्हें अगले जन्म में पुनः अवसर दिया जाये गा। कोई अंतिम पड़ाव नहीं है क्योंकि समय - काल - का चक्र है। चिर काल तक सुख अथवा दुख का प्रावधान नहीं है। पुण्य हो अथवा पाप हो, स्वर्ग अथवा नरक में अपना समय काट कर फिर से अवसर है कि अपने को सुधार लें। अथवा निर्वाण प्राप्त कर जन्म मरण से निजात पा कर ब्रह्म में लीन हो जाये।
एक बात और। पाप और पुण्य का भेद भी परिस्थिति पर निर्भर करता है। किसी अवस्था में झूट बोलना पाप है किन्तु किसी के प्रा्रण बचाने के लिये वही बात पुण्य भी हो सकती है। हिंसा और अहिंसा की बात भी वैसे ही है। युद्ध की स्थिति में शत्रु पक्ष के व्यक्ति को हानि पहुॅंचाना पुण्य है किन्तु अन्य स्थिति में पाप।
सारांश यह कि हमारे भारतीय धर्म में किसी पापी को बचाने का प्रध्न नहीं है। किसी को अपनी बात मनवाने का तथा अपने मत को मानने का आग्रह नहीं है। उपदेश है किन्तु उपदेश न मानने का मानव द्वारा मानव को दण्ड देने का अधिकार नहीं है।
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