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मानव लक्ष्य, अर्थशास्त्र और पर्यावरण

मानव लक्ष्य, अर्थशास्त्र और पर्यावरण


प्रश्न यह है कि आम आदमी वास्तव में क्या चाहता है।

उत्तर हो गा संतोष, सुख।

पर संतोष या सुख प्राप्त कैसे हो गा। मनीषियों का यह दृढ़ मत है कि आत्म संतोष ही जीवन में हमारा लक्ष्य रहना चाहिये, परन्तु संतोष को कैसे प्राप्त जाये, यह प्रश्न रह जाता है।

संतोष का सीधा सम्बन्ध हमारी इच्छाओं से है। यदि हमारी इच्छा पूर्ण होती है तो हमें संतोष मिलता है। इसे पूर्ण रूप कैसे दिया जाये, अब यह प्रश्न उठता है।

बौद्ध मत में धारणा है कि दुख का कारण तृष्णा एवं इच्छायें हैं। इच्छा के पूरी न होने पर अप्रसन्नता एवं क्रोध उत्पन्न होता है। वस्तु प्राप्त हो जाने पर उसे खोने का भय बना रहता है तथा इस कारण संतोष नहीं हो पाता है। इसी लिये कई विद्वानों ने यह तर्क किया है कि संतोष की मात्रा बढ़ाने के लिये हमें अपनी इच्छाओं तथा आवश्यकताओं को कम करना चाहिये। इस के लिये हर बार हमें सोचना हो गा कि जो वस्तु हम लेने जा रहे हैं, वह हमारे संतोष को बढ़ाये गी अथवा असंतोष को।

भगवदगीता में भी कहा गया है - संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधाऽभिजायते। जब किसी वस्तु से संगत हो जाती है तो मोह उत्पन्न होता है और इच्छा पूरी न होने पर क्रोध पैदा होता है। क्रोध संतोष का विलोम है।

जहॉं तक शारीरिक आवश्यकताओं की बात है, उस की प्राकृतिक सीमा है। हम अधिक खा नहीं सकते (अन्यथा हमें मोटापे से अथवा अन्य बीमारी से दो चार होना पडे गा), कपड़े नहीं खरीद सकते (क्योंकि एक समय में सीमित ही पहन सकते हैं); पुस्तकें सीमित संख्या में खरीद सकते है (क्योंकि पढ़ने के लिये भी समय चाहिये)। परन्तु दूसरी ओेर इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि इच्छा केवल किसी भौतिक वस्तु की ही नहीं होती है। मन की शॉंश्य के लिये और भी आवश्यकतायें रहती है। अपने फुरसत के समय में किसी का साथ, प्रकृति के दृष्य, यह सब भी संतोष को ही पोषित करती हैं। यदि हम केवल भौतिक वस्तुओं के पीछे भागें गे तोे दूसरी बातें रह जायें गीं। उपरोक्त कारण से चयन की एवं कमी की समस्या सदैव बनी रहती है। कि माया के पीछे चलें अथवा मन के पीछे।

हर व्यक्ति की अपनी कुछ मौलिक आवश्यकतायें रहती हैं जिन की पूर्ति आवश्यक है। उदाहरण के लिये हमें भोजन चाहिये, और इस भोजन को प्राप्त करने के लिये आय भी चाहिये अर्थात कोई धंधा रहना चाहिये जिस से हम आय प्राप्त कर सकें। इसी प्रकार वस्त्र, निवास स्थान तथा अन्य सामग्री भी मौलिक आवश्यकता मानी जा सकती है।

दूसरा वर्ग उन वस्तुओं का है जिन्हें हम प्राप्त करना चाहते हैं किन्तु जो मौलिक आवश्यकतायें नहीं हैं। जो हमारे आराम में वृद्धि कर सकती हैं। हमारे परिश्रम में कमी कर सकती है। अनेकानेक सुविधा के साधन उद्योग तथा तकनालोजी ने प्रदान किये हैं। इन के प्रयोग से समय बचता है और अन्य बातों की ओर ध्यान जाता है। परन्तु वह अन्य बातें क्या है, इन पर ही हमारे संतोष की भावना निर्भर करती है।

कभी कभी वह वस्तुयें जिन्हें हम प्राप्त करना चाहते हैं, हमारी मौलिक आवश्यकता भी बन जाती है। यह वस्तुयें समाज में अपनी स्थिति के अनुसार भी हो सकती है तथा इस कारण भी कि अन्य के पास वे हैं, तथा हमें बताया जाता है कि वह संतोष प्राप्ति के लिये अनिवार्य हैं। जैसे कि कार। इस के बिना काम चलता ही था पर अगर गन्तव्य दूर हो तो यह मौलिक आवश्यकता बन जाती है। परन्तु देखा जाये तो आवागमन के लिये छोटी कार भी उतनी ही उपयोगी है जितनी बड़ी कार।

परन्तु चूॅंकि मनुष्य सामाजिक प्राणी है इस कारण वह अपनी तुलना अपने साथ के लोगों से करता है तथा अपने को विष्वास दिलाता है कि उन के पास जो वस्तु है, वह अनिवार्य है तथा उन की प्राप्ति से जीवन में संतोष बढ़े गा।

इस दिषा में विज्ञापन कर्ताओं का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। विज्ञापनकर्ता इस बात का यकीन दिलाते हैं कि जितनी बड़ी कार हो गी, उतना ही हमें आराम हो गा। इस के लिये उत्तरदायी बहुत हद तक हमारा वर्तमान अर्थशास्त्र है जो हमें बताता है कि मनुष्य की मॉंग असीमित है। जीवन में आराम से रहने के लिये उन साधनों की आवष्यकता है जो जीवन को सुखी बना सकें एवं हमारा कार्य आराम से हो सके। परन्तु इस का वास्तविक परिणाम यह होता है कि हमारी मॉंग असीमित हो जाती है।

पूरी विज्ञापन व्यवस्था इस बात को सिद्ध करने का प्रयास है कि कैसे अधिक से अधिक वस्तुओं को वॉंछित से अनिवार्य में परिवर्तित कर सकें। यह स्पष्ट है कि यदि इन वॉंछित से अनिवार्य में परिवर्तित वस्तुओं की संख्या असीमित है तो चाहे जितनी भी मिल जायें, कम हैं। ऐसे में अर्थशास्त्र हमारी कोई सहायता नहीं कर सकता। मनुष्य कभी भी संतुष्ट नहीं हो सकता है चाहे वह आवासरहित भिकारी हो अथवा करोड़पति। इस कारण संतोष में कमी हो गी यदि बाज़ार में वॉंछित से अनिवार्य में परिवर्तित वस्तुओं का वर्चस्व रहे गा।

उपभोगवाद सामाजिक दबाव की तरह से काम करता है। यदि सब के पास फ़ोन है तो जिस के पास नहीं है वो एकदम अकेला पड़ जायेगा। और सामाजिक प्राणी मनुष्य के लिये अकेला पड़ना बड़ी त्रासदी है। इसी प्रकार यदि सभी के पास कार है तो व्यक्ति के लिए भी कार रखना आवश्यक हो जाता है। और जब कार आ जाती है तो दूर तक जाना सरल हो जाता है। इस कारण किसी सौदे की आशा में व्यक्ति दूर तक जाता है।

इस प्रवृति के दुष्परिणामों पर नज़र डालें तो कई बातें सामने आायें गी। व्यापारिक केन्द्र जहॉं सभी वस्तुयें एक स्थान में उपलब्ध हो जाती हैं, का परिणाम ये होता है कि स्थानीय दुकानदार नैपथ्य में चले जाते हैं। सार्वजनिक परिवहन साधन जैसे मेट्रो आदि दूर जाने के लिये तथा ई रिक्शा पास में जाने के लिये उपलब्ध है। इस स्थिति में साईकल वालों के लिये सुविधा होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। माल तथा बृहत व्यापारिक केंद्र बनने से नुक्क्ड़ की दुकान पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। और ऑनलाइन खरीदने से भी और अधिक विपरीत असर पड़ा है। इस तमाम सुलभ रूप से उपलब्ध सुविधा के कारण मनुष्य आरामतलब हो गया है। पका पकाया खाना मिल जाए तो घर पर खाना बनाने पर तथा खानपान की विधि पर ध्यान कम जाता है। इसी कारण कई लोग खाना बनाने की विधि तक नहीं जानते हैं, जिन पर से बाहर खाने का दबाव और बढ़ जाता है।

इस का विपरीत प्रभाव गांवों में भी देखा जा सकता है। जब बड़े व्यापारिक केंद्र खुल जाते हैं तो उनके प्रतिनिधि सामान खरीदने के लिए ग्राम का रुख करते हैं। इस में कृषकों को सीधे संपर्क होता हैै तथा स्थानीय व्यापारी इस में पीछे छूट जाते हैं। बहृत आकार की खरीद होने पर खुदरा व्यापारी मुकाबला नहीं कर पाते हैं। इस से ग्रामीण समाज में भी विघठन भी हो रहा है।

आज के विज्ञापन युग में तथा आपसी होड़ के युग में हम सदैव अपनी तुलना अपने पड़ौसी, अपने अधिकारी तथा उन व्यक्तियों से करते रहते हैं जिन का वास्ता हम से पड़ता है। इस से हमारी इच्छाओं में वृद्धि होती रहती है। हमारे उत्पाद उन्हें पूरा करने के लिये उतनी तेज़ी से नहीं बढ़ पाते। इस कारण संतोष में कमी ही होती रहती है, वृद्धि नहीं जो कि हमारा लक्ष्य होना चाहिये।

जहॉं तक सामान्य अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध है, वह इस बात पर विश्वास नहीं करता कि भौतिक इतर वस्तुयें इस योग्य हैं कि उन का अध्ययन किया जाये। इस के पीछे मान्यता है कि संतोष केवल भौतिक वस्तुओं को पाने से ही हो सकता है। इस के लिये प्रचार प्रसार द्वारा व्यक्ति को यह विश्वास दिलाया जाता है कि उसे अमुक वस्तु प्राप्त हो जाये तो उस का संतोष का स्तर बढ़ जाये गा। इस उपभोग को बढ़ाने के लिये पूरा तन्त्र तथा पूरा प्रसार संगठन लगे रहते हैं। इस में वह सफलता भी पाते हैं। परन्तु कठिनाई यह है कि जब मॉंग बढ़ जाती है तो उत्पादन को बढ़ाने का प्रयास हेाता है जिस कारण स्रोतों की कमी हो जाती है।

जब स्रोतों की कमी होती है तो इसे बढ़ाने के लिये सभी प्रकार के प्रयास किये जाते हैं, भले ही उस से पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता हो अथवा अन्य प्राणियों के लिये समस्या पैदा होती हो। इसी कारण हम दुर्गम से दुर्गम स्थानों पर स्रोतों की तलाश में अतिर्क्रमण करते रहतेे हैं चाहे वह अमेेज़न के जंगल हों अथवा अलास्का के हिम आछादित क्षेत्र। परन्तु वर्तमान अर्थषास़ यह कहता है कि यदि हमें प्रगति करना है तो नये स्रोत तलाश करते रहना हो गा ताकि उत्पाद बढ़ाया जा सके।

दूसरी और यह प्रयास भी रहता है कि यदि वर्तमान आवश्यकता के लिये स्रोतों की कमी नहीं हैं तो मांग को बढ़ाया जाये ताकि स्रोतों की कमी हो। इस प्रकार कृत्रिम कमी पैदा की जाती है। वास्तव में यह कृत्रिम कमी अपने लिये लाभ प्राप्ति के नये आयाम डूॅंढने का प्रयास है। जव वॉंछित वस्तुओं की कमी हो गी तो उस का दाम बढ़ाया जा सके गा। निवेष्कों का लाभांष बढ़े गा। कहा जाता है कि इस से उन में संतोष की भावना उत्पन्न हो गी परन्तु यह पर्यावरण के ह्नास के आधार पर ही हो गा। तथा वास्तवक रूप से संताष कम ही हो गा, बढ़े गा नहीं। हमारी वर्तमान में जो व्यवस्था में मुख्य शिकायत स्रोतों की कमी के बारे मे रहती है, इस का वास्तविक कारण है कि उपभोग की प्रवृति लगातार बढ़ रही है। फलस्वरूप स्रोतों की कमी हो जाती है।

दूसरा सिद्धॉंत जो अर्थशास्त्र ने दिया है, वह किसी देश की प्रगति को उसे के सकल गृह उत्पादन के आधार पर नापने का है। यदि विचार किया जाये तो सकल गृह उत्पादन केवल मुद्रा प्रसार का द्योतक है। जितनी बार मुद्रा एक हाथ से दूसरे हाथ में जाये गी, उस अनुपात से ही सकल गृह उत्पादन बढ़े गा अर्थात इस का आधार केवल वस्तुओं को क्रय विक्रय करने का है। उस का मानव जाति की प्रसन्नता से अथवा संतोष से कुछ लेना देना नहीं है।

कुछ इच्छायें ऐसी भी हैं जिन्हें हम संतोष के लिये आवश्यक मानते हैं। इन में आस पास शॉंत वातावरण भी एक है। सर्वे भवन्तु सुखिनः इस कारण भी सही प्रार्थना है कि दूसरों के सुखी होने से हम में संतोष की भावना उत्पन्न हो गी। ऐसी इच्छा को पूरा करना सम्भव नहीं होता है। उस दृष्टि से हमारी मॉंगें असीमित हैं। पर इस में बाज़ार हमारी मदद नहीं कर सकता। बाज़ार का इस में योगदान की कामना करना अतर्कपूूर्ण है। एक ओर बताया जाता है कि हमारी मॉंग जो सीमित है, उसे पूरा नहीं किया जा सकता तथा दूसरी ओर जो असीमित मॉंग है जैसे विश्व शॉंति, सामाजिक न्याय, जैविक विविधता का संरक्षण, इत्यादि के बारे में अर्थशास्त्र खामोश रहता है।

अर्थशास्त्र के कुछ सिद्धॉंत समय के साथ इतने परिपक्व हो गये हैं कि उन के गल्त होने का विचार भी मन में नहीं आता। इन में एक यह है कि अधिक उपभोग से अधिक प्रसन्नता मिलती है। इसी आधार पर यह कहा जाता है कि लालच - अधिक पाने की इच्छा - ही प्रगति की अनिवार्य शर्त है। यदि व्यक्ति असंतुष्ट नहीं हो गा तो नये आविष्कार नहीं हो सकें गे। जैसा कि पूर्व में कहा गया है इच्छा ही असंतोष की जननी है। प्रचार के कारण अथवा अन्यथा व्यक्ति कुछ पाना चाहता है पर पा नहीं सकता अतः उस का असंतोष बढ़ता है। जहॉं तक बाज़ार का सम्बन्ध है, वह अपने लाभ के लिये इच्छाओं को बढ़ाते रहना चाहते हैं। उन का संतोष से कोई सम्बन्ध नहीं है।

इस का प्रभाव समाज के विघटन के रूप में भी सामने आया है। जब दूर के लोगों से आसानी से सम्पर्क कायम हो सकता है तो पास के व्यक्ति से सम्पर्क स्थापित करने की आवश्यकता ही नहीं रहती है। महानगरों में तो साथ के मकान में कौन है, ज्ञात नहीं होता है, न ज्ञात करने की कोई इच्छा ही होती है। गमी या खुशी में भी अब आसपास के लोग नहीं आते। और दूर के जान पहचान वाले मौके पर आने में असमर्थ रहते हैं। आदमी सब को जानता है पर किसी को नहीं जानता।

दूसरी और अपना सामान बेचने के साथ साथ ग्रामीण जगत में भी उपभोग की दिशा में परिवर्तन आ रहा है। इस से उन की फसलों के चयन की स्वायत्तता पर भी प्रभाव पड़ा है क्योंकि जिस वस्तु की बाज़ार में आवश्यकता होगी वो उसी का ही उत्पादन कर सकते हैं अन्यथा उस के लिये बाज़ार उपलब्ध नहीं हो गा।

उपभोग की इस अन्धी दौड़ में विपरीत प्रभाव पर्यावरण पर पड़ना स्वाभाविक है। विश्व जलवायु परिवर्तन के अथाह परिणामों के चिंतित हैं, परंतु उपभोग प्रवृति का प्रभाव इतने भीतर तक समा गया है कि मनंष्य केवल सोचता है कि जलवायु परिवर्तन को कैसे रोका जाए? उस के लिए कुछ करने को तैयार नहीं है क्योंकि उस की मानसिक स्थिति इसकी अनुमति नहीं देती है। समस्त कार्रवाई केवल भाषणों तथा संगोष्ठियों तक सीमित रह जाती है।

उपभोक्ता की इच्छा का प्रभाव अधिकाधिक प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ता ही है। जब उपभोग अनिवार्य हो जाता है तो प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की गति बढ़ जाती है। इसी कारण वन का क्षेत्र कम हो रहा है। इन के स्थान पर व्यापारिक बन आ रहे हैं। वहाँ पर केवल लाभ ही गतिविधि तय करता है। वन्य प्राणी विविधता भरे जंगल में ही रहते थे। इस मोनो कल्चर वाले बनों में नहीं रह पाते। फलस्वरूप वन्य प्राणी विलुप्त हो रहे हैं। वन्य प्राणी के साथ साथ पालतु मवेशी भी कम हो रहे है। जब ट्रैक्टर उपलब्ध है तो बैल की कोई ज़रूरत नहीं है। जब कार है तो घोड़े की क्या आवश्यकता है। मवेशियों के कम होने से प्राकृतिक खाद में भी कमी आती है तथा रसायनिक खाद का प्रयोग बढ़ता है। यह एक बार फिर प्राकृतिक संसाधनों के बल बूते पर ही होता है।

कुल मिला कर पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ना अनिवार्य सा हो गया है तथा इस प्रवृति को रोकने का कोई उपाय नज़र नहीं आ रहा है। जब तक किसी देश की आर्थिक स्थिति का आंकलन उस के सकल घरेलू उत्पादन से किया जाता रहे गा तब तक मुद्रा के चलन को सीमित नहीं किया जा सके गा तथा उपभोग की प्रवृति को रोका नहीं जा सकता है। हम ढलान पर हैं तथा हमारी गति को रोकने वाली कोई ब्रेक नहीं है। न तो इस की गति धीमी हो गी और न ही उसे दूसरी दिशा में मोड़ना असम्भव प्रतीत हो रहा है। सिवाये आने वाली पीढ़ी के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करने के कोई रास्ता नहीं है।


(नोट - यह अनुवाद नहीं है। विषयवस्तु को ग्रहण किया गया है तथा उसे अपने शब्दों में वर्णित किया गया है

inspired by

the economics of abundance by wolfgang hoeschele

gower publishing limited surrey, england 2010)

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