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‘‘माइ गॉड इज़ ए वुमन’’

kewal sethi

नूर ज़हीर द्वारा लिखा हुआ उपन्यास ‘‘माइ गॉड इज़ ए वुमन’’ पढ़ना शुरू किया।और बहुत रुचि से। पहला झटका तो तब लगा जब नायिका कहती है कि अली ब्रदरस को बंदी बना लिया गया है। लगा कि उपन्यास पिछली सदी की बीस के दशक के बारे में लिखा गया है। लेकिन शीघ्र ही पता लगा कि आजादी की तारीख पास आ रही है यानि कि चालीस का दशक है।

बिंदु निकल गया, और रुचि बनी रही। लगभग 150 पृष्ठ तक। फिर झटका लगा। तब तब नायक सीधे मुख्यमंत्री से मिला। बिना पूर्व सूचना के। बिना किसी पूर्व अप्वाईटमैंट के। तभी लगा कि कुछ गड़बड़ है। उपन्यास वह नहीं जो मैं सोच रहा था। आगे बढ़े तो यह विचार सुदृढ़ होता गया।और हालत यह हो गई कि किसी तरह से उपन्यास को समाप्त किया जाए।

नायक को साम्यवादी पार्टी से निकाल दिया गया। उसके खिलाफ़ फतवा जारी हो गया, क्योंकि उसने शरीयत के खिलाफ़।लिखा था। और उस फतवे के कारण उसकी हत्या कर दी गयी। क्या नायिका अब इस अन्याय के विरुद्ध लड़े गी? पर नहीं। एक मित्र की सिफारिश पर नायिका लखनऊ से दिल्ली आ गई। जहाँ पर उसको आश्रय मिला अमृता से, जो एक नाटक कंपनी चलाती हैं। उसमें नायिका प्रबंधक बन गयी। वह सफल पुतली का खेल शुरू कर देती है। साथ ही उस में इतनी सफल होती है कि प्रधानमंत्री श्री नेहरू भी देखने आ जाते हैं। न केवल आ जाते हैं, बल्कि अगले दिन उस को अपने घर पर भी बुलाते है, क्योंकि उन्हें भी उसके पति की याद है। नायिका को संस्कृति मंत्रालय में उच्च पद मिल जाता है। यूरोप के सांस्कृतिक दौरे का अवसर भी प्राप्त हो जाता है। इस बीच उसकी बेटी सितारा पी एच डी कर लेती है तथा फिर एक सहपाठी वसीम से शादी कर लेती है। और दोनों यूरोप चले जाते हैं जहॉं उन्हें अच्छी नौकरी मिल जाती है।

लगता है सब कुछ ठीक हो गया।

पर नहीं।

तभी। अमृता का एक पति आ जाता है। पति जो शैतान है। पता चलता है कि सब संपत्ति तो उसकी ही है। धीरे धीरे वह सब कुछ हथिया लेता है। नाटक कम्पनी बन्द हो जाती है। पति दूसरी औरत को ले आता है। अमृता की बेटी - गीतिका - जो कि अपाहिज है, और व्हीलचेयर में ही रहती है, की हत्या कर देता है। अमृता को एक कमरे में कैद कर देता है। उसका फ़ोन काट देता है।

नायिका अमृता को अपने साथ ले आती है। और दोनों मिल कर अदालती कार्रवाई करते हैं जिस मे जायदाद का काफी हिस्सा उन्हें मिल जाता है।

एक बार फिर लगता है कि सब ठीक हो गया।

पर नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।

वसीम बच्चों की तस्करी का अवैध धंधा शुरू कर देता है। सितारा बेखबर है। और जब यूरोप की पुलिस के सामने वसीम का भंडा फूटने लगता है तो वह रातों रात सितारा को लेकर भारत लौट आता है। सितारा की नौकरी भी गयी। और वसीम की भी। वसीम अब सितारा पर अत्याचार शुरू कर देता है, क्योंकि वे बच्चा जनने में असफल रहती है, जो कि औरत का एकमात्र काम है। नायिका सितारा को ले कर अलग हो जाती है।

इस बीच नेहरू चले जाते हैं। इंदिरा आती है और चली भी जाती है। संस्कृति मन्त्रालय की नौकरी का क्या हुआ, पता नहीं। राजीव का ज़माना आ जाता है। और शाहबानो का प्रकरण सामने आ जाता है। साफिया, जो अब 70 से ऊपर हो गई है। इंदौर जाकर शाहबानो को नैतिक समर्थन देना चाहती है। पर ना अमृता, न सितारा उसके साथ जाते हैं। कमजोर साफिया को इंदौर स्टेशन पर दिल का दौरा पड़ जाता है। और उसकी मृत्यु हो जाती है। तब सितारा और अमृता पहुॅंचते हैं।

सब कुछ इतना अस्वाभाविक है, कि इसे हजम करना भी मुश्किल है। उपन्यास का एकमात्र लक्ष्य मर्द का औरत पर जुल्म दिखाना है, चाहे वो हिंदू हों या मुस्लिम। पर थोड़ा नाटक ज़्यादा हो गया। शरियत की बेइंसाफी दिखाना थी पर वह भी हो नहीं पाया।

संगतता बनी नहीं रहती है। औरत की सफलता बार बार दिखाई गई है। वह अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है। पर, फिर एक मोड़ आ जाता है जो पूर्णतया कृत्रिम प्रतीत होता है। वह फिर वापस वहीं आ जाती है जहॉं से चले थे। और अंत तक वही स्थिति बनी रहती है।

कुल मिलाकर सिवाय मेलोड्रामा के और कुछ नहीं है। नाटकीय मोड़ अविश्वसनीय से लगते हैं।


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