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kewal sethi

महापर्व

महापर्व


दोस्त बाले आज का दिन सुहाना है बड़ा स्कून है

आज न अखबार में गाली न नफरत का मज़मून है।

लाउड स्पीकर की ककर्ष ध्वनि भी आज मौन है।

खामोश है सारा जहान, न अफरा तफरी न जनून है

कल तक जो थे आगे आगे जलूसों के लगाते नारे

आज अब खामोश हैं झूट घड़ने वाले सभी अदारें।

काश ऐसा हर वक्त होता, यह खमोशी, यह समॉं

पर अपनी किस्मत में ऐसा खुशगवार वक्त है कहॉं

मालूम है दो रोज़ में फिर फूटे गा, यह ज्वालामुखी

जिन की रोटी रोज़ी है यह कैस हो गेे इस बिन सुखी


सुन का उस की फरियाद दिल पर रहा न अपना काबू

सोचा हम भी सुना दें अपनी बात, क्यों दिल में रखूूं


कहा हम ने दीवाली का पर्व तो हर साल तुम मनाते

फिर इस पंचसाला महापर्व से हो तुम क्यों घबराते

आती हैं दीवाली, घर का कूडा करकट होता साफ़

इसी तरह महापर्व्र में निकलती दिल में बसी भड़ास

तुम समझते हो यह हैं एक दूसरे के घनघोर शत्रू

मगर दर असल हैं यह एक ही सिक्के के दो पहलू

इन की रोटी रोज़ी इस में हैं जनता को खेल दिखायें

इस लिये एक दूसरे पर बरसें, एक दूसरे को धकिआयें

खेल खत्म हो गा तो यह सब मिल बैठें गे इकजाह

फिर तमाशाई जायें जहुन्नम में, इन को क्या परवाह

मेरा मत है तुम भी इन के साथ ही यह पर्व मनाओ

खेल तमाशा है यह, मत धोके में कभी तुम आओ।


मित्र बोले, वैसे तो सही बात करते हो तुम अकसर

पर इस बार के महापर्व में खा गये तुम भी चक्कर

यह सामान्य तरह का तमाशा नहीं है अब की बार

यदि इस बार रह गये तो समझो हो गया बण्टादार

संविधान को बदलें या न बदलें नहीं इस का सवाल

पर अपनी नेया तो डूब ही जाये गी बीच मंझधार

नहीं है यह नूरा कुश्ती जैसे समझ रहे हो इसे आप

जीने मरने का संघर्ष यह, इसी लिये इतना घमासान

जो डूब गया वह कभी भी फिर नहीं उभर पाये गा

या खो जाये गा अंधेरे में या विदेश भाग जाये गा

हम ने भी देखे हैं चुनाव, कुछ कुछ समझ पाये हैं

इस बार अनोखा ही है सब, इसी लिये घबराये हैं।


बात तो जम रही थी उन की, समझा दे कर ध्यान

कुछ तो है अलग अलग इस बार का पूरा अभियान

पर फिर भी रह जाती है पूर्ववत ही यह मेरी बात

हम तो तमाशाई हें, न इस के न ही उस के साथ

अपनी कटे गी जेब कुछ भी हो इस का परिणाम

जनता तो बस बकरा, होना ही है उस का बलिदान

कहें कक्कू कवि, देखे तो अपनीे तो बात वही है पुरानी

सच कहती मंथरा, कोउ नृप भये हमें तो हानि ही हानि

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