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मण्डल में एक वर्ष

kewal sethi

 

 

 

 

मण्डल में एक वर्ष

 

 

 

 

 

 

 

 

 

केवल कृष्ण सेठी 

केविसा कर्मस्थली

नई दिल्ली

2025


 

मण्डल में एक वर्ष

 

एक अरसे से सोच रहा था कि मध्य प्रदेश शिक्षा मण्डल के बारे में अपने अनुभव सांझा करूँ। अधिक समय तो उस में नहीं रह पाया पर जितना समय था वह व्यस्त समय था। और उस के बारे में बताना उपयुक्त हो गा। आज तीस वर्ष के बाद इस के बारे में लिख रहा हूँ, उतना जितना याद है।

 

अमरीका में अवकाश बिताने के पश्चात जब वापस मध्य प्रदेश लौटा तो जिस पद से गया था, उस पर दूसरे की नियुकित हो चुकी थी और होना भी चाहिये थी क्योंकि वह महत्वपूर्ण स्थान था। उस में मैं केवल दो तीन महीने ही रह सका क्योंकि पूर्व्र से ही अमरीका जाने का कार्यक्रम तय था। वहाँ क्यों आया और कैसे आया, वह अलग कहानी है जिस का सम्बन्ध आज की बात से नहीं है।

 

लौटने के बाद मेरी नियुक्ति मध्यप्रदेश माध्यमिक शिक्षा मण्डल के अध्यक्ष पर की गई। मैं ने इस का पदभार 22 जून 1993 को ग्रहण किया।

मण्डल में वैसे तो एक प्रबन्ध मण्डल होता है जिस में जनता के, अध्यापकों के, शिक्षाविदों के प्रतिनिधि रहते हैं। वह ही मण्डल की नीति तय करते हैं। अध्यक्ष का कार्य उस की अध्यक्षता करना तथा उस के निर्णयों को कार्यान्वित करना है। पर जैसा कि सर्वविदित है शासकीय तौर पर नियुक्त अध्यक्ष उतना तटस्थ भी नहीं होता। वह नीति को काफी हद तक प्रभावित कर सकता है तथा पालन में भी थोड़ी स्वतन्त्रता रहती है। अस्थायी सदस्यों के लम्बे समय तक न रहने के कारण दैनिक क्रिया कलाप में हस्तचेप की सम्भावना कम हो जाती है।

 

जो हो, उस समय मण्डल की शासी परिषद को अधिक्षमित किया गया था तथा अध्यक्ष ही सर्वेसर्वा था। शिक्षा मन्त्री के नेतृत्व में वह अपना कार्य करने में स्वतन्त्र था। शिक्षा मन्त्री का दायित्व तो काफी विस्तृत होता है तथा शिक्षा मण्डल उन के लिये एक अल्प ध्यान का बिन्दू रह जाता है। यह कहने के साथ इस बात को भी कहना हो गा कि तत्कालीन शिक्षा मन्त्री अत्यन्त मृदू स्वभाव के थे। वह अवगुण जो आम नेताओं के बारे में बताये जाते हैं, उन में उन का अभाव था। पूरे काल में उन का समर्थन पूर्ण तौर से प्राप्त रहा जिस से कुछ सुधार कर सका।

 

इस से पहले कि मैं अपने कार्यकाल की बात करूँ, शिक्षा मण्डल के दायित्व के बारे में दो शब्द कहना उचित हो गा। माध्यमिक शिक्षा मण्डल का कार्य परीक्षा लेने का था। दसवीं तथा बारहवीं कक्षा की परीक्षा मण्डल द्वारा ली जाती थी जब कि नौवीं तथा गयारहवीं की परीक्षा में केवल परीक्षा पत्र केन्द्रीय स्तर पर बनाये जा कर विद्यालयों को प्रेषित किये जाते थे। उन का मून्यांकन स्थानीय विद्यालय ही करते थे। विद्यालयों को मान्यता देने का दायित्व भी मण्डल का था। इस के साथ ही उन के निरीक्षण तथा कार्यकलाप पर नज़र रखना भी उस की ज़िम्मेदारी थी। परीक्षा केन्द्र को निर्धारित करने का भी दायित्व था।

 

मण्डल में स्टाफ की भरमार थी। इस की एक स्वयं का प्रैस शाखा भी थी जिस में 200 व्यक्ति थे। फार्म इत्यादि छापने का कार्य इन में होता था। प्रमाणपत्र तो बाहर ही मुद्रित होते थे। प्रश्नपत्र तो गोपणीय होते हैं तो वह तो बाहर छपें गे ही। दो को छोड़ कर सभी मशीने पुरानी अप्रचलित थीं। शाखा का बिल 9 लाख रुपये का था और काम पाँच लाख रुपये का होता था। आधे से अधिक कर्मी निकाले जाने के काबिल थे। अधिकतर कर्मचारी रिश्तेदारी से आये थे, पात्रता से नहीं।

मण्डल के स्वयं की एक कालोनी थी जिस में 500 क्वार्टर थे। इन के रख रखाव के लिये याँत्रिक षाखा थी जिस के प्रमुख अधीक्षण यन्त्री थें। कम्प्यूटर षाखा भी थी जिस में एक सिस्टम एनालिस्ट, दस प्रोग्रामर, 40 डाटा एण्ट्री आपरेटर थे। उन्हें कुछ आता नहीं था। मण्डल में एक मात्र कम्पयूटर - ए टी 386 - था जो वित्त अधिकारी के पास था। सिस्टम अनालिस्ट को फोर जी पैकज का कोई ज्ञान नहीं था। कोबोल पढ़ा था और भूल गया था। किसी के पास डिप्लोमा तक नहीं है। उन का काम केवल बाहर किये गये कार्य की जाँच करना था। इस के बारे में आगे भी ज़िकर आये गा।

 

स्टाफ की भरमार के बावजूॅद यह माँग थी कि और व्यक्ति रखे जायें। सब से पहला प्रस्ताव सामने आया कि अभी हाल में नियुक्त भृत्यों का लिपिक बना दिया जाये। आवश्यकता है कि नहीं, इस पर कोई टिप्पणी नहीं। पर मेरे विचार में आया कि नव नियुक्त क्यों, पहले वाले क्यों नहीं। इस कारण प्रस्ताव का स्थगित रखने का कहा। जब कुछ दफतर का ज्ञान बढ़ा तो इस प्रस्ताव को खारिज ही कर दिया। आगे चल कर इन नव नियुक्त भृत्यो के बारे में एक और बात सामने आये गी जिस से इस प्रस्ताव की पृष्ठभूमि भी स्पष्ट हो गी।

 

एक और प्रस्ताव सामने आया। दिल्ली में भारतीय लोक प्रषासन संस्थान को कहा गया कि वह अध्ययन करे कि कार्यालयीन कार्य का आधुनिकरण कैसे किया जाये। तीन लाख रुपये का वायदा था और तीस हज़ार रुपये दे दिये गये थे। डाक शाखा के बारे में एक रिपोर्ट भी आ गई थी। संस्थान को इस की पात्रता थी कि नहीं, अब इतने समय के बाद मैं संस्थान से जुड़ा हुआ होने के कारण नकारात्मक उत्तर दे सकता हूँ। जो हो, मैं ने इस प्रस्ताव को समाप्त कर दिया। यह नहीं कि आधुनिकरण अथवा युक्तिसंगतिकरण की आवष्यकता नहीं थी पर अनुभव यह बताता था कि प्रस्ताव स्टाफ में कटोती का हो गा तथा यह श्रम संघ को स्वीकार नहीं हो गा। प्रतिवेदन जो आये गा, वह केवल अल्मारी का स्थान ही घेरे गा।

 

एक और प्रस्ताव था कि जो षालायें पाँच से नौ वर्ष तक मान्यता प्राप्त हैं, उन का स्थायी मान्यता दे दी जाये। कितनी षालाओं ने आवेदन दिया, यह कार्यालय नहीं बता पाया। कोई सिस्टम था ही नहीं। इस कारण यह प्रस्ताव भी ठण्डे बस्ते में डाल दिया। बाद में जबलपुर के एक विद्यालय के सर्वेसर्वा जो विधायक भी रह चुकी थीं, ने यह प्रस्ताव किया। तब तक थोड़ा मण्डल का अनुभव हो गया था, इस कारण मान्य नहीं किया। कुछ समय बाद मुख्य सचिव ने भी उसी भाषा में वैसा ही प्रस्ताव किया किन्तु उन्हें बताया कि यह प्रस्ताव क्यों अव्यवहारिक हो गा। इस कारण प्रस्ताव प्रस्ताव ही रहा। समय समय पर वृद्धि से षाला में फनीर्चर, अध्यापक इत्यादि को सर्वे सर्वा पूरा करते थे। स्थायी मान्यता में पिरीक्षण तो हो सकते थे किन्तु मान्यता रद्द करना कठिन थी। कोई अदालत स्थगन आदेष दे दे और फिर वर्षों तक प्रकरण चलता रहे।

 

कितनी अफरा तफरी थी, यह एक धटना से पता चले गा। गणित, भौतिकशास्त्र तथा प्राणिशास्त्र में अध्यापकों का प्रशिक्षण था। यह प्रशिक्षण मेरे पूर्वाधिकारी एस सी जैन द्वारा आरम्भ किया गया था। इस के लिये सम्बन्धित शालाओं से शुल्क भी लिया गया था। प्रशिक्षण के अन्त में परीक्षा ली जाना थी और प्रमाणपत्र दिये जाना थे। मेरे आने पर इस के बारे में बताया गया तो मैं ने कहा कि परीक्षा की बात गलत है। सेवा में जो प्रशिण दिया जाता है, उस में केवल उपस्थिति की बात होती है। बताया गया कि परीक्षा पत्र तो बन चुके हें तथा परीक्षा भी हो रही है। मेरा कहना था कि परीक्षा होती रहे पर प्रमाणपत्र में ग्रेडिंग नहीं होना चाहिये। समय प्रमाणपत्र वितरण का ढाई बजे था पर बताया गया कि श्री जैन प्रंमुख अतिथि हों गे और वह उस समय नहीं आ पाये गे अतः समय को चार बजे कर दिया गया है। चलिये, यह भी सहीं। ख्नाना खा कर जब लौटा तो प्रमाणपत्र मेरे हस्ताक्षर के लिये मेज़ पर थे। पर उन में ग्रेडिंग थी। जब इंचार्ज दूबे से पूछा तो उस ने कहा कि सचिव ने कहा है, ऐसे ही चलने दिया जाये। सचिव को बुलाया और कहा कि मेरा आदेश सचिव द्वारा नहीं बदला जा सकता है। नतीजा यह हुआ कि प्रमाणपत्र वितरित नहीं किये जा सके। उन्हें बाद में भेजा जाये गा, बताया गया। कहने का अर्थ यह कि सभी अधिकारी अध्यक्ष को केवल शोभा की बात मानते थे अैर निर्णय स्वयं लेना चाहते थे। मैं ने इस पर पूर्ण रोक लगा दी। पर शायद पूर्व में यह प्रथा रही हो। 

 

पूरी व्यवस्था ही अटपटी थी। प्रशिक्षण के पश्चात प्रशिक्षणार्थियों ने लौटने के लिये आरक्षण भी गाड़ियों में करा लिया था। कार्यक्रम विलम्ब से आरम्भ हुआ तो उसे छोटा कर देना था ताकि उन का प्रोग्राम न बिगड़े लेकिन मुख्य अतिथि श्री जैन एक घण्टे तक बोले।

 

अनुशासन हीनता का एक ओर उदाहरण बताना उचित हो गा। एक कर्मचारी का स्थानान्तर होशंगाबाद किया गया था किन्तु वह वहाँ जाता ही नहीं था। जाता भी था तो अपनी सुविधा के हिसाब से। जब उसे नोटिस दिया गया तो उस ने कहा कि वह समय पर आने से बेहतर त्यागपत्र देना पसन्द करे गा। गल्ती उस ने यह की कि यह बात उस ने लिखित में दे दी। मुझे और क्या चाहिये था, तुरन्त उस का त्यागपत्र स्वीकार कर लिया। हल्ला तो मचा पर यह सन्देश गया कि ज़यादा होशियार बनना उचित नहीं हो गा।

 

दो दिन दफतर में घूम कर देखा और मेरा माथा घूम गया। इतना कचरा सब और फैला हुआ था, कमरों में, बरामदे में, मेज़ों के ऊपर, मेज़ों के नीचे। सीढ़ियों में, सीढ़ियों के नीचे। रद्दी बिक चुकी थी पर खरीदारों द्वारा अभी उठाई नहीं गई थी। वित्त शाखा में तीस साल पुराने रजिस्टर और टी ए बिल। और गत वर्षों के फार्म तो इफरात में थे। सफाई्र का यह हाल था कि सवा दस बजे सफाई चल रही थी (दफतर दस बजे खुल जाता था) पर लिपिक भी तो आराम से आ रहे थे। क्षेत्रीय कार्यालय जो सम्बद्ध था, में साढ़े दस बजे बीस में से दो व्यक्ति आ पाये थे। एक बार तो पता चला कि एक शाखा का स्टाफ दफतर बन्द होने के समय से डेढ़ घण्टा पहले ही चल दिया। उन का बहाना कि वर्षा होने का डर था।

 

मैं ने एक स्थान पर लिखा है कि मैंने एक सूची बनाई थी कि मण्डल में क्या कया काम करने हैं। इस में 37 बिन्दु थे। सूची उपलब्ध नहीं हैै परन्तु इन में से मैं शायद चार पाँच ही कर पाया हूँ गा।

 

दफतर की बात छोड़ें तो यह बताना उचित हो गा कि आयुक्त शालेय शिक्षा ने एक साथ 300 विद्यालयों को नई कक्षायें खोलने की अनुमति दे दी। मण्डल का दायित्व था कि वह देखे कि पूरी कक्षाओं के लिये सुविधा उपलब्ध है अथवा नही। और जो हालत बोर्ड की थी, उस में कहा नही जा सकता था कि जाँच कब तक पूरी हो पाये गी। इस प्रकार यह नई कक्षायें बिना किसी निरीक्षण के आरम्भ हो गई्। 

 

मण्डल की खासियत यह थी कि इस के पास काफी अधिक पैसा था। पाँच करोड़ रुपये यू टी आई में जमा थे। लगभग तीन करेाड़ रुपये बैंकों में जमा थे। आमदनी अधिक थी, व्यय कम। बैंक में जमा राशि का नवीनीकरण होता रहता था। 

 

मैं ने अध्यक्ष, मध्य प्रदेश माध्यमिक शिक्षा मण्डल का कार्यभार जून 1993 को ग्रहण किया। किन्तु मेरा परिचय उस से पूर्व में हो चुका था। हुआ यह था कि एक वर्ष पूर्व बारहवीं कक्षा का प्रश्नपत्र लीक हो गया था। उस के बारे में जाँच करने का कार्य मुझे सौंपा गया था। इसी सिलसिले में मण्डल के कार्य का अध्ययन करना पड़ा। उस समय पाया गया कि जबलपुर में एक नया परीक्षा केन्द्र मान्य किया गया था। एक मार्च को परीक्षा आरम्भ होना थी तथा 28 फरवरी को इस के बारे में आदेश हुये। तुरन्त ही उस में बैठने वाले परीक्षाथियों की सूची तैयार हुई। किन विषयों में वह बैठें गे, यह देखा गया। उस के आधार पर विभिन्न विषयों के कितने कितने प्रश्न पत्र रखे जाना है, यह तय किया गया। इन्हें तिथिवार अलग अलग लिफाफों में रखा गया। साथ में उत्तर पुस्तिकायें भी रखा गईं।

 

यह सारे काम एक ही दिन में किये जाना थे। पूरा दिन इस में व्यतीत हो गया। उस जल्दी में कितने प्रश्नपत्र रखे गये, यह गौण बात थी। कम नहीं पड़ना चाहिये, यही काफी था। इन सब को करने के पश्चात रातों रात विशेष टैक्सी द्वारा उन्हें जबलपुर रवाना किया गया। कौन सा लिफाफा खुला रह गया। किस ने उस में से परीक्षापत्र निकाले, यह सब तो पता नहीं चल सका। मेरा दायित्व तब केवल यह देखने का था कि प्रक्रिया में क्या कमी रह गई। इस के आधार पर मैं ने अपना प्रतिवेदन दिया ओर भविष्य के लिये सावधानी बरतने के तौर तरीके भी सुझाये। उस समय यह ज्ञात नहीं था कि मुझे ही उन को लागू करने का दायित्व भी निभाना पड़े गा। सौभाग्यवश वह सभी अनुशंसायें व्यवहारिक थीं और जब उन पर कारर्ववाई करने का अवसर आया तो कोई कठिनाई नहीं हुई।

 

यॅूँ तो कई बातें हैं मण्डल के बारे में बताने की हैं पर इन्हें सिलसिलेवार बताना कठिन हो गा। इस कारण जो याद आ गया, उसी को पहले लिया जाना उपयुक्त हो ग।

 

बात हो रही थी जबलपुर में रातों रात परीक्षा केन्द्र स्थापना की। वह तो खैर एक चरम सीमा की बात थी पर नये नये परीक्षाकेन्द्र स्थापित कराना आम बात थी। तथा वह भी नियत तिथि के बाद। और प्रदेशों की तरह मध्य प्रदेश में भी परीक्षाओं में नकल करने की परम्परा थी। इस कारण अपनी पसन्द का परीक्षा केन्द्र बनवाना, उस में अपनी पसन्द के पर्यवेक्षक रखना इस नकल अभियान के प्रमुख अंग थे। समय समय पर नकल के प्रकाण सामने आते रहते थे तथा इन के आधार पर परीक्षाकेन्द्र की मान्यता रद्द करने की प्रक्रिया भी चलती रहती थी। तब उन को फिर से स्वीकृत कराने के लिये सब तरह के हथकण्डे अपनाये जाते थे। छात्रों की कठिनाई, उन की परीक्षा केन्द्र से दूरी की बात, पर्यवेक्षकों का अभाव इत्यादि कई कारण गिनाये जाते थे। उस के बाद सिफारिशों का सिलसिला आरम्भ होता था। स्थानीय विधायक, अन्य नेता गण, मन्त्रीगएा इत्यादि सभी को इस प्रयास में शामिल किया जाता था। धार्मिक गुरुओं को भी इस में लाया जाता था। उन से ग्राम की प्रतिष्ठा की बात की जाती थी। दमोह ज़िले में एक ग्राम पथरिया में वहाँ के धर्म गुरू में केन्द्रीय मन्त्री श्री विद्याचरण शुक्ल की श्रद्धा थी। इस कारण स्थानीय प्राचार्य द्वारा धर्मगुरू के माध्यम से मन्त्री जो को भी सिफारिश करने के लिये कहा गया। इस बदनाम परीक्षा केन्द्र को स्थापित करने की सिफारिश आई भी किन्तु मैं ने उस को अस्वीकार कर दिया। पथरिया नकल के मामले में बहुत बदनाम था और मैं मुख्य मन्त्री को मना सका कि वहाँ केन्द्र ्रनहीं खाला जा सकता है। वास्तव में नियत तिथि के बाद एक भी केन्द्र स्वीकार नहीं किया गया। एक किस्सा बताना संदर्भित हो गा। मकरन्नद सिंह की बेटी की शादी में गया। उस में मुख्य मन्त्री श्री दिगविजय सिंह भी आये थे। बारात की प्रतीक्षा में बैठे थे तो मुख्य मन्त्री जी ने कहा कि मुझे नहीं पता था कि परीक्षा केन्द्रों में इतनी राजनीति हो गी। कितनी ही सिफारिशें आई्रं केन्द्र खोलने के लिये पर मैं ने भेजी नहीं आप को’’। मैं ने धन्यवाद दिया और सोचा कि अच्छा हुआ नहीं तो बदमज़गी होती क्योंकि मुझे तो इंकार करना था।

 

अपनी जाँच में मैं ने पाया था कि इसी हडबड़ी में बनाये केन्द्र के कारण ही समस्या उत्पन्न हुई थी। इस के अतिरिक्त ऐसी सिफारिश द्वारा स्थापित केन्द्र पर नियन्त्रण करना स्थानीय अधिकारियों द्वारा कठिन होता था। इन में कलैक्टर भी शामिल थे।

 

स्थानीय राजनैतिज्ञों द्वारा विद्यालय तथा महाविद्यालय स्थापित कराने की भी एक परमपरा है। मुझे रीवा में कलैक्टर पद पर नियुक्त रहते समय इस की अनुभूति हुई। हर विधायक तथा हर भावी विधायक अथवा हर विधायक बनने की इच्छा रखने वाले नेता का एक या अधिक विद्यालय या महाविद्यालय थे। आजकल जो विद्यालय स्थापित किये जाते हैं, वह अधिकतर नगरों में होते हैं तथा पूर्णतः व्वसायिक दृष्टि से खोले जाते हैं परन्तु यह विद्यालय दूसरे कारणों से खोले जाते थे। शाला आरम्भ की, उस में अपने समर्थकों को भर्ती किया। कुछ समय पश्चात दबाव ला कर शासन से आदेश करा लिये कि इस विद्यालय का सरकारीकरण हो गा। अध्यापक वही रहे। सरकार उन को वेतन देती और वह नेता के राजनैतिक कार्यकर्ता रहते।

 

नकल कराने के पीछे दो कारण थे। अध्यापकों को पढ़ाने का अनुभव तो होता नही ंथा। वह अप्रशिक्षित भी हो सकते थे या नाम भर के प्रशिक्षित थे। लेकिन शाला का परिणाम तो अच्छा होना चाहिये। ऐसा न हो कि इस ओर अधिकारियों की कुदृष्टि  जाये। दूसरे नकल कराने के लिये विशिष्ट शालायें थी। यूँ तो सभी ज़िले इस में संलग्न थे किन्तु भिण्ड मुरैना ज़िले अधिक बदनाम थे। इस में कार्यपद्धति ऐसी थी कि किसी अन्दर के गाँव में परीक्षा केन्द्र खुलवाया जाता था, जहाँ पर अधिकारियों द्वारा निरीक्षण की सम्भावना कम रहती थी। हरयाणा, पंजाब इत्यादि में बच्चों को दाखिला दिया जाता था तथा उन को पास होने की गारण्टी दी जाती थी। परीक्षा के दिनों में उन्हें बसों में भर कर केन्द्र तक पहुँचाया जाता था और फिर वहाँ पर बाकायदा प्रश्नपत्रों के उत्तर लिखवाये जाते थे। स्थानीय अध्यापकों तथा प्रधानााध्यापक के साथ तो भागीदारी रहती ही थी। ऐसे बच्चों को किसी भी नाममात्र के स्कूल में दाखिला फरवरी माह तक दिया जाता था जब कि परीक्षा मार्च में होना तय थी।

 

वैसे सामान्य नियम यह थे कि शालाओं में भर्ती बच्चों की जानकारी जुलाई अगस्त में दाखिले के तुरन्त बाद में दी जाना होती थी। उन के परीक्षा सम्बन्धी फार्म पहुँचने की तिथि 30 नवम्बर रखी गई थी। उस के आधार पर कहाँ पर परीक्षा केन्द्र बनाये जाना है, यह तय किया जाता था। इस व्यवस्था से कहाँ किस विषय में कितने बच्चे परीक्षा में बैठें गे, पता चलता था और उसी हिसाब से प्रश्नपत्र पैक बरवाये जाते थे। सावधानी के तौर पर कुछ प्रतिशत तक अतिरिक्त प्रश्न पत्र मुद्रित कराये जाते था ताकि कमी न पड़े।

इस सब क्रियाकलाप का पता उस जांच में लगा जो मैं ने पिछले वर्ष जबलपुर में प्रश्नपत्र लीक होने के सम्बन्ध में की। अतः मैं ने यह निर्णय लिया कि 30 नवम्बर के बाद कोई परीक्षा हेतु फार्म नहीं लिया जाये गा। दिसम्बर के बाद कोई नया परीक्षा केन्द्र नहीं खोला जाये गा। इस निर्णय का दृढ़ता से पालन किया गया। प्रयास तो हुये कि दबाव ला कर केन्द्र खुलवाये जायें और परीक्षा फार्म लिये जायें पर मैं केवल इंकार करता गया। मेरी ख्याति अथवा बदनामी तथा ज़िद्दी प्रकृति की जानकारी सभी को थी इस कारण नेता भी सिफारिश करते झिझकते थे। इस कार्य में मुझे शिक्षा मन्त्री जा से पूर्ण सहयोग मिला। अधिकतर आवेदन वहीं पर रुक जाते थे।

 

पर एक किस्सा मुझे याद हैं। हरयाणा से एक सज्जन (सज्जन तो कहना ही पड़े गा) आये और एक नेेता के साथ मिले ओर माँग की कि उन के फार्म स्वीकार किये जायें। मैं ने इंकार कर दिया तो उन्हों ने धमकी दी कि कैसे नहीं करें गे, देख लूँ गा। तीसरे दिन वह अपने आवेदन पर मन्त्री जी के आदेश लिखवा कर ले आये। देते हुये बोले कि अब देखता हूँ, कैसे नहीं करते हो। मैं ने आवेदनपत्र देखा। उस पर मन्त्री जी ने केवल इतना लिखा था - ‘‘विचार किया जाये’’। मैं ने उन सज्जन को बताया कि मन्त्री महोदय के आदेश का पालन किया जाये गा। उन का कहना है कि विचार किया जाये। मैं ने विचार कर लिया है और आवेदन को अस्वीकार कर दिया है। उस के बाद वह दौबारा नहीं आये।

 

जिन परीक्षा केन्द्रों में पूर्व में नकल कराने के प्रतिवेदन आये थे, उन्हें बन्द करने का निर्णय लिया गया। काफी केन्द्र बन्द हो गये तथा वहाँ के छात्रों को पास के केन्द्रों में समायोजित किया गया। इन में रीवा ज़िले का जवा केन्द्र भी शामिल था। जवा के विद्यालय विधायक तिवारी जी द्वारा संचालित था। जवा केन्द्र काफी अन्दरूनी इलाके में थो तथा शायद ही उस का निरीक्षण कभी होता हो। जब मैं कलैक्टर रीवा था तो उस केन्द्र तक पहुँचने में सफल हो गया। उस ज़माने में कलैक्टर की जीप को पहचाना जा सकता था तथा उस इलाके में जीप वैसे भी कम ही पहुँच पाती थी। कलैक्टर की जीप देखते ही केन्द्र की ख्रिड़कियों से दरवाज़ों से पुस्तकें बाहर फैंंकी जाने लगीं। लगभग दो कविण्टल किताबें हम वहाँ से लाने में सफल हुये। इस व्यक्तिगत जानकारी के कारण तथा अन्य प्रतिेवेदन के अनुसार जवा केन्द्र भी बन्द की दिया गया। तिवारी जी उस समय विधान सभा अध्यक्ष बन गये थे। मेरी ख्याती अथवा बदनामी के कारण वह मुझे सीधे तो कुछ नहीं कह पाये। जब मैं कलैक्टर रीवा था तो वह उस समय सहकारी बैंक के अध्यक्ष थे। वसूली तो ऋएा की हो ही नहीं पाती थी। उस बैंक को बन्द करने की स्थिति आ गई थी तथा केन्द्रीय बैंक से ऋण देना बन्द कर दिया गया था। उस समय उन्हों ने मेंरे से इस विपत्ति को दूर करने के लिये कहा था। मैं ने उन से उस समय केवल इतना कहा कि वह हो जाये गा पर उन्हें मेरे काम में हस्तक्षेप नहीं करना हो गा, किसी की सिफाशि नहीं करना हो गी। परिणामतः मैं ने अपने साम दाम दण्ड भेद से वसूली अभियान आरम्भ किया अैर एक वर्ष में ही आँकड़ा इस सीमा तक पहुँच गया कि केन्द्रीय सहारी बैंक से ऋण मिलना आरम्भ हो जाये। इस बात का उन्हें ध्यान था और स्मभवतः इसी कारण हस्तक्षेप नहीं कर पाये।

 

पर रास्ते और भी हैं। रीवा ज़िले से ही एक और विधायक थे शर्मा जी। उन का नाम बेशर्मी से जुड़ा हुआ था। ज़बान के बेहद खराब। तिवारी जी ने उन से कहा तथा उन से विधान सभा में एक ध्यान आकर्षण प्रस्ताव लिवाया गया कि केन्द्र बन्द होने से छात्रों को असुविधा हो रही है अतः रीवा ज़िले के केन्द्रों को तुरन्त मान्यता दी जाये। उसी सत्र में एक और ध्यान आकर्षण प्रस्ताव भी था। उसे बिज़नैस एडवाईज़री कमेटी ने पहले नम्बर पर रखा था। इस पर विधान सभा में बहस हुई। विधान सभा का नियम था कि एक बैठक में एक ही ध्यान आकर्षण प्रस्ताव लाया जा सकता है। किन्तु अध्यक्ष ने अपनी डिसक्रीशन का इस्तेमल कर शर्मा जी के प्रस्ताव को भी स्वीकार कर लिया तथा उस पर चर्चा हुई।

 

जैसे कि उम्मीद थी, श्री शर्मा ने जम कर लताड़ा। सब तरह के तानाशाही के आरोप लगाये। शिक्षा मन्त्री जी ने समर्थन में बोला जो अपेक्षित ही था। उन्हों ने कहा कि अध्यक्ष ने उन्हें आश्वस्त किया है कि वह अगले वर्ष केन्द्रों की संख्या बढ़ाने पर खुले दिल से विचार करें गे किन्तु इस बार नये केन्द्र बनाना व्यवस्था को चुनौती दे गा, इस कारण मजबूरी है। इस चर्चा में जो अनापेक्षित था, वह था दो भाजपा के विधायकों द्वारा समर्थन। आम तौर पर शासन को तथा शासकीय अधिकारी को हड़काने में विरोधी पक्ष के नेता तथा विधायक कसर नहीं छोड़ते किन्तु मेरे पक्ष में भोपाल के विधायक, एक नहीं दो, बोले। उन के तर्क क्या थे, यह शायद आगे आये गा।

 

जैसा कि पूर्व में कहा है, मण्डल में पैसे का अभाव नहीं था। वास्तव में बहुत सी रकम तो बैंकों में मियादी जमा में थी जिस का व्याज आता था। जब मैं ने कार्यभार ग्रहण किया तो यह सोचा था कि जाने से पूर्व इस वित्तीय स्थिति को ठीक करूँ गा बल्कि यह कहा कि इस मण्डल को  दिवालिया करूँ गा। एक वर्ष में यह सम्भव नहीं था और दूसरे वर्ष मुझे एक अन्य पद पर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। परन्तु मेरे एक उत्तराधिकारी ने बड़े आराम से ऐसा किया। बात सीधी से थी। मण्डल को प्राविडैण्ट फण्ड में अपना योगदान भी देना होता था और कर्मचारियों का पैसा भी जमा कराना होता था। पर ऐसा कई वर्षों तक नहीं किया गया। मेरे उत्तराधिकारी ने पूरी देय राशि दे दी तथा मण्डल उस स्थिति में आ गया जहाँ कोई अतिशेष राशि उपलब्ध नहीं होती थी। मुझे खेद है कि में ऐसा नहीं कर पाया पर मेरे पास बहाना है कि इस पक्ष की ओर देखने का अवसर ही नहीं मिला।

 

इसी में मुझे एक बात याद आ गई। पैसा इफरात में था। उसे कहीं रखना तो था। बैंकों में मियदी जमा करा दी। व्याज आता रहे गा। यह कार्य हमारें वित्त अधकारी देखते थे। औपचारिक स्वीकृति तो मेरी रहती ही थी पर इस ओर अधिक ध्यान नहीं दिया। पैसा है, कहीं तो रखना है। इस बैंक में या उस बैंक में। इसी में एक बार विजया बैंक में राशि जमा कराई गई। वहाँ के प्रबंधक ने उपहार स्वरूप एक क्रैडिट कार्ड दे दिया। निशुल्क। उस के लिये एक खाता भी प्रबंधक ने आ कर खुलवा दिया। विजया बैंक की भोपाल मे ंएक मात्र शाखा मेरे घर से दस एक किलो मीटर तो हो गी। वहाँ जाना होता ही नहीं था। फिर मेरा तबादला हो गया। दो ढाई साल बाद लौटा तो क्रैडिट कार्ड के तीन साल, जो निशुल्क थे, समाप्त हो गये थे। अब अध्यक्ष तो था नहीं जो समयावधि बढ़ाई जाती। 500 रुपये प्रति वर्ष चार्ज लगना आरम्भ हो गया, उस क्रैडिट कार्ड पर जिस का मैं ने जारी होने के समय से एक बार भी इस्तेमाल नहीं किया था। खैर, उस को कैन्सल किया और खाता भी बन्द किया। यह प्रासंगिक लाभ होते हैं मण्डल की अच्छी वित्तीय स्थिति होने के। परन्तु मेरी तो हानि ही हुई, लाभ नहीं हुआ।

 

मण्डल की वित्तीय स्थिति इतनी अच्छी क्यों थी, इस के पीछे एक कारण और था। मण्डल ने किसी समय यह निर्णय ले लिया कि हर वर्ष परीक्षा शुल्क इतने प्रतिशत बढ़ाया जाये गा। परीक्षकों को तथा उत्तरपुस्तिकाओं को देने वाली राशि के बारे में निर्णय लेना पड़ता था जो प्रति वर्ष सौदेबाज़ी का विषय रहता था पर परीक्षा शुल्क स्वयंमेव बढ़ जाता था। सब से प्रथम मैं ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया। परीक्षा शुल्क में उस वर्ष कोई वृद्धि नहीं हुई। कर्मचारी इस से नाराज़ तो हुये परन्तु उन पर सीधा प्रभाव तो नहीं पड़ता था, इस कारण कुछ कह नहीं पाये। अच्छी वित्तीय स्थिति का हवाला दे कर अपने भत्ते बढ़ाने की बात तो होती ही थी। एक और कदम का ज़िकर आगे आये गा। एक काम और किया कि पत्र व्यवहार पाठ्यक्र्रम में प्रवेश में लड़कियो के लिये फीस आधी कर दी।

 

‘‘हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’’, यह श्रमिकों का प्रिय नारा है। ज़ुल्म है या नहीं, इस से सम्बन्ध नहीं है। उन्हें लगता है कि प्रबन्धक सदैव उन के विरुद्ध हैं तथा यह भी स्वाभाविक ही है कि जितना अधिक मिल सके, उतना लेना चाहिये या लेने का प्रयास करना चाहिये। इस दृष्टिकोण के कारण हड़ताल एक सामान्य गतिविधि थी। हड़ताल भी उस समय पर करना चाहिये जब प्रबन्धक दबाव में हों तथा पूरी तरह से मुकाबले को तैयार न हों। मण्डल में यह अवसर वर्ष में दो बार आता था। एक उस समय जब परीक्षा केन्द्रों को प्रश्नपत्र तथा उत्तरपुस्तिकायें भेजना होती थी। और दूसरा अवसर था परीक्षा के परिणाम घोषित करने के समय। इन दोनों का व्यापक प्रभाव छात्रों पर पड़ता था तथा उन्हें शासन द्वारा पीड़ित करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। इस कारण प्रबन्ध मण्डल दबाव में आ जाता था तथा कुछ रियायत दे कर स्थिति सम्भाली जाती थी।

 

यह अवसर उस वर्ष भी आया। परीक्षा के प्रश्नपत्र भेजने के समय। गोपनीयता को ध्यान में रखते हुये मुद्रांकों से प्रश्नपत्र परीक्षा की तिथि से कुछ दिन पूर्व ही मंगाये जाते था। परीक्षा आरम्भ होने के कुछ दिन पूर्व प्राप्त बोरों को खोल कर विषयवार तथा परीक्षा केन्द्र वार बण्डल बनाये जाते थे। इन्हें सील किया जाता था तथा ट्रकों द्वारा ज़िलों में परीक्षा केन्द्रों को भेजा जाता था। इस समयबद्ध कार्य को करने के लिये दो स्ट्रांग रूम मण्डल भवन में थे। एक दसवीं कक्षा के लिये और दूसरा बारहवीं कक्षा के लिये। यह कार्य जब आरम्भ होता था तो देर रात तक चलता था ताकि यथा शीघ्र इसे पूरा किया जा सके। इस गोपणीय कक्ष में आने जाने के लिये बाकायदा जाँच पड़ताल की जाती थी ताकि कोई प्रश्नपत्र बाहर न ले जाया जा सके।

 

इस बारे में आगे और बात हो गी पर अभी की बात है इस मौके पर हड़ताल का नोटिस देने की। माँग वही कि वह अतिरिक्त राशि जो परीक्षा गोपणीय कक्ष में काम करने के लिये दी जाती है, को बढ़ाया जाये। मेरे विचार में यह पूर्व में ही बहुत अधिक थी और बढ़ाने का कोई अवसर नहीं था। हर कर्मचारी को एक माह का वेतन या एक हज़ार रुपये जो भी कम हो, मिलता था। खाना तो मिलता ही था। इसे कैेसेे कम किया जा सकता है, यह सोचा जाना चाहिये। इस लिये माँग को अस्वीकार करना स्वाभाविक था। उस के पश्चात वही ‘‘ज़ोर ज़ुल्म के टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’’। कठोर कार्रवाई करने से पूर्व वरिष्ठ स्तर पर अनुमति लेना आवश्यक थी क्योंकि छात्रों की बात बीच में आ जाती थी। मुख्य मन्त्री से बात की। उन का राजनैतिक दु्ष्टिकोण से दिया गया परामर्श अपनी जगह सही था। वह पूर्णतः मेरे साथ कठोर कार्रवाई से सहमत थे पर छात्रों को कोई कष्ट नहीं होना चाहिये। अर्थात आमलेट बनाने में कोई आपत्ति नहीं है पर अण्डा नहीं फूटना चाहिये।

 

इस स्थिति में वार्तालाप और लचीलापन ही एक मात्र रास्ता था। परीक्षा सिर पर थी और विलम्ब किया नहीं जा सकता था। वार्तालाप में दोनों  ओर से दो दो व्यक्ति होना आवश्यक है। अधिक भी हो सकते हैं पर न्यूनतम संख्या तो दो है। एक जो कड़ा रुख अपनाये और दूसरा जो उसे कछ नरम बनाने का प्रयास करें। दोनों और से यही प्रयास रहता है। आखिर में समझौता हो ही जाता है। जब एक पक्ष को बताया गया हो कि उसे समझौता करना ही है जो इस स्थिति में मैं ही था, थोड़ी बहुत रियायत प्राप्त की जैसे सभी को एक हज़ार नहीं मिलें गे। स्ट्रांग रूम में जितना समय कार्य किया है, उसी अनुपात में ही राशि दी जाये गी और उन्हीं को जो वास्तव में स्ट्रांग रूम में कार्य करें गे।

 

मझे बताया गया कि स्ट्रांग रूम का कार्य बहुत जटिल है। चारों ओर धूल मिट्टी। तपेदिक होने का भी खतरा रहता है। सब कार्य निम्न कर्माचारियों को करना पउ़ता है। अध्यक्ष तो कभी झाँक कर भी नहीं देखते। बाहर से ही देख लेते है। अन्दर आने की हिम्मत नहीं पड़ती। मेरा कहना  था कि मैं रात के एक बजे तक उन के साथ रहूँ गा। और ऐसा किया भी। खैर समझौता हो गया और हड़ताल टल गई। मुझे संतोष था कि कुछ देना नहीं पड़ा। पूर्ववत ही राशि देय रही बल्कि कुछ बची ही।

 

परीक्षापत्र 25 25 के लिफाफों में सील बन्द हो कर बोरों में भर कर आते थे। उन्हें खोला जाता था, गिना जाता था और फिर वाँछित संख्या में लिफाफे परीक्षा केन्द्र वार जमाये जाते था। और जब विषयों के इकठ्ठे हो जाते थे तो बड़े संदूकों में भर कर ट्रकों से रवाना किया जाते थे। इसी के साथ उत्तर पुस्तिकायें भी भेजी जाती थीं। काफी ट्रक लगते थे।

 

तो जब काम शुरू हुआ तो मैं स्ट्रांग रूम में था। वाकई धूल का साम्राज्य था। बोरे खोलने में मिट्टी तो उड़ती ही थी। चपड़ासी झाड़ू लगा कर मिट्टी को इकठ्ठा करते थे। उस से धूल और उड़ती थी। समस्या का समाधान बल्किुल आसान था। न जाने पहले किसी अध्यक्ष ने क्यों नहीं सोचा। शायद,  जैसा बताया गया था, वह आ कर देखते नहीं थे। मैं ने इंजीनियर को कहा कि तुरन्त बाज़ार जा कर दो बड़े वैक्यूम कलीनर ले कर आयें। आधे धण्टे में आ गये और धूल समाप्त। उड़ने का प्रश्न ही नहीं।

 

परीक्षा पत्र तथा उत्तरपुस्तिकायें भेजने का कार्य वर्ष में दो बार होता था। वार्षिक परीक्षा के समय तथा पूरक परीक्षा के समय। उस के लिये काफी संख्या में मज़दूर लगते थे। बार बार होने वाले इस कार्य के लिये ठेकेदार थे तथा वही वही मज़दूर हर बार आते थे। वह इस कार्य में दक्ष हो गये थे। पता नहीं क्यों मेरे पूर्वाधिकारी को यह सूझी कि जब वह बार बार आते हैं तो उन्हें स्थायी रूप से ही रख लिया जाये। इस प्रकार के आदेश जारी हो गये तथा वह बड़ी संख्या में वह मज़दूर मण्डल के कर्मचारी बन गये। कहने वाले कहते हैं कि यह इतना सीधा मामला नहीं था। स्थायी रूप से रखने के पीछे बड़ी रकम थी। हो गा या नहीं हो गा। बहर हाल वह हमारे साथ थे। पूर्व् में मैं ने ज़िकर किया है इन नव नियुक्त भृत्यों को लिपिक बनाने के सुझाव का। इस पूरी बात में पुष्टि स्वाभाविक है।

 

जब ट्रकों में सामान लादने का समय आया तो हमारे अधीक्षण यन्त्री ने आ कर बताया कि वह प्रति बोरा तीन रुपये मज़दूूरी चाहते हैं जो उन्हें हर बार मिलती थी। मुझे बहुत हैरानी हुई। अभी एक साल भी नहीं हुआ था उन्हें नौकरी में आये और वह आये भी थे इस कारण कि वह यह काम करते थे और उन्हें रखा भी गया था इसी काम के लिये। मैंने साफ इंकार कर दिया।

 

अधीक्षण यन्त्री गया और दस मिनट में लौट आया और बताया कि वह दो रुपये पर राज़ी हो रहे हैं। मेरा  जवाब था कि एक पैसा भी नहीं मिले गा। काम बाहर के मज़दूरो से करा लिया जाये गा। साथ ही उसे और सचिव को कहा कि इन को काम पर रखने वाली फाईल निकाल कर लायें। नियुक्ति तो अग्रिम आदेश तक ही होती है। उस से पहले पद निर्मित होते हैं, वह कब हुये, यह भी देखें। हुये भी कि नहीं।

 

दस मिनट के अन्दर यह सब जानकारी तो नहीं आई पर यह इत्तलाह की गई कि वह बिना किसी मज़दूरी के काम करने को तैयार हैं। उस के बाद काम आरम्भ हो गया। ट्रक अपने अपने ज़िलों को जाने लगे।

 

मैं ने कहा था कि यह लेख तिथिवार नहीं लिखा जा रहा है। जो बात याद आ गई वह उसी क्रम में लिख दी। तो अब बात करते हैं उत्तपुस्तिाओं की। मण्डल द्वारा कागज़ खरीदा जाता था। फिा उसे प्रिण्टर्स को दिया जाता था जिस से वह उत्तरपुस्तिकायें तैयार करते थे। प्रत्येक उत्तरपुसितका 9 इंच बाई 12 इंच की होती थी या होना चाहिये थी। साल दर साल ठेका उन्हीं प्रिण्टरों को मिलता था। इस वर्ष दर तय हुई 45 रुपये प्रति हज़ार। कागज़ को काटना और उन्हें स्टेपल लगाना, इतना सा तो काम था।

 

कागज़ कितना खरीदा जाता था, इस का पता लगाया गया। पिछले वर्ष 1000 टन खरीदा गया था। उस में भी 200 टन बच गया बताया गया। इस लिये इस वर्ष 800 टन ही खरीदना काफी हो गा, यह प्रस्ताव आया। दुर्भाग्य से हिन्दसों से मेरी पुरानी यारी है। आखिर गणित की स्तानकोत्तर डिग्री है। हिसाब लगाया तो पाया कि जितनी उत्तर पुस्तिकायें चाहिये थीं, उन में कुल मिला कर 500 टन से अधिक कागज़ नहीं लगना चाहिये। 200 टन तो पहले का था, केवल 300 टन ही काफी हो गा पर सावधानी के तौर पर 400 टन खरीद लिया जाये। प्रस्तावित मात्रा से आधा। पता नहीं इस की क्या प्रतिक्रिया मण्डल में हुई पर भोपाल के विधायक जो भाजपा के थे तथा जिन के बारे में मैं ने कहा था कि ध्यान आकर्ष्ज्ञण प्रस्ताव के समय उन्हों में मेरे पक्ष में बोला था, में मुख्य मुद्दा कागज़ में बचत का था। दूसरे विधायक ने नकल रोकने के अभियान की बात की।

 

अब आगे बढ़ें। उत्तर पुस्तिकाये आईं। उन को देखने पहुँच गया। लगा कि साईज़ ठीक नहीं है। नपवाया तो प्रत्येक उत्तर पुस्तिका 8 इंच बाई 10 इंच की थी अर्थात वाँछित क्षेत्रफन से 25 प्रतिशत कम। पहली खेप ही आई थी। प्रिण्टर्स को सूचित किया गया कि इसे अस्वीकार किया जा रहा है। आगे से सही नाप के उत्तरपुस्तिकायें तैयार की जाये। प्राप्त खेप मे जो कागज़ कम लगा है, उस की राशि काट ली जाये गी।

 

हड़कम्प मच गया। यह स्पष्ट था कि 25 प्रतिशत कागज़ चोरी किया जा रहा था। 800 टन बताते थे, वास्तविक कागज़ तोे 600 टन ही था। प्रिण्टर्स द्वारा काम बन्द कर दिया गया। कार्यालय द्वारा मुझे बताया गया कि इस से तो हम उत्तर पुस्तिकायें समय पर भेज नहीं पायें गे। परीक्षा का क्या हो गा। प्रिण्टर्स भी आये और बताया  कि यदि हम 9 बाई 12 इंच की पुस्तिका चाहते हैं तो दर को 45 रुपये से बढ़ा कर 75 रुपये प्रति हज़ार कर दी जाये। परन्तु अपना इकरारनाम तो 45 रुपये हज़ार का था। उस को बढ़ाने का प्रश्न नहीं था। चोरी के लिये हम ने अधिकृत किया नहीं था। अब से सही काम शुरू करें परन्तु उन्हें शायद जम नहीं रहा था और शायद यह भी विचार था कि आखिर परीक्षा सिर पर है तो करें गे क्या। आखिर मानना पड़े गा।

उस समय श्री व्यास सरकारी प्रिट्रिग प्रैस के निदेशक थे। बहुत ईमानदार, परिश्रमी एवं सहायता करने वाले। उन से सम्पर्क किया गया। सरकारी प्रेस में इस काम को करने को वह राज़ी हो गये। समय पर उत्तरपुस्तिकायें प्राप्त हो गईं। परीक्षा में कोई विघ्न इस कारण से नहीं पड़ा। सरकारी प्रैस के बारे में आप जो मरज़ी कहें पर काम करने पर आते हैं तो काम कर देते हैं। यह हाल मण्डल में जो प्रैस वाले थे, उन के बारे में नहीं कहा जा सकता। पर इस की बात बाद में करें गे। उस साल प्रिण्टर्स को यह काम नहीं मिला।

 

अब लौटें जहाँ से हम रास्ता बदले थे। प्रश्न पत्र तथा उत्तरपुस्तिकायें ज़िलों में भिजवा दी गईं। यह सामग्री कलैक्टर के यहाँ रहती थी और निश्चित दिन को ज़िला शिक्षा अधिकारी तथा क्षेत्रीय शिक्षा अधीक्षक की देख रेख में शालाओं के प्राचार्यों को वितरित की जाती थी। यक कार्य भी निर्विघ्न समाप्त हो गया। पर इस में भी एक कसर रह गई। अम्किापुर ज़िले में अम्बिकापुर से रामानुजगंज जाते समय एक प्राध्यापक ने प्रश्न पत्रों को संदूक बस के क्रपर छत पर रख दिया। जब गन्तव्य स्थान पर पहुँचे तो वह गायब था। अम्बिकापुर से रामानुजगंज का रास्ता बहुत क्रबड़ खाबड़ होता था। रास्ते में पास पस ही दो नदियाँ भी पड़ती थीं। अब वह संदूक कहाँ गिरा हो गा, कया पता। या यह भी हो सकता है। कि किसी ने उठा लिया  हो। अगर सारे प्रपत्र आउट हो जाते हैं तो पूरे राज्य में उछाल मच जाता।

 

जैसे ही यह समाचार मिला, पहला काम मैं ने यह किया कि भोपाल के समाचारपत्रों के संवाद वाहकों की बैठक बुलाई तथा उस में इस घटना का विवरण दिया। जाँच हो रही है पर हम कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते। इस कारण परीक्षा शायद स्थगित करना पड़े। इस तुरन्त बुलाई गई बैठक का परिणाम यह हुआ कि बजाये इस के कि चारों ओर अफवाहें फैलती, एक अधिकारिक पक्ष सब के समाने आ गया। कुछ प़त्रकारों ने तो यहाँ तक कहा कि ऐसा पहली बार हुआ है कि उन्हें विश्वास में लिया गया है।

 

यह परम्परा है कि सावधानी की तौर पर हर विषय में दो अलग अलग व्यक्तियों से प्रश्नपत्र बनवाये जाते हैं। अंतिम समय में यह तय किया जाता है कि कौन सा प्रश्नपत्र प्रैस में छपने के लिये देना है। प्रश्नपत्र बनाने वाला भी नहीं जान पाता। इस से गोपनीयता बनाये रखने में सहायता मिलती है। प्रश्न पत्र बनाने वाले वैसे तो निष्ठावान होते ही हैं परनतु यह बीच में एक और सुरक्षा की दीवार आ जाती है। इस सुविधा का लाभ उठाते हुये वैक्ल्पिक प्रश्प पत्रों को छपवाया गया। समय कितना लगे गा, इस का विचार करते ही दो चार दिन में स्थगित परीक्षा की तिथियाँ घोषित कर दी गईं। इस से छात्रों में भी अधिक विलम्ब के कारण होने वाली असुविधा के भय से मुक्ति दिलाई गई। परीक्षा में विलम्ब का मतलब रहता है परिणाम घोषित करने में विलम्ब। मध्य प्रदेश से बाहर के महाविद्यालयों में जो प्रवेश करना चाहते हैं, वह अंतिम तिथि को मिस भी कर सकते हैं। पर शीघ्र ही नई तिथियाँ घोषित करने से इस के बारे में कोई अन्दोलन नहीं हुआ।

 

परीक्ष्रााये नियत समय पर पूरी हो गईं। अब आयें परिणाम की घोषणा की ओर। पर इस से पहले एक बार फिर हम थोड़ा सा भूतकाल की ओर पलटें गे ताकि आगे की कार्रवाई को सही परिपेक्ष्य में देखा जाये।

 

नकल रोकने का पूरा प्रबन्ध किया गया था पर नकल कहीं रुक पाती है। खबर आई्र कि हिनौती, ज़िला भिण्ड में परीक्षार्थियों ने अध्यापकों को कमरे में बन्द कर दिया जब वह उत्तर पुस्किायों ले जाने से रोक रहे थे। यह भी सम्भव है कि अध्यापकों ने खुद का बन्द कर लिया हो। पुलिस बल भेजा गया। तीन और केन्द्र कलैक्टर ने व्यापक नकल के आरोप में बदल दिये। मैंने उस का अनुमोदन  कर दिया। पर यह संतोष का विषय रहा कि कहीं और से व्यापक नकल की खबर नहीं आई।

 

कर्मचारियों के संगठन में चुनाव तो होते रहते हैं। सामान्यतः देखने में आया है कि वही वही लोग घूम फिर कर फिर आ जाते हैं। वही आक्रामक प्रकृति के होते हैं तथा प्रशासन के साथ बातचीत करने में आगे रहते हैं। और मण्डल का तो इतिहास ही रहा है आक्रामक यूनियन का। इस का बहुत कुछ श्रेय प्रशासन को भी जाता है जो आम तौर पर अप्रिय स्थिति से बचना चाहते हैं। आम तौर पर माँगें भत्ते तथा अन्य वित्तीय प्रेरक बढ़ाने की होती है। मण्डल की वित्तीय स्थिति अच्छी रही है इस कारण माँग स्वीकार करने में अधिक परेशानी नहींं होती पर मौल भाव तो करना ही होता है क्योंकि माँग सदैव ऊपर के स्तर पर की जाती है ताकि इसे कम किया जा सके। एक बात और देखने में आती है कि युनियन का अध्यक्ष बाहर के व्यक्ति को बनाया जाता है। इस का कारण युनियन के एक पदाधिकाी ने बताया कि बाहर का व्यक्ति प्रशासन के दबाव में नहीं आता है। मण्डल में इस बार चुनाव हुये तो एक विख्यात पत्रकार को अध्यक्ष बनाया गया। सोचा गया कि उन के सहारे सरकार पर भी दबाव लाया जा सके गा।

 

नये पदोधिकारियों के पद ग्रहण करते समय मुझे मुख्य अथिति बनाया गया। भाषण हुये जैसे कि होते ही हैं। इन में मुद्दा यह था कि यह युनियन जुझारू रूप की है तथा उस ने प्रशासन से कई बार टक्कर ली है। एक अध्यक्ष के साथ तो मारपीट की नौबत भी आने वाली थी, यह बताया गया। अपनी प्रशंसा में युनियन के सचिव, जो मुख्य व्यक्ति ही होता है, ने बताया कि वह प्रशिक्षित श्रमिक नेता है तथा उन का प्रशिक्षण मुम्बई स्थित भारतीय श्रमिक शिक्षा संस्थान में हुआ है। अपने मुख्य अतिथि के भाषण में मैं ने उन्हें बताया कि जिस संस्थान की बात वह कर रहे हैं, मैं उस का निदेशक रह चुका हूॅ। हमारा कार्य श्रमिक नेताओं को उन के कर्तव्यों, अधिकारों तथा श्रमिक कानूनों की पूरी जानकारी देने का था। मैं ने सदस्यों को आश्वस्त किया कि अपने अनुभव के कारण उन की हर वाजिब माँग पर विचार किया जाये गा अैार अपेक्षा की कि कोई अनुचित माँग की ही नहीं जाये गी क्योंकि उसे स्वीकार नहीं किया जा सके गा। एक प्रकार से यह दोनों ओर से युद्ध की घोषणा ही थी।

 

उत्तर पुस्तिकायें प्राप्त होने के पश्चात उन्हें विभिन्न अध्यापकों को जाँच के लिये भेजा जाता था। नाम के लिये तो यह सूची गोपणीय होती थी किन्तु कार्यालय में सभी को मालूम रहता था। इस बारे में अधिक छानबीन मेरे द्वारा नहीं की गई क्योंकि यह एक असम्भव सा कार्य था। अध्यापकों द्वारा दिये गये अंकों की सूची गोपनीय रूप से प्रिण्टर्स को भेजी जाती थी जो उसे ज़िला वार, परीक्षा केन्द्र वार, परीक्षार्थी वार अंतिम रूप देते थे। ज़िलावार परिणाम को एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया जाता था। तथा इसे मण्डल के मुख्यालय को भेजा जाता था। बताया गया कि वहाँ उस का परीक्षण उस की शुद्धता के बारे में किया जाता था। यह कार्य कैसे हो पाता हो गा, मैं समझ नहीं पाया। न तो परीक्षकों द्वारा दिये गये अंक उन के पास होते थे, न ही और कोई तरीका शुद्धता जाँचने का था। बताया गया कि दिये गये अंकों के आधार पर अस्थायी मार्कशीट तैयार की जाती थी जो परीक्षार्थियों को दी जा सकती थी। शायद यही परिणाम को मुख्यालय मंगवाने का कारण रहा हो गा। पर लाखों परीक्षार्थ्थयों को अस्थायी मार्क शीट देना इतना सरल काम नहीं था। कई दिन इस में लग जाते थे। मण्डल र्काालय में भीड़ तो रहती ही थी। मैं यहाँ पर पक्षपात की बात नहीं कर रहा। वह अपनी जगह था।

 

नियत तिथि पर परिणाम घोषित किया जाता था तथा बड़ी बड़ी शीट में उन्हें छपवा कर मण्डल भवन की दीवारों पर चिपकाया जाता था। एक साथ अनेकानेक परीक्षार्थी अपना परिणाम जानने आते थे। मण्डल कार्यालय के सामने मेला लग जाता था। भोपाल से बाहर के छात्रों को कैसे पता चलता हो गा, पता नहीं। पर यह पूरा तरीका ही गल्त प्र्तीत होता था।

 

सोचने पर पता लगा कि यह सब भ्रष्टाचार का तरीका था। जब शुद्धता की तथाकथित जाँच करते थे तो परिणाम पता चल जाता था। अब बिचौलिये के ज़रीये खबर भिजवायी जाती थी कि अमुक छात्र की द्वितीय श्रेणी आ रही है। अगर मुनासिब पैसा मिले तो कुछ किया जा सकता है। करना कुछ नहीं था, केवल छात्र को यकीन दिलाना था कि कुछ किया जा सकता है। कितने का सौदा होता था पता नहीं और पता किया भी नहीं जा सकता था। पर इस की सम्भवना काफी थी। मण्डल इस कारण बदनाम तो था ही।

 

जैसे कि पूर्व में बताया गया है, कर्मचारियों को दो अवसर मिलते है प्रशासन को दबाव में लाने के लिये। एक जब प्रश्नपत्र वितरित होने हैं और दूसरे जब परिणाम घोषित होने का समय हेोता है। और इस बार भी वही हुआ। हड़ताल पर जाने को नोटिस विधिवत दिया गया तथा माँगों की लम्बी सूची भी। मानदेय तथा भत्ते में वृद्धि तो थी ही। पर कुछ माँगे अजीब सी भी थीं। एक यह थी कि मण्डल में कर्मचारियों की भरती वर्तमान में कार्यरत कर्मचारियों के परिवार में से की जाये। एक तरह से वह इसे बपौती बनाना चाहते थे। मैं ने पूर्व में बताया है कि कई कर्मचारी आपस में रिश्तेदार थे तथा बिना वाँछित योग्यता के थे। वे कैसे आये, यह इस माँग से स्पष्ट था। एक माँग थी कि कोई भी तबादला बिना कर्मचारी की सहमति के न किया जाये। यदि स्थानान्तर उस की सहमति से होता है तो भी उसे भोपाल में मकान रखने की इजाज़त हो। चिकित्या भत्ता 200 रुपये मासिक से 500 रुपये कर दिया जाये। इत्यादि इत्यादि।

 

बात चीत तो की गई पर हड़ताल को टालना सम्भव नहीं था। वह तो वास्तव में आर पार की लड़ाई थी। और भी कदम उठाये गये थे जो सीधे उन के महत्व को कम करते थे तथा बताया जाता है कि उन की आमदनी के स्रोत पर चोट थी।

 

हड़ताल नियत तिथि पर आरम्भ हो गई। चूॅंकि बड़ी संख्या में छात्रों पर प्रभाव पउ़ता था, इस कारण शासन को निवेदन किया गया कि इसे अवैधानिक घोषित किया जाये। मुख्य मन्त्री उस समय दिल्ली में थे अतः मुझे वहाँ जाना पड़ा परन्तु उन की अनुमति प्राप्त करने में कठिनाई नहीं हुई। उन्हें आश्वस्त किया गया कि छात्रों के परिणाम घोषणा पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ने दिया जाये गा। वास्तव में इस आश्वासन का कारण यह था कि पूर्वाभास के कारण तैयारी कर ली गई थी जिस का विवरण आगे आये गा।

 

वैसे तो हड़ताल गैर कानूनी घोषित होने पर युनियन के पदाधिकारयों को बन्दी भी बनाया जा सकता है और ज़िला अधिकारियों को इस बारे में बताया भी गया। परन्तु सभी जानते हैं कि ज़िला पुलिस अधिकारी दूसरे विभागों की ऐसी माँग पर ध्यान नहीं देते। वह तो अपने पुलिस अधिकारिों तथा गृह मन्त्री एवं मुख्य मन्त्री के इशारे की प्रतीक्षा करते हैं। यह इशारा था नहीं तथा इस कारण कोई कार्रवाई नहीं। अपनी मंशा भी केवल भय में रखना था, जेल भिजवाने में कोई रुचि नहीं थी। वह भूमिगत हो जायें, यही काफी था।

 

इधर मैं ने प्रयास किया कि हड़ताल प्रबन्धन और कर्मचारियों के बीच में बात न रहे जेसा कि पूर्व में होता था। आखिर बड़ी संख्या में छात्र भी प्रभावित होते है। अतः यह बात जनता के बीच पहुँचाई जाना चाहिये। इस लिय इस हड़ताल के बारे में अखबारों में इश्तहार देने का सिलसिला शुरू किया। कितनी नामकूल माँगें हैं, इस के बारे में जनता में प्रचार हुआ। उस की वजह से उन्हें वह हमदर्दी नहीं मिल पाई जिस की उन्हें उम्मीद थी। जिस माहौल की वह कल्पना कर रहे थे, वह युनियन को नहीं मिल पाया। उधर युनियम के अध्यक्ष श्रीधर ने भी अपने समाचारपत्र नव भारत के माध्यम से इसे सार्वजनिक मुद्दा बना दिया यद्यपि उन की इच्छा यह नहीं थी। वह तो दबाव लाना चाहते थे। परन्तु उस का परिणाम यह हुआ कि दुसरे समाचारपत्रों ने भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना आरम्भ की। मेरे अंतिम इश्तहार में जब मैं ने नव भारत को बधाई दी तो वह कोई बिन्दु प्रमाणित करने के लिये नहीं थी वरन् दिल से थी। मेरा प्रचार का काम उन्हों ने आसान कर दिया।

 

हड़ताल अवैघ घोषित होने का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह तो हमेशा होता था। और बाद में समझौते में सब  को माफ कर दिया जाता था और किसी के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं होती थी। यह उन का अनुभव बताता था और वह आश्वस्त थे। दूसरे उन को आशा थी कि छात्र तथा उन के अभिभावक तथा राजनेता भी परिणाम घोषित होने वाली देरी के लिये मण्डल की आलोचना करें गे तथा मण्डल को झुकना ही हो गा। ं

 

ऐसे में वैकल्पिक व्यवस्था करना लाज़िमी था। कार्यालय के बाहर होम गार्ड्रस की सहायता से भोपाल सम्भाग के विद्यालयों के अनुसार परिणाम तैयार किये गये। ंतिथि तय होने पर बाकायदा प्रैस काँफ्रैस बुलाई गई तथा उस में परिणामों की घोषणा की गईं। जो कर्मचारी यह समझते थे कि उन की मदद के बिना परिणाम घोषित हो ही नहीं सकते, परेशान तो हुये ही। प्रैस में हड़ताल की असफलता की बात को प्रचारित किया गया जो कि आश्य था।

 

पर वास्तव में यह अचानक की गई कार्रवाई नहीं थी। परीक्षापत्र वितरण समय की हड़ताल टालने के समय से ही पता था कि यह तो पहला राउण्ड है। आगे भी टकराव की नौबत आने वाली है। उस की तैयारी कर लेना चाहिये। और जो तरीका मुझे सूझा, वह बहुत ही सरल था। जैसा मैं ने कहा कि परिणाम मुख्यालय मंगवाये जाते थे। उन की तथाकथित जाँच में भ्रष्टाचार की सम्भावना थी। इस को सिरे से ही गायब कर दिया जाये तभी सुधार सम्भव है। इस कारण पूरी व्यवस्था ही बदल दी गई थी। परिणाम की ज़िलेवार पुस्तकें मुख्यालय बुलाई ही नहीं गईं सिवाये भोपाल ज़िले के। उन्हें सीधे कलैक्टरों की ओर भेज दिया गया। कलैक्टरों को उन्हें गोपनीय कक्ष में रखने को कहा गया। अमुक तिथि पर विद्यालयों के प्राचार्य आयें गे तथा ज़िला शिक्षा अधिकारी इन का स्कूलवार वितरण करें गे। संभागवार तिथियाँ घोषित की जाती रहीं और परिणाम वितरण का काम सम्पन्न हो गया। छात्रों को कोई परेशानी नहीं हुई। थोड़ा विष्यॉतर हो गा पर यह बताना आवश्यक है कि परीक्षा पत्र भेजते समय ही यह स्पष्ट था कि यह पहला टकराव है। उस की आगे सम्भावना है।

 

इसी के साथ अस्थायी मार्कशीट के बारे में विद्यालयों के प्राचार्याें को अधिकृत किया गया कि वह पुस्तक में दिये गये अंकों के आधार पर अस्थायी मार्कशीट दे सकते हैं। मुख्यालय में इन्हें बनाने की आवश्यकता तो थी ही नहीं। कुछ क्रियाशील पत्रकारों तथा अन्य की माँग थी कि परिणाम घोषणा को केन्द्र में न रखा जाये। उसे सम्भागवार किया जाये। उन्हें बताया गया कि इस से आगे बढ़ कर विद्यालयों में ही इसे विकेद्रित कर दिया गया है।

 

परिणाम घोषित होने के बाद कोई हथियार यूनियन के पास रह ही नहीं गया। अगले चार महीने तक उन के बिना भी काम चल सकता है, यह उन्हें आभास था। इस कारण हड़ताल को समाप्त करने के लिये बात चीत करने को युनियन तैयार हो गई। अब उन के सामने प्रश्न था अपनी लाज रखने का। बातचीत में उन्हों ने अपनी मुख्य माँगें छोड़ दीं पर कम से कम एकाध तो मान लेने को कहा ताकि वह अपने सदस्यों को इस बारे में बता सकें। जैसा कि मैं ने पूर्व में कहा, हमें कोई जल्दी नहीं थी। स्पष्ट कर दिया गया कि किसी भी मॉग को स्वीकार नहीं किया जाये गा जब तक हड़ताल समाप्त न हो। एक माँग महिला कर्मचारियों के लिये टिफिन रूम की थी जिसे मानने में कोई कठिनाई नहीं थी। पर बात सिद्धाँत की थी।

 

युनियन ने कोशिश की कि मुख्य मन्त्री को हस्तक्षेप के लिये कहा जाये। पर उधर से कोई प्रोत्साहन नहीं दिया गया। उन्हों ने कहा कि हड़ताल खत्म होने के बाद ही वह मिलें गे। यूनियन के अध्यक्ष, जो पत्रकार थे, ने भी मुख्य मन्त्री पर दबाव लाने का प्रयास किया पर शायद वह भी नहीं चल पाया। भारतीय जनता पार्टी के कछ विधायक मुख्य मऩ्त्री से मिले तो उन्हों ने कहा कि जब छात्रों के जीवन से खेला जा रहा था तो वह कहाँ थे। इस बात को अखबारों ने भी प्रकाशित किया।

 

अन्ततः 21 जून को रात साढ़े ग्यारह बजे मुख्य मन्त्री का फोन आया कि हड़ताल बिना शर्त वापस ले ली गई। कर्मचारियों का अब आने दिया जाये। वास्तव में हड़ताल वापसी का एहलान तो पाँच बजे हो गया था।। उस के बाद वे मुख्य मन्त्री को मिले और मुझ से बात करने का कहा। सम्भवतः ऐसा मण्डल के इतिहास में पहली बार हुआ था। इस से आगे की कार्रवाई भी सरल हो गई जैसे स्ट्रांग रूम में भत्ता दिनों के हिसाब से नहीं, वरन् धण्टों के हिसाब से दिया जाने का आदेश दिया गया।

 

इंदौर से प्रकाशित समाचार पत्र स्वदेश ने इस हड़ताल पर सम्पादकीय लिखा। इस का पूरा उद्धरण देना उचित तो नहीं हो गा कयोंकि यह आत्म प्रशंसा हो गी पर इस का कुछ अंश बताया जा सकता है। यह है ‘‘सात जून से आरम्भ मध्य प्रदेश माध्यमिक शिक्षा मण्डल का अन्दोलन अपने अंतिम चरण में शुरू की गई अनिष्तिकालीन हड़ताल को बिना शर्त वापस ले लिया गया। ....... किन्तु मण्डल अधिकारी और अन्दोलनकारी दोनों ही समझौते के मूड में नहीं थे। कर्मचारियों को उम्मीद थी कि मण्डल अध्यक्ष के कठोर रवैये को शासन का समर्थन नहीं मिले गा। इस लिये यह अन्दोलन शासन के विरुद्ध कम और अध्यक्ष के विरुद्ध अधिक दिखाई दे रहा था पर कर्मचारियों की उम्मीद पर उस समय पानी फिर गया जब मुख्य मन्त्री ने स्पष्ट कर दिया कि कर्मचारियों से कोई चर्चा नहीं हो गी जब तक उन की हड़ताल समाप्त नहीं होती। ........कर्मचारियों के विरुद्ध सब से बड़ा मुद्दा था हड़ताल के लिये चुना गया समय। भले ही उन की माँगें पुरानी और न्यायोचित रही हों किन्तु परीक्षाफल घोषित होने के समय उन्हों ने जिस तरह का अन्दोलन छेड़ दिया उस ने परीक्षाफल के विलम्ब से लाखों विद्यार्थियों के भविष्य को एवं उन के परिवारों को सकट में डाल  दिया। अतः किसी भी अन्दोलन की सफलता के लिये आवश्यक समर्थन उन के हाथ से खिसक गया था। दूसरे उन का यह कदम ब्लैकमेल्रिग की श्रेणी में आ गया जिसे कोई भी प्रशासन या सरकार आसानी से स्वीकार नहीं कर सकती। परिणाम यह हुआ कि अन्दोलन जैसे प्रारम्भ हुआ थाए वैसे ही समाप्त हो गया। ’’

 

इसी प्रकार के लेख देनिक भास्कर तथा फ्री प्रैेस जर्नल में भी थे।

 

हड़ताल समाप्त हो जाने के बाद निर्णय लिया गया कि हड़ताल के दिनों का वेतन नहीं दिया जाये गा क्योंकि हड़ताल को अवैध घोषित कर दिया गया था। ऐसा भी पहली बार हुआ था क्योंकि पूर्व में ह़ड़ताल बातचीत के बाद वापस ली जाती थी और उस में एक शर्त यह रहती थी कि हड़ताल की अवधि को अवकाश मान लिया जाये गा।

 

परिणाम घोषित हो गये और मण्डल की सामान्य गतिविधि आरम्भ हो गई। मण्डल द्वारा अंतरिम प्रमाणपत्र जारी किये जाते हैं पर उस में मानवीय त्रुटियाँ रह ही जाती हैं। जैसे कि परीक्षार्थी का नाम रमेश कुमार के स्थान पर रमेश कुमारी लिख दिया गया। लड़के के पास उस का परीक्षा रोलनम्बर वाला कार्ड है। अब मण्डल का कायदा था कि उस से आवेदनपत्र लिया जाता था। उसे कुछ दिन बाद आने को कहा जाता था ताकि सुधरवाया गया अंक प्रमाणपत्र दिया जाये। तथा उस में विलम्ब किया जाता था। कुछ जानगूझ कर ताकि इस विलम्ब को भुगताया जा सके।

 

मैं ने एक सहायक सचिव का डयूटी प्रवेश द्वार के पास ही लगा दी और आदेश दिया कि इस प्रकार की गल्तियाँ वह सुधार दे। उस पर कार्यालय की मोहर लगाये और मामला खत्म। उसे एक पंजी में दर्ज किया जा सकता है। केवल जहाँ जन्म दिन में अन्तर हो, वहाँ पर आवेदन पत्र लिया जाये। उस पंजी को मैं ने दिन में दो बार देखने का भी क्रम शुरू किया। और स्वयं प्रवेशद्वार पर खड़ा हो कर चैक भी किया। परिणाम यह हुआ कि बिना किसी हुज्जत के अंक प्रमाणपत्र निपटा दिये गये। जन्म दिन बदलवाने के लिये तो शायद हाथ की उंगलियो पर गिने जाने वाले ही आवेदनपत्र आये।

 

पूर्व में भी जितने आवेदन पत्र लम्बित थे, उन्हें निपटाने का अभियान पहले ही आरम्भ किया गया था। उस में गति उतनी तो नहीं थी जितनी मैं चाहता था पर कुछ तो हो रहा था।

 

दो किस्से बताना उचित हो गा जो मेरी प्रशंसा में हो गे। आखिर ऐसे लेख लिखे ही इस लिये जाते हैं कि लिखने वाले की तारीफ हो तो स्वंयं ही क्यों न की जाये।

 

जब मैं प्रवेश द्वार पर चल रही कार्रवाई को देख रहा था तो एक सज्जन या कहिये बुजुर्ग मेरे पास आये। उन के साथ जो लड़का था, उस को कुछ समस्या थी। उन्हें सुना और कहा कि आप का काम हो नहीं पाये गा। उन्हों ने कहा कि मैं अध्यक्ष से मिलता हूँ। मैं ने कहा कि अगर अध्यक्ष इस में कुछ कर सकते होते तो मैं कर देता। वह संतुष्ठ नहीं हुये। अध्यक्ष का कमरा पहली मंज़िल पर है। वह वहाँ जाने लगे तो तैनात सन्त्री ने कारण जानना चाहा। कहें, मैं अध्यक्ष से मिलना चाहता हूँ। सन्त्री ने बताया कि उन्हीें से तो बात कर रहे थे। वह सज्जन दौबारा मेरे पास आये और कहा कि उन्हें नहीं मालूम था कि मैं अध्यक्ष हूँ। मैं ने कहा कि मैं ने तो पहले ही कहा था कि अगर अध्यक्ष कुछ कर सकते तो मैं कर देता। इस बार वह संतष्ठ हो कर वले गये।

 

दूसरा किस्सा मेरे अध्यक्ष पद छोड़ने के आठ एक साल बाद का है। तब तक मैं सेवा निवृत हो चुका था। भोपाल से दिल्ली रेल गाड़ी से जा रहा था तो एक सज्जन आये और मुझे धन्यवाद देने लगे। मुझे समझ नहीं आया कि किस बात का। थोड़ी देर बाद वह अपने बेटे को लिवा लाये अैर उसे मेरे पैर छूने को कहा। मैं किसी से पैर छुआने की बात सोच भी नहीं सकता पर उन से पूछा कि चह ऐसा क्यों कर रहे हैं। उन्हों ने बताया कि उन का बेटा सैना में कैप्टन है और वह मेरी बदौलत है। अब मुझे और हैरानी हुई कि मैं ने ऐसा क्या कर दिया और कब कर दिया। तब उन्हों ने बताया कि उन का लडका़ एन डी ऐ की परीक्षा में पास हो गया था तथा उसे एन डी ए खडकवास्ला में रिपोर्ट करना था। पर एक अड़चन थी। बारहवीं कक्षा पास करना अनिवार्य था। उस ने परीक्षा तो दी थी पर अभी परिणाम नहीं आया था। इस कारण वह मुझ से मिले थे। जैसा कि मैं ने पूर्व में बताया था, परिणाम कुछ दिन पूर्व प्राप्त हो जाते थे पर घोषित नहीं होते थे। अब दिक्कत यह कि मैं उन्हें प्रमाणत्र तो दे नहीं सकता था। वह तो कायदे के विरुद्ध होता। तो मैं ने यह सोचा कि उन का परिणाम एक सीलबन्द लिफाफे में दूँ और उस के ऊपर लिख दूँ - टू बी ओपण्ड बाई क्माडैण्ट एन डी ए आनली। उस पत्र की बदौलत वह सैना में सैकण्ड लैफटीटैण्ट बन गये। और इस का श्रेय उन के विचार में मुझे ही जाता है। यदि नियमों का सख्ती से पालन लक्ष्य हो तो मैं सम्भवतः गल्त कार्य कर रहा था पर दूसरी ओर किसी का भविष्य ही इस पर टिका हो तो?

 

जहाँ तक मुझे याद है, इस प्रकार के दो प्रकरण थे। एक जिस के बारे में मैं ने अभी बताया और दूसरा जिस के बारे में फिर कभी बात या मुलाकात नहीं हुई। खैर, भोपाल के दो बच्चे तो सैना में जा सके। 

 

कई बर छात्र कहते सुने गये हैं - बस एक नम्बर से फर्स्ट डिविज़न रह गई। समाज में डिविज़न का बहुत महत्व है। भले ही 59 प्रतिशत में तथा 60 प्रतिशत में छात्र की लियाकत का कोई अन्तर न हो पर लोग ऐसा नहीं समझते। इस को देखते हुये मैं ने एक नम्बर से डिविज़न रह जाने की बात को समाप्त करने के लिये अध्यक्षीय विशेष ग्रेस अंक देना आरम्भ किया।

 

एक दूरगामी सुधार की बात करना आवश्यक है। मण्डल में प्रत्येक विषय में दो पेपर रखे जाते थे - ए और बी। अंग्रेज़ी ए, अंग्रज़ी बी, गणित ए, गणित बी इत्यादि। इस से परीक्षा भी लम्बी खिंचती थी, परिणाम भी विलम्ब से घोषित होते थे। विश्वविद्यालयों में परीक्षा लेने वाले विलम्ब के कारण रह जाने की स्थिति में होते थे। मैं ने प्रत्येक विषय में दो के स्थान पर एक ही पेपर करवा दिया। इस से हम दूसरे शिक्षा मण्डलों की श्रेणी में आ गये विशेषतया सी बी एस सी की। कुछ ने आक्षेप किया कि दो पेपर की तैयारी एक साथ करना पड़े गी जो छात्र के लिये कठिन हो गा। मेरा स्पष्टीकरण था कि परीक्षा तो पूरे वर्ष की पढ़ाई की होती है, एक दिन की नहीं। पर बात उन की सही थी। छात्र अंतिम दिन की मेहनत को ही श्रेय देता है।

 

इस पद्धति में परीक्षापत्र सैट करने वाले भी कम हो गये। परीक्षा जाँचने वाले भी कम हो गये। परिणाम विलम्ब से होने वाली शिकायत भी समाप्त हो गई। और मण्डल की बचत भी हुई। 

 

सम्भव था कि पुरानी पद्धति को बदलने का विरोध होता परन्तु एक बात ने इसे बढ़ने नहीं दिया। इस परिवर्तन में मैं ने यह भी आदेश दिये कि परीक्षा शुल्क में एक तिहाई की कमी कर दी जाये गी। जब अपना पैसा कम खर्च  हो रहा है तो छात्रों पर बोझ क्यों न कम किया जाये। मैं ने बताया था कि हर वर्ष पूर्व निणर्य के अनुसार परी़क्षा शुल्क बढ़ाने की परम्परा मैं ने पहले ही समाप्त कर दी थी। इस कमी करने का एक परिणाम यह भी हुआ कि छात्रसंघ इस परिवर्तन को मुद्दा नहीं बना सके क्योंकि इस में छात्र का भी वित्तीय लाभ तो हो ही रहा था।

 

मितव्ययता का एक और प्रयास भी वर्णन करने योग्य है। कई विषय ऐसे थे जिन में बहुत कम परीक्षार्थी होते थे। परन्तु उन के लिये भी प्रक्रिया वही होती थी, गोपणीय प्रिण्टर से मुद्रित कराओ। बण्डल मंगाओ इत्यादि। मैं ने एक द्रुत गति वाला कापियर क्रय कर लिया। उसे अपने चैम्बर के साथ वाले कमरे में रखा जहाँ किसी के आने जाने का प्रश्न नहीं था। जब परी़क्षा पत्र बाँटने होते थे, उस से कुछ रोज़ पूर्व जितनी संख्या में प्रश्नपत्र चाहिये होते थे, उतने प्रिण्ट कर लिये जाते थे। शेष प्रक्रिया वैसी ही रहती थी।

 

मण्डल द्वारा पत्रव्यवहार कार्यक्रम भी चलाया जाता था। दसवीं तथा बारहवीं के लिये प्रवेश दिया जाता था। इस का पाठ्यक्रम वही था जो सामान्य विद्यार्थियों के लिये था। इस में मेरे द्वारा लड़कियों के लिये शुल्क को आधा करने का निर्णय लिया गया। यह मण्डल की आय कम करने का एक तरीका था। मुख्य मन्त्री इस से प्रसन्न तो नहीं थे। उन का कहना था कि जो पैसा आता है, वह दूसरे काम में लगाया जा सकता है परन्तु मेरे विचार में इस शुल्क कमी में भी शासन का लाभ था क्योंकि वह कल्याण का दावा कर सकते थे जो कि घोषित नीति का हिस्सा था।

 

मण्डल में प्रैस भी था जो सामान्य काम करता था। जैसे कि पत्र व्यवहार शिक्षा के लिये सामग्री का छापना। इस प्रैस में करीब 200 व्यक्ति काम करते थे। किसी वक्त हड़ताल के दौरान इस बात पर सहमति हो गई थी कि इन के काम के निरर्धाण के नाप अमुक हों गे। इस के बाद नये उपकरण आते रहे पर नार्म वही रहा। आम तौर पर जो नार्म थे वह तो तीन घटे में पूरे हो जाते थे। प्रैस के अधिकांश व्यक्ति शेष समय में अपने अपने प्रैस बाहर चलाते थे। यह जानकारी सर्व विदित थी किन्तु कोई कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं था। मैं भी इस बारे में कुछ कर नहीं पाया। दूसरे कार्य ही इतने थे और इसे लम्बित रखना आवश्यक था। मैंने एक बार शिक्षा मन्त्री जी से कहा था कि यदि स्टाफ को एक तिहाई कर दिया जाये तो मेरी गारण्टी है कि दक्षता दुगनी हो जाये गी। परन्तु यह एक लम्बा चलने वाला अभियान होता और उतना समय मुझे मिला नहीं।

 

एक विचार यह था कि नार्म को अद्यतन करने के लिेय विशेषज्ञों की समिति बनाई जाये पर वह कार्य मैं कर नहीं सका क्योंकि मेरा एक वर्ष समाप्त हो गया। उस समय मुझे मणीपुर के मुख्य सचिव बनने का आफर आया और वह मुझे आकर्षक लगा। मध्य प्रदेश में तो मुख्य सचिव बनने की कोई सम्भावना ही नहीं थी। यहाँ के नेता मेरी कार्य प्रणाली से भली भॉंति परिचित थे। कौन मुख्य मन्त्री चाहे गा कि उस के निर्णय की समीक्षा मुख्य सचिव द्वारा की जाये और वह भी एकाध प्रकरण में नहीं। कई बार। जो हो मैं ने मुख्य सचिव बनना स्वीकार किया जिसे आज भी मैं सही निर्णय मानता हूँ पर इस का कारण पलायन नहीं था, यह अवश्य कह सकता हूॅं, क्योंकि संघर्ष से भागने की फितरत नहीं है।

 

मण्डल के बारे में एक बात का वर्णन और करना चाहूँ गा। जैसा कि मैं ने बताया, मण्डल पैसे के हिसाब से अच्छी स्थिति में था। जब इफरात में पैसा हो तो कई नई बातें सूझती हैं। पैसा व्यय करने का सब से अच्छा तरीका भवन निर्माण है। इस में केवल ठेका देने में प्रतिशत ही तय करना होता है। बाकी सब तो अपने आप होता है। मण्डल में समीक्षा करने वाला कोई नहीं होता यदि कोई बात सीधे नज़र मे न आये। मेरे पूर्वाघिकारी ने इन्दौर तथा रायपुर में परिक्षेत्रीय कार्यालय के लिये भवन को सुधारने का निर्णय लिया। इस के लिये कार्य आरम्भ कर दिया गया। एक बार दौरे पर इन्दौर गया। नये कार्यालय का निरीक्षण किया। क्या शानदार भवन था। चमचमाते मार्बल हर स्थान पर। सीढ़ियों की दीवारों पर भी। मुझे यह थोड़ा अधिक ही शानदार दिखा। पर यह तो कुछ भी नहीं। भवन मे एक मीटिंग हाल था, लगभग 24 आदमियों के लिये। उस कमरे में आठ ए सी लगाये गये थे। गोदरेज की बढ़िया आरामदेह कुर्सियाँ थी। अध्यक्ष के लिये कमरा भी सुसज्जित था।

 

यह बतना आवश्यक है कि इन्दौर में अथवा किसी भी क्षेत्रीय कार्यालय में बैठक के आयोजन का कोई मौका मुझे तो नज़र आया नहीं। हो सकता है कि जब मण्डल में अशासकीय सदस्य भी हों तो उन की सुविधा के लिये या, जैसा आम तौर पर होता हे, सैर सपाटे के लिये, अलग अलग स्थान पर बैठक रखी जाये। पर वह भी कभी कभार की बात है। विश्राम भवन होते ही इस के लिये हैं। ऐसे अवसर कम ही आते हैं जिन के लिये बैठक क्षेत्रीय कार्यालय में की जाये। सामान्यतः बैठक मुख्यालय में होती रही थी जिस के लिये कमरा उपलब्ध था यद्यपि उसे फाईव स्टार का नहीं कहा जा सकता। खैर, इन्दौर में तो काम लगभग समाप्ति पर था, उसे वापस करने का कोई अवसर नहीं था पर पहला काम जो मैं ने किया वह रायपुर का काम रुकवाने का था। वह अभी प्रारम्भिक स्टेज पर ही था अर्थात टैण्डर भी मंज़ूर नहीं हुये थे। इन्दौर के कुछ एक ए सी भोपाल ले आये गये जहाँ उन की उपयोगिता अधिक थी। कुर्सियाँ लाने का प्रश्न नहीं ंथा क्योंकि भोपाल में पहले ही थीं। उस भवन का बाद में कया उपयोग हुआ, ज्ञात नहीं है।

 

एक किस्सा और जिस का सीधा सम्बन्ध तो मण्डल के कार्य से नहीं है। वह परीक्षा के बारे में है। वर्ष में एक बार सभी माध्यमिक शिक्षा मण्डल के अध्यक्षों की बैठक होती थी। उस वर्ष यह भुबनेश्वर में थी। इस में मैं ने परीक्षा के बारे में एक सुझाव दिया था जिसे सब ने सुना पर अनसुना कर दिया जो आश्चर्यजनक नहीं है। परिवर्तन, संशोधन एक जटिल प्रक्रिया है, विशेषतया जब कोई प्रक्रिया कई दशकों से चलती आ रही हो। संक्षेप में मेरा प्रस्ताव यह था कि परीक्षा में पास फेल का उल्लेख समाप्त कर दिया जाये। न पास फेल का झगड़ा, न प्रथम श्रेणी, दूसरी श्रेणी का झगड़ा। प्रमाणपत्र में केवल विभिन्न विषयों में लिये गये अंक लिखे जायें। 100 में से 80 हैं तो अस्सी, सौ में से बीस है तो बीस। कोई ए, बी, सी का ज़िकर नहीं, कोई परसैंटाईल का उल्लेख नहीं। प्रतिशतता का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

 

प्रश्न यह है कि बिना प्रतिशतता के अगली कक्ष में प्रवेश कैसे दिया जाये गा सदि उस कक्षा में स्थान कम हों। दसवीं पास करने के बाद बारहवीं में प्रवेश पर कोई दिक्कत नहीं होती है। हाँ, विज्ञान अथा प्राणीशास्त्र की बात हो तो अलग है। उस में उस सम्बन्धी विषयों के अंक देख लिये जायें। जो छात्र बच जायें, वह पत्र व्यवहार कार्यक्रम में प्रवेश पा सकते हैं। वही पद्धति स्नातक कक्षा में प्रवेश के लिये भी लागू की जा सकती है।

 

दूसरा सुझाव यह था कि छात्र जिस विषय में चाहे, उस में दौबारा परीक्षा दे सकता है और यदि उस में अंक अधिक आते हैं तो वह मान्य हो जायें गे। इस प्रकार के प्रयासों में कोई संख्या सीमा नहीं है। केवल एक सीमा हो गी कि उस ने अगली सार्वजनिक परीक्षा में भाग न लिया हो। यदि बारहवीं की परीक्षा दे दी है तो दसवीं के अंक नहीं बढवाये जा सकते। यदि स्नातक की परीक्षा कर ली है तो बारहवीं कक्षा के अंक नहीं बढ़ाये जा सकते। परीक्षा वर्ष में दो बार आयोजित की जा सकती है।

 

नौकरी देने वाले देखें गे कि उन्हें किस विषय में अंक देख कर कार्य करवाना है। यदि कार्य विज्ञान से सम्बन्धित है तो उस के अंक देखें, उस में प्रवीणता देखें। गणित में भले ही बीस अंक ही आये हों, उस से आवेदक की उस कार्य में उपलब्धि पर प्रभाव नहीं पड़े गा।

 

अभी तक भी मैं सेाचता हूँ कि यह पद्धति आज भी उत्तम रहे गी। पर न तब इस का कोई लेवाल था, न आज ही हो गा। हाँ, परीक्षा पद्धति की आलोचना हर कोई करता रहे गा।

 

जो मैं नहीं कर पाया वह था प्रैस के कर्मचारियों के बारे में सुधार ताकि पूरा काम नई मशीनों को देखते हुये हो सके। दूसरे मण्डल की वित्तीय स्थिति को ठीक करने की बात मतलब जो अतिशेष राशि बेकार की माँगों को जन्म दे रही थी, उस में कमी ताकि मण्डल शुद्ध व्यवसायिक तौर पर कार्य करे। यह कार्य मेरे एक उत्तराधिकारी श्री साहा ने किया।

 

इस के साथ ही मेरी मण्डल के अनुभव की बात समाप्त होती है। यदि कभी कुछ याद आया तो अतिरिक्त जानकारी देने का वायदा है।

 

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