मकान की तलाश
रोटी कपड़ा ओर मकान
तीन चीज़ें ही हैं जीवन में महान
पहली दो तो पा लीं पर
भटकता रहा तीसरी के लिये
न जाने कितने दरवाज़े खटखटाये
किस किस से इल्तजा की
क्या क्या पापड़ बेले
पर मकान नहीं मिला
तंग आ कर खुदकशी की ठानी
पर उस में भी हुई यह नादानी
ज़हर खा कर मरने की सोची
ज़हर भी ले आया बाज़ार से
चूहों को मारने के नाम पे
खत भी लिख दिया ताकि
न हो पोस्ट मार्टम भी लाश पर
नजूमी से अच्छा दिन भी पूछ लिया
शुभ काम करने के लिये
यानि कि मरने के लिये
पर अंत समय ध्यान आया
मकान तो है नहीं मरूॅंगा कहाॅं
पार्क में बैठूॅंगा तो
पुलिस पकड़े गी
ज़हर खाने से ही पहले।
सह नहीं सकती वह
मुसीबत पड़े उस के गले।
होटल में जाऊँ गा तो
मुसीबत उन की हो गी
लहज़ा
ज़हर खा कर मरने का इरादा तरक किया
फिर सोचा शादी कर लूॅं
सुसर जो अपनी लड़की ब्याहें गे
उन्हीं के यहाॅं कुछ दिन कट जायें गे।
इश्तहार का जवाब दिया
उन से मिला
छूटते ही पहला सवाल उन्हों ने किया
आप का मकान कहाॅं है
जवाब ज़ाहिर था
और मैं तुरन्त ही उन के घर के बाहर था
लेकिन मैं ने हिम्मत नहीं हारी
एक बड़े मकान की खिड़की तोड़ डाली
अब बड़े घर में हूॅं
खाने पीने को भी मिल जाता है
यार दोस्त भी काफी हैं
तलाश में भटकना नहीं पड़ता
(भोपाल - 18.7.1972
यह कविता एक समाचार पर से लिखी गई थी। अपनी बेटी से शादी से इंकार पर से आशिक ने लड़की के पिता के मकान पर संगबारी की थी।)
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