top of page
  • kewal sethi

भाषा अध्यापन

भाषा अध्यापन


विचार तथा भाषा (अथवा शब्द) एक ही सिक्के के दो पहलू माने जाते हैं। विचार की अभिव्यक्ति शब्दों में ही हो सकती है भले ही वह लिखित में हो अथवा मौखिक। परन्तु इस बात को मान्य करना हो गा कि विचार प्राथमिक हैं। यह सम्भव है कि कुछश् विचार उचित प्रकार से व्यक्त न किये जा सके हों यद्यपि वे अपने आप में सम्पूर्ण हैं। कभी विचार शब्दों से आगे रहते हैं तो कभी शब्द विचारों से मेल नहीं खाते हैं। जीवन शैली किस प्रकार की रही है, यह इस पर भी निर्भर करता है। एक सम्पन्न परिवार का बच्चा जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग करता है वह ग्रामीण क्षेत्र के अथवा एक पिछड़े वर्ग के घर के बच्चे की भाषा से भिन्न हो गी क्योंकि इन में बच्चों को उस प्रकार का वातावरण नहीं मिल पाता जो भाषा के निखरने में सहायक होता है। न केवल यह बल्कि कुछ अध्ययन से पता चलता है कि उन की बुद्धि भी उतनी विकसित नहीं हो पाती है। सामान्य घटनाओं के प्रति उन की प्रतिक्रिया भी अलग प्रकार की होती है।


हम अच्छी भाषा कैसेे सीख सकते हैं, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। यह स्पष्ट है कि इस के लिये अच्छे विचार होना आवश्यक है। पर हमें अच्छे विचार मिलें गे कहाॅं से? उत्तर सरल है - पुस्तकों से। इसी कारण पुस्तक का पठन बाल्य काल से ही अनुशंसित होता है। वास्तव में यह जीवन की सभी अवस्थाओं के लिये आवश्यक है। बच्पन में ही माता पिता द्वारा कहानी सुनाने की परम्परा रही है क्योंकि उस समय बच्चा स्वयं नहीं पढ़ पाता। पर सुनने में तथा पढ़ने में एक अन्तर है कि पढ़ी हुई बात के याद रहने की सम्भावना अधिक होती है। ऊपर हम ने पिछड़े घरों के बच्चों की बात की है, ऐसे छात्रों को कक्षा में विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये ताकि वह भाषा को सही ढंग से सीख सकें। इस के लिये पुस्तक पठन बहुत आवश्यक है, परन्तु यह अन्य परिवारों के बच्चों के लिये भी उतना ही आवश्क है।


पुस्तक पठन कब आरम्भ किया जाना चाहिये? इसे जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी किया जाना चाहिये। ग्रामीण क्षेत्र के एक अध्ययन में यह पाया गया है कि आठवीं कक्षा के कुछ छात्र भी दूसरी कक्षा की पाठय पुस्तक पढ़ने में भी असमर्थ रहते हैं। नगरों में भी स्थित कुछ अधिक भिन्न नहीं है। इस का कारण यही है कि हमारी षालाओं में पठन को अधिक महत्व नहीं दिया जाता। वास्तव में जैसे ही बच्चा पढ़ने के योग्य हो जाये, उसे पढ़ने के लिये पुस्तकें दी जाना चाहिये।


किस प्रकार की पुस्तकें पढ़ी जायें। क्या पढ़ी जाने वाली पुस्तकों पर माता पिता का तथा अध्यापकों को नियत्रण रहना चाहिये। यह महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। सम्भवतः जब तक बच्चा उस स्तर तक नहीं पहुँचता जब अच्छी बुरी पुस्तकों में भेद कर सके तब तक नियन्त्रण रखना उचित हो गा। परन्तु इस में काफी लचीलापन रखना हो गा ताकि यह अनावश्यक नियन्त्रण न बन जाये जिस से पढ़ने की रुचि ही समाप्त हो जाये।


स्पष्टतः ही यह आवश्यक है कि शालाओं की पुस्तकालयों में काफी अधिक संख्या में पुस्तकें होना चाहिये। भारत में शालेय शिक्षा का यह उपेक्षित पक्ष रहा है। आप किसी विख्यात शाला की वैबसाईट भी देखें तो उस में पुस्तकालय के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है। पाठ्यक्रमेत्तर अन्य गतिविधियों जैसे खेल कूद, सांस्कृतिक गतिविधियाँ इत्यादि की जानकारी होती है पर पुस्तकालय के बारे में वैबसाईट मौन रहती हैं।


भाषा सीखने के लिये रचना तथा लेखन की आवश्यकता हो गी। विचारों को व्यक्त करना ही होता है चाहे वह लिखित में हो अथवा बोल चाल में। यदि किसी समूह के सम्मुख बोलना हो तो विचारों के बारे में संक्षेपिका अथवा बिन्दु तैयार करने ही हों गे। वह मन में भी किये जा सकते हैं किन्तु उन्हें कागज़ पर उतारना अधिक सुविधाजनक होता है। यह स्पष्ट है कि किसी बच्चे के लिये अच्छा बोलने से पूर्व काफी बोलना हो गा। इसी प्रकार अच्छा लिखने से पहले काफी लिखना हो गा। दूसरे शब्दों में अभ्यास से ही निपुणता आये गी। इस स्तर पर गुणवत्ता से अधिक परिमाण की आवश्यकता रहती है। इस समय अध्यापक का व्यवहार भी लेख के गुण देखने पर होना चाहिये न कि अवगुण देखने पर। कई बार तो अध्यापक जानबूझ कर दोष निकालते हैं। इस की पृष्ठभूमि में या तो व्याकरण की गल्ती हो सकती है अथवा किसी शब्द का सामान्य बोल चाल की भाषा वाला रूप हो सकता है। यह अनिवार्य है कि लेख किसी पाठक को ध्यान में रख कर लिखा जाये। व्योम में बोलना अथवा लिखना अच्छी रचना अथवा अच्छे लेख के लिये सही नहीं हो गा। भाषा सरल होना चाहिये क्योंकि कलिष्ट भाषा अथवा अति अलंकृत भाषा विचार प्रकट करने के लिये सही माध्यम नहीं है जो कि लेख का मूल उद्देश्य है। साहित्य में यह अच्छा लग सकता है किन्तु एक साधारण लेख में इस से बचना चहिये।


शालाओं में सामान्य परिपाटी यह है कि छात्रों को एक शीर्षक दिया जाता है तथा उन्हें उस पर निबन्ध लिखना होता है। उदाहरण के तौर पर ‘हम ने छुट्टियांँ कैसे मनाईं’। हो सकता है कि कुछ छात्रों ने अवकाश काल का खूब आनन्द लिया हो पर यह भी सम्भव है कि कुछ के लिये यह उबाउ समय रहा हो  और वे अवकाश काल समाप्त होने की प्रार्थना ही करते रहे हों। ऐसे बालक से इस शीर्षक पर अच्छा लेख लिखने की आशा करना उचित नहीं हो गा। इस से अधिक अच्छा यह हो गा कि छात्र को स्वयं अपना विषय चुनने तथा उस पर लेख लिखने की स्वतन्त्रता दी जाये। इस से लेखक का मन उस में रमे गा तथा परिणामस्वरूप लेख सुन्दर हो गा।


कई बार अध्यापक द्वारा छात्रों को समूह के सम्मुख बोलने के लिये भी कहा जाता है ताकि उस की भाषण कला का विकास हो सके। इस में भी लेख के बारे में जो बातें कही गईं है, वही लागू होती हैे अर्थात विशय चुनने की स्वतन्त्रता, तैसारी करने के लिये समय दिया जाना तथा श्रोता को ध्यान में रख कर लेख तैयार करना। इस में एक बात ध्यान में रखने की है कि समूह के समक्ष अच्छे वक्ता को पहले बोलने के लिये कहा जाना चाहिये। कमज़ोर छात्र से अध्यापक के सम्मुख बोलने के लिये कहा जाना चाहिये तथा उस की गल्तियों की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहिये। इस प्रकार गल्तियों के बारे में एकान्त में बताया जाये तथा सार्वजनिक टिप्पणी से बचा जा सकता है जो छात्र को हतोत्साहितकर सकती है।


भाषा की प्रवीणता शिक्षा का श्री गणेश है। यदि आधार सही बना है तो अन्य विषय को सीखना सरल हो जाये गा। अन्ततः शिक्षा का ध्येय सोचने की प्रवृति तथा विचारों को अभिव्यक्ति देना ही है। दूसरे शब्दों में शिक्षा मन को विकसित करने का माध्यम है ताकि छात्र अपने जीवन मे अपने लक्ष्य प्राप्त करने में फल हो सके।

1 view

Recent Posts

See All

creating demand for education the education in india can be cited as an example. there is no demand. it is mostly supply driven. more schools, better buildings, incentives like mid-day meals, uniforms

teaching is an art there was a sports school for animals. the sports chosen were jumping, swimming, running, and flying. all sorts of animals were there as students – elephants, eagles, rabbits, torto

stray thoughts on examinations if there is a survey about examinations, 75.8 percent will say that examinations are evil. what about the remaining 24.2 percent? well, they have never been to a school.

bottom of page