भारत में मुकद्दमेबाज़ी
भारत में मुकद्दमेबाज़ी बहुत है। जो बात आपस में बैठ कर तय हो सकती है, उस के किए भी अदालतों में जाना पड़ता है। इस में सरकार बराबर की बल्कि अधिक की जि़म्मेदार है। मुझे याद है कि एक प्रकरण में हाई कोर्ट ने सरकार के खिलाफ फ़ैसला दिया। किस्सा यह था कि एक कालोनाईज़र सहकारी समिति को भोपाल शहर में ज़मीन अलाट की गई थी। अलाटमेंट था तो सोसाइटी के नाम पर पर असली हितधारी तो एक व्यक्ति था। ज़मीन बहुत मौके की थी। कुछ तो ऐसा हुआ कि मंत्री जी ने इस भूमि का अलाटमैंट रद्द कर दिया। इस के लिए सुनवाई का मौका भी नहीं दिया। व्यक्ति सोसाइटी की ओर से अदालत में गया। हाई कोर्ट में उसे राहत दी गयी। प्रश्न यह उठा कि क्या अब सुप्रीम कोर्ट में जाया जाए। सरकारी कायदे के अनुसार राजस्व विभाग (जिस का मैं प्रमुख सचिव था) को अधिकार नहीं है कि इस बारे में निर्णय ले सके। उस के लिए विधि विभाग से सलाह लेना तथा उस सलाह का पालन करना आवश्यक है।
वह व्यक्ति मुझ से मिला और इस बात का अनुरोध किया कि सुप्रीम कोर्ट न जाया जाए। मैं ने केस तो पूरा देखा था और मैं ने उस व्यक्ति से कहा कि मैं इस बारे में मजबूर हूँ। मुझे पता है कि सुप्रीम कोर्ट से भी फ़ैसला उस के हक़ में ही हो गा पर मैं इस के बारे में यह सलाह नहीं दे सकता कि अपील दायर ना की जाए। इस में दो बातें निहित थीं। एक तो विधि विभाग का मत ही अंतिम हो गा, दूसरे इस का पूरा इमकान था कि कहा जाए गा कि मैं ने किसी लालच में मुक़द्दमा ना चलाने की सलाह दी है। नतीजा वही हुआ जिस की अपेक्षा थी। सुप्रीम कोर्ट ने भी उस सोसाईटी के पक्ष में फ़ैसला दिया और उन्हें वह ज़मीन मिली। पर इस बीच दो तीन साल तो लग ही गये। वास्तव में इस कारवाई से बचा जा सकता था। यह समय और पैसे की बर्बादी थी।
ऐसा एक उदहारण और देना चाहूं गा। उस समय मैं राजस्व मंडल में अध्यक्ष पद पर था। प्रकरण था विक्रय कर के बारे नें तथा विधिक बिंदु था कि कण्टीन की बिक्री पर विक्रय कर लगना चाहिए या नहीं। क्या इसे कर्मचारी कल्याण का मद मान कर छूट दी जाना चाहिए। इस प्रकार के प्रकारण पहले भी आ चुके थे और विधिक बिंदु स्पष्ट था। जब बहस का मौका आया तो वकील ने कहा कि फ़ैसला तो मालूम ही है और वह कुछ कहना नहीं चाहते। एक मिनिट में वह मुक़द्दमा ख़त्म हो गया जो तीन साल से चल रहा था। सवाल यह उठा कि जब क़ानून के बारे में मालूम है तो ऐसा क्यूं किया गया। नियम कहता है कि जब विक्रय कर के खिलाफ कोई अपील की जाती है तो कर की आधी राशि जमा करना पड़े गी। अब यह तो पूरा याद नहीं कि कर की राशि कितनी थी पर सिर्फ़ समझने के लिए कहूँ गा कि कर की राशि मान लो एक करोड़ रुपये थी। कण्टीन विक्रय था पचीस लाख का। कर राशि बनती है एक लाख जिस में फ़ैसले वाली बात थी। केवल पचास हज़ार की बात निहित थी, कर जमा किराया गया अपील के लिए पचास लाख। पचास लाख बच गया। तीन साल में इस पर चौदह प्रतिशत के हिसाब से व्याज बनता है दस या बारह लाख। इतनी राशि बच गयी। वकील को एक लाख देना भी पड़ा तो बात नहीं। शूद्ध मुनाफ़ा नौ या ग्यारह लाख का। कौन नहीं चाहे गा कि इतना लाभ मिल जाए। यही फ़ैसला अगर दो साप्ताह में हो जाए तो इस की आकांक्षा कम हो जाए गी कि कर की पूरी राशि न दी जाए।
मुझे याद है कि मैं ने सरकार को लिखा था कि इस प्रकार का क़ानून बनाया जाए कि जिस कर राशि पर मतभेद नहीं है, उस की पूरी राशि जमा करा दी जाए। जिस राशि पर विवाद है, उस की आधी राशि। तब यह लालच कम हो जाए गा। पर इस तरह का काम करना भी शायद सरकार को पसंद नहीं है।
जो हो इस तरह के मुक़द्दमे से एक तरफ तो सरकार की हानि होती है, दूसरी और अत्यधिक प्रकरण होने से फ़ैसले भी जल्दी नहीं आते। दोनो ओर से प्रकरण करने वाले को फायदा होता है। इस में मैं इस बारे में बात नहीं कर रहा कि क्या यह नैतिकता का तक़ाज़ा है कि नहीं कि क़ानून की जानकारी होते हुए भी इस तरह की कारवाई की जाए। वो पुर समाज के नैतिक मूल्यों की बात है जिस को हम यहाँ उठाना नहीं चाएँ गे।
अपरधिक प्रकरणों में भी इसी प्रकार की प्रवृति देखी जा सकती है। तारीख पर तारीख के बारे में काई बार कहा जा चुका है। यह तारीखें दो कारणों से पड़ती हैं। एक तो मुक़द्दमों की संख्या इतनी अधिक है कि जज कम पड़ते हैं। दूसरे वकीलों का काम ही यह है कि तारीख लेते रहें। इसी में उन का फायदा है। उन्हें हर तारीख के पैसे मिलते हैं। जज व्यस्तता के कारण या फिर इस योग्य ना होने के कारण कि वकीलों को कण्ट्रोल कर सकें, तारीख देना मान जाते हैं। जज या तो समय की कमी के कारण या फिर मेहनत से बचने की प्रवृति के कारण वकीलों को कुछ कह भी नहीं सकते।
दीवानी प्रकरण चले गा, एक से दूसरी अदालत में। अगर सब जगह से हार भी जाते हैं तो भी दस बराह साल तो कहीं नहीं गये। इस के बाद डिक्री हो गी। उस पर से फिर कारवाई हो गी। दो चार साल उस में निकल जाएँ गे। उस में अदालत दस प्रतिशत व्याज भी दूसरी पार्टी को शायद दिला दे। पर बैंक से करज़ा लेते तो चौदह पंद्रह प्रतिशत व्याज देना पड़ता, वो भी चक्रवर्ती व्याज। हर तरफ से फायदा ही फायदा है। सारी बात समय लगने की है। अपील, रिविज़न, रिव्यू काई तरह के हथियार दे रखे हैं इंसाफ़ को रोकने के लिए। अभी केजरीवाल ने मान हानि के प्रकरण में क़ानून को ही चनौती दे डाली। अब इस का फ़ैसला पाँच सात साल तो आने से रहा। (हैरानी की बात यह है कि अपने मामले में कानून को चुनौती दे रहे हैं किन्तु मीडिया को इसी कानून के तहत धमकी भी दे रहे हैं। इस प्रकार के दौहरे मापदण्ड से ही तो न्याय का मज़ाक उड़ता है)
स्थिति में दिनों दिन गिरावट ही आ रही है पर हमारे कोर्ट और क़ानून बनाने वाले इस बारे में कुछ सोचने को तैयार नहीं हैं। इस से हमारी पूरी सभ्यता को ही ख़तरा पैदा हो गया है। अगर फ़ैसले कोर्ट में नहीं हो सकें गे तो कोर्ट के बाहर हों गे। गुण्डों की मदद लेना शुरू हो गया है। अगर ऋण की वापसी सीधे नहीं होती है तो धमकी और अपराध की माध्यम से वापस लेने का आर्कषण बढ़ जाए गा। एक आध महीने पहले कोर्ट में ही कत्ल के दो अपराधियों को गोली मार दी गई और अपनी तरफ से फ़ैसला कर दिया गया।
इस समस्या को सही ढंग से समझने पर ही इस का इलाज किया जा सकता है। पर क्या हमारे जज और राजनैतिज्ञ इस बात को समझते है। इस में शक है। आज हमारे अपराधिगण को पुलिस से या कोर्ट से डर नहीं लगता है। लोगों को भी इस बारे में पूरा ज्ञान नहीं है। रेप हुआ तो उस की सज़ा सात साल से बढ़ा कर दस साल कर दी या मौत की सज़ा भी संगीन जुर्मों में देने की बात कर दी। जब पता है कि सज़ा का जल्दी कोई इमकान नहीं है तो सात क्या और दस क्या।
पहले हम को रोग को समझना हो गा। मेरे विचार में कुछ बातें इस प्रकार हैं -
1. कोर्ट में झूट सीधे अथवा परोक्ष रूप से बोलने पर कोई सज़ा नहीं है (यह बात वकीलों पर भी लागू होती है जो जान बूझ कर ग़लत तर्क प्रस्तुत करते हैं।)
2. प्रकरण करने का अधिकार दिया गया है पर न्याय के अधिकार से वंचित रखा जाता है। क़ानून के पालन पर ज़ोर नहीं दिया जाता।
3. प्रकरण करने से दूसरे पक्ष को परेशानी होती है, इस कारण भी प्रकरण दायर किए जाते हैं।
4. ज़मानत देने, सज़ा की अवधि, सम्पत्ति के प्रकरणों में ढील दिए जाने की बात को जज के विवेक पर छोड़ दिया जाता है, इस से भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिलता है।
5. न तो सरकारी कर्मचारियों की और ना ही न्यायिक अधिकारियों की कोई जवाबदेही के प्रावधान हैं। कभी किसी न्यायिक अधिकारी को ग़लत फ़ैसला देने पर दण्डित नहीं किया गया है। भले ही इस के लिए उस की भर्त्सना के दो एक उदहारण मिल जाएँ। एक प्रकरण केरल का था जिस में एक व्यक्ति को प्रतिबाधित दवाई रखने पर दस साल की क़ैद सुनाई गयी। हाई कोर्ट में भी यह फ़ैसला बहाल रहा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उस व्यक्ति को छोड़ दिया जाए क्युंकि एक तो उस के पास जो दवाई थी वो एक डाक्टर के प्रिस्क्रिप्शन पर थी और दूसरे दवाई की मात्रा 100 मिली लिट्टर से कम थी जो अपराध की श्रेणी में आता ही नहीं है। इस बीच सात साल वह व्यकित जेल में काट चुका था। पर ना तो उसे प्रतिपूर्ति स्वरूप कुछ दिया गया ना ही उन जजों पर कोई कारवाई हुई जो क़ानून की इस सीधी सी बात को भी नहीं समझ पाए।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक कारवाई के लिए जवाबदेही तय नहीं की जाए गी तब तक यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि कोई भी व्यकित पूरी जि़म्मेदारी से अपना काम कर सके गा। और जब तक ऐसा नहीं हो गा तब तक सुधार की गुंजाइश भी कम ही रहे गी। आज क माहौल में दो एक बातें उल्लेखनीय हैं -
1. भारत में व्यापार के हित को जनहित नहीं माना जाता है। जहाँ पर भी गुंजाइश हो, वहाँ पर फ़ैसला व्यापारी के विरुद्ध ही होता है। इस का एक कारण यह है कि व्यापारी तो अदालत में जा कर फ़ैसले को बदलवा सकता है लेकिन अगर फ़ैसला व्यापारी के हित में दे दिया जाए और बाद में इसे ग़लत पाया जाए तो उस अधिकारी की मुसीबत हो जाए गी। प्रथम दृष्टया यह माना जाए गा कि इस तरह का फ़ैसला देने में अधिकारी का कोई अनैतिक कारण हो गा। इस कारण अधिकारी व्यापारी के पक्ष में कोई र्निणय लेने से घबराते हैं।
2. आडिट में यदि कोई आदेश सही नहीं पाया गया तो भी अधिकारी को ही जवाब देना हो गा। आडिट के साथ आज कल तो पीत पत्रकारिता भी हावी हो जाती है। पीत पत्रकारिता अब केवल कुछ चुने हुए स्थानीय छोटे अख़बार तक सीमित नहीं रह गई हैं। दशकों से चल रहे बड़े अख़बार भी इस में आ गये हैं। इस पर दूर दर्शन ने अपना अलग रंग जमा लिया है। इस कारण भी अधिकारी व्यापारी के हक़ में कोई फ़ैसला देने से परहेज़ करता है। और अब तो सूरत यह हो गयी है कि रिटाइर्यमेंट के बाद भी उस पर प्रकरण दायर किया जा सकता है और इस में सरकार की मंज़ूरी की भी ज़रूरत नहीं होती है। इन हालात में प्रकारणों की संख्या में वृद्धि होना आश्च्र्यजनक नहीं है।
3. अदालतों में इस देरी का मतलब उन गुनाहों के भी सज़ा देने का हो जाता है जो कभी किए ही ना गये हों। उदहारण के तौर पर साध्वी प्रज्ञा का प्रकरण लें। उसे जेल में बंद रखने के लिए यह कहा गया कि वह आदतन ऐसे गुनाह करने वाली है और इस कारण मकोका उस पर लागू होता है तथा इस कारण उसे ज़मानत नहीं दी जा सकती। यह आवेदन मान भी लिया गया। ना केवल नीचे की अदालत में बल्कि हाई कोर्ट ने भी इसे माना। पांच साल जेल में रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मकोका का कोई प्रकरण नहीं बनता है। अब एक प्रकरण रह गया जिस में केवल यह बात आती है कि उस ने जो मोटरसाईकल बेचा था, उस का इस्तेमाल बम्ब फैंकने में किया गया। शायद कुछ सालों के बाद यह कहा जाए कि इस विक्रय का कोई संबंध उस बारदात से नहीं है। पर साध्वी को मकोका में बंद रखना एक राजनैतिक ज़रूरत थी, जिस की पूर्ति हो गयी। बाद में क्या होता है, इस से फरक नहीं पड़ता है। और अदालतों पर भी कोई फरक नहीं पड़ता है।
इस तरह के और कई उदहारण दिए जा सकते हैं। तब फिर इस का इलाज क्या है। न्यायपालिका से जब कहा जाता है तो उस का सीधा उत्तर होता है कि जज कम हैं। परन्तु केवल जजों की संख्या बढ़ने से काम नहीं चले गा क्युंकि बीमारी की जड़ और जगह है। जिस तरह पौधे को बीमारी हो जाए तो उसे अधिक पानी देने से वो बीमारी नहीं जाए गी, उसी प्रकार जजों की संख्या बढ़ने का कोई प्रभाव मुक़द्दमेबाज़ी पर नहीं पड़े गा। उस के लिए मानसिकता बदलना हो गी। जजों की भी और वकीलों की भी और सरकारी अधिकारियों की भी। क़ानून की व्याख्या हमेशा सरकार के खिलाफ या व्यापारी के खिलाफ ना हो कर न्याय के हक़ में ही होना चाहिए तभी बात बने गी। न्यायाधीशों को अपनी और दूसरों के निर्णयों की समीक्षा करना हो गी तथा यह समझना हो गा कि वह समाज तथा जनता के प्रति जवाबदेह हैं। गल्त निर्णय पर जि़म्मेदारी तय करना हो गी तथा प्रभावित पक्षकार को प्रतिपूर्ति देना हो गी जिस की वसूली सम्बन्धित अधिकारी, जज से की जाना हो गी। सम्भवत: इस के लिये पूरी न्याय व्यवस्था ही बदलना पड़े।
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