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भारत की प्रगति - हम कहाॅं चूक गये

भारत की प्रगति - हम कहाॅं चूक गये


प्रत्येक राष्ट्र को अपने स्वयं के समय की कसौटी पर खरे उतरे आधार तथा सामाजिक संरचना एवं अपने नागरिकों की अन्तर्निहित प्रकृति पर से अपना निर्माण करना चाहिये, परन्तु हम अपनी मूल संस्कृति को भूल कर विदेशों से सामाजिक, शैक्षिक, कार्य सम्बन्धी मूल्य तथा प्रशासनिक विधायें उधार ले लेते हैं। इस का परिणाम हमें चारों ओर देखने को मिलता है। हमारे शासक तथा व्यवसायिक वर्ग केवल अपने हितों के बारे में ही सोचते हैं। उन के पास न तो कोई दूर दृष्टि है, न ही उन का कोई चरित्र है, तथा न त्याग तथा सेवा की भावना जो हमारे भारतीय लोकाचार के मूल आधार हैं।


हमारे समाज के सामने कोई ऐसा लक्ष्य अथवा ध्येय नहीं है जो हर किसी को मान्य हो, यहाॅं तक कि देश प्रेम का जज़बा भी नहीं। न ही ‘कर्म ही पूजा है’ का सिद्धाॅंत जो हमारे पूर्वजों ने अपनाया था, अब हमारे पास है। यह बात विशेष रूप से राजनीतिक स्तर पर लागू होती है। हर विषय पर राजनीतिक दल केवल मतदाता बैंक को ध्यान में रख ही आपस में झगड़ते रहते हैं। हमारा बुद्धिजीवी वर्ग भी हमें जोड़ने की बजाये अलग अलग करने में विश्वास रखता है। आज कोई भी कर्तव्यपरायणता के लिये, कार्य कुशलता में उत्कृष्टता, अन्य व्यक्ति के प्रति संवेदना की भावना के प्रति समर्पित नहीं है। हमारा शिक्षित वर्ग भी केवल आम व्यक्ति का शोषण करता है। वास्तव में भौतिक सुख एवं विलास का आकर्षण इतना बढ़ चुका है कि सम्बन्धों की बात गौण हो गई है। सहिषुणत्ता एवं सहनशीलता अब समाप्त प्रायः है।


इस सब में आचर्यजनक बात यह है कि कोई भी इस के लिये उत्तरदायी नहीं है। हो भी कैसे सकता है क्योंकि प्रजातन्त्र में अल्पकालिक हित ही होते हैं। दल तथा सरकार में परिवर्तन होता है, दल आते हैं जाते हैं। अधिकारियों के स्थानान्तर होते हैं, पदोन्नति होती है। अधिकारी वर्ग अपनी अक्षमता की सीमा तक पीटर सिद्धाॅंत के अनुरूप ऊपर च़ढ़ते रहते हैं। एक और हास्यास्पद बात यह है कि हम अपात्र लोगों को अपने पर शासण करने के लिये स्वीकार कर लेते हैं। चुनाव पद्धति इस प्रकार बनाई गई है कि हमारे पास ऐसा कोई तरीका नहीं है जिस से हम अच्छे लोगों को अच्छे स्थानों पर ला सकें तथा अक्षम लोगों को बाहर का रास्ता दिखा सके।


यह स्थिति आज की नहीं है वरनृ् कई दशकों से चली आ रही है। इसी संदर्भ में स्वामी विवेकानन्द का कथन है - ‘‘सभी प्रकार की संरचनायें, चाहे वे सामाजिक हों अथवा राजनीतिक, मानव की अच्छाई पर आधारित होती हैं’’। कोई राष्ट्र इस कारण बड़ा अथवा अच्छा नहीं होता है कि संसद ने इस कानून अथवा उस कानून को पारित किया है। जिस प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के लिये हम संघर्ष कर रहे है, वह पश्चिमी देशों में शताब्दियों से है तथा वहाॅं का भी अनुभव है कि उसे कमज़ोर पाया गया है। 


इस कमज़ोरी में एक बड़ा योगदान हमारी शैक्षिक व्यवस्था का है जो सिवाये लिपिक बनाने की सक्षम मशीन के अतिरिक्त कुछ नहीं है। यह पद्धति जीवन निर्माण, मानव निर्माण, चरित्र निर्माण के लिये उपयुक्त नहीे है। इस से विचारों को हम आपने भीतर ग्रहण करने की कला विकसित नहीं हो सकती है। हिन्दु धर्म अथवा सनातन धर्म ने पाॅंच आदर्शों को आवश्यक माना है। यह हैं -

अहिंसा - किसी के प्रति वैरभाव न रखना तथा हानि न पहुॅंचाना;

सत्य;

अस्तेय - किसी की वस्तु को छलपूर्वक न लेना;

ब्रह्मचर्य - मन तथा ारीर पर नियन्त्रण;

अपरिग्रह - इच्छावों को सीमित करना तथा व्यर्थ की वस्तुओं को त्याग देना।


इन पाॅंच आदर्शों को यदि जीवन तथा चरित्र में समावेश कर लिया है, तो आप की शिक्षा किसी अन्य की शिक्षा से अधिक लाभकारी है। हमें वह शिक्षा चाहिये जिस से चरित्र का निर्माण होता है, मन की शक्ति का विकास होता है, तथा जिस से व्यक्ति अपने पैरों पर खड़े होने के योग्य हो जाता है। पश्चिमी विज्ञान को अस्वीकार नहीं किया जाना है परन्तु इस में मद, लोभ, मोह, अहंकार को आधार बनने नहीं दिया जाना चाहिये।

यह पाॅंच आदर्श पूरे समाज के लिये हैं। इन के अतिरिक्त व्यक्ति के लिये भी कर्तव्य अथवा सिद्धाॅंत निर्धारित किये गये हैं। यह हैं -

शौच - स्वच्छता, मन तथा शरीर को शुद्ध रखा जाना;

संतोष - जो है, उस में प्रसन्न रहना (इस में आगे बढ़ने के लिये परिश्रम करना वर्जित नहीं है);

तप - वास्तविक अर्थ है जीवन की विषम स्थितियों में अविचिलित रहना (शरीर को कष्ट देना इस में सम्मिलित नहीं है);

स्वाध्याय - शुद्ध साहित्य का अध्ययन, स्वयं को ज्ञानवान तथा अद्यतन जानकारी से अवगत रखना;

प्रणिधान - समर्पण की भावना से कार्य करना तथा ईश्वर की प्र्रवृति तथा गुणों को मन में रखना।


इस सन्देश को अपने तक सीमित नहीं रखना हो गा। इसे मानवता तक पहुॅंचाना हो गा। कुछ मूल सिद्धाॅंत ऐसे होते हैं जो पंथ विशेष के हो कर भी पूरे मानव समाज के लिये होते हैं। हम भारतवासियों को तो यह विरासत के रूप में प्राप्त हुए हैं। इन का पालन करने से ही देश के प्रगति के द्वार खुल सकें गे।


सभी सामाजिक, समानवादी परिकल्पनाओं का आधार यही अध्यात्मिक विचार है कि सभी में एक ही शक्ति, क्षमता तथा जीवन है जिसे आप ईश्वर कहें अथवा किसी अन्य नाम से बुला सकते हैं, यह मनुष्य के ऊपर है। कार्य तथा जीवन का प्रयोजन अपनी क्षमताओं की अधिकाधिक अभिव्यक्ति अपने हर विचार, शब्द तथा कर्म में प्रदर्शित हो, यही सभी व्यवस्थाओं की प्रमुख केन्द्रीय बिन्दु होना चाहिये। अपनी शिक्षा, अपने व्यवहार को इस के अनुरूप ढालना हो गा।


हमें दीर्घ काल से सिद्ध भारतीय ज्ञान के आधार पर दीर्घ काल के समाधान पाने के लिये गम्भीरतापूर्वक मणन करना हो गा।

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