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भारत के ग्राम - परिकल्पना तथा वास्तविकता

  • kewal sethi
  • Nov 10, 2020
  • 10 min read

भारत के ग्राम

परिकल्पना तथा वास्तविकता

नवम्बर 2020


भारत में स्मृद्ध नगरों की एक लम्बा इतिहास रहा है, परन्तु फिर भी भारत को ग्रामों का देश बताया जाता है। इन ग्रामों के कारण भारत को स्थिरता के परिचायक के रूप में पेश किया जाता है जिस में सदैव एक निरन्तरता तथा अक्षुणता बनी रही है। ऐसे ग्रामों को स्वयंपूर्ण, लोकतन्त्र संचालित ईकाईयों के रूप में दर्शाया गया। गाॅंधी जी ने इसी भावना को अपनाते हुये अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में ग्रामों के सूक्षम लोकतन्त्र होने के विचार का प्रतिपादन किया।


भारत के स्वनियंत्रित ग्राम प्रधान होने का तथा इसे इसे स्थिरता का द्योतक मानने का सिलसिला कब आरम्भ हुआ, इस पर विचार करना उचित हो गा। वास्तव में इस धारणा के प्रचार के पीछे एक दूसरी मनोवृति थी। उपनिवेषक अधिकारियों ने तथा पूर्व के अध्ययन कर्ताओं के वृतान्त में इस प्रकार के कल्पित ग्रामों का उल्लेख किया गया हैं। ग्रामीय प्रजातन्त्र के बारे मे ंपहला उल्लेख थामस मुनरो के एक प्रतिवेदन में वर्ष 1830 में हुआ था। इसी प्रकार ग्रामीय समाज की बात मैटकाफ ने लगभग इसी समय की थी। इन लोगों के अनुसार शताब्दियों से ग्रामों में स्थिर समाज रहा है जिस कारण उस काल में भी, जहाॅं कुछ भी स्थिर नहीं था, स्थिरता को बनाये रखा। इस प्रकार के वृतान्त अ्रग्रेजों में तथा युरोप के अन्य देशों में काफी बड़ी संख्या में प्रसारित हुये। उन्हों ने भारतीय ग्राम को अथवा इस के विचार को दीवार पर अंकित आकृति सदृष बना दिया है। इस के आधार पर मानवीय प्रगति तथा सामाजिक रूप रेखा के कई सिद्धाॅंत बनाये गये। कार्ल माक्र्स ने भी इन का इस्तेमाल अपनी पुस्तक दास केपीटल में किया है। इस परिकल्पना के पीछे एक महत्वपूर्ण राजनैतिक प्रयोजन था। चूॅंकि ग्राम स्वयंपूरित ईकाईयाॅं थीं, इस कारण यह महत्वपूर्ण नहीं था कि देश के शासक कौन हैं। वह हिन्दु हों, मुस्लिम हों अथवा सिख, इस से अन्तर नहीं पड़ता तथा इस कारण अ्रग्रेजों द्वारा शासन सम्भालना भी जायज़ ही माना माना जाये गा। ग्रामों का यह रूप प्रशासकीय व्यवस्था का आधार बना। इस आधार को ही इस उपमहाद्वीप पर अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये उपयोग में लाया गया।


सूक्षम, स्वयंपूरित (सिवाये केन्द्रीय शासन को अपना राजस्व देने के) लोकतन्त्र श्रृंखला की इस अवधारणा का प्रचार तथा प्रसार युरोप में काफी व्यापक था। यही बात कार्लमाक्र्स जैसे विद्वानों को भारत की सामाजिक स्थिति पर टीका टिप्पणी करने में सहायक बनी। पाश्चात्य रंग में रंगे तथा इंगलैण्ड में प्रशिक्षित भारतीय लोागों ने भी इसे ही वास्तविकता माना और इसे भविष्य के आदर्श रूप में धारित किया। गाॅंधी जी भी इस विचारधारा से अछूते नहीं रहे। उन्हों ने इस विचार को अपनाया तथा इस को प्रसाारति किया। परन्तु इन सब विद्वानों ने इस अलगाव को आर्थिक प्रगति में आर्थिक प्रगति में बाधक माना। उन के अनुसार औद्योगिक प्रगति तभी हो सकती है लोग एक दूसरे के साथ मिल कर काम करें। एसैम्बली लाईन की पद्धति यहीं से आरम्भ हुई थी। े

परन्तु ग्रामीय लोकतन्त्र की यह अवधारणा वास्तविकता से काफी दूर थी। वास्तव में भारत में तीन प्रकार के ग्राम थे। एक तो सकेन्द्रिक ग्राम थे जिन में मकान तथा गलियाॅं काफी पास पास थीं तथा ग्रामवासी भी संसक्तिशील थे। इस प्रकार के ग्राम (अथवा लगभग ऐसे ग्राम) विशेष रूप से उत्तरपश्चिम भारत (वर्तमान पाकिस्तान) तथा तमिलनाडु में थे। दूसरे प्रकार के ग्राम वे थे (जिन को ऊपरलिखित आदर्श माना गया) जिन में कई बस्तियाॅं थी जिन में आपसी आदान प्रदान सीमित था परन्तु फिर भी वह पास पास थे। इस प्रकार के ग्राम पूरे उत्तर भारत में, महाराष्ट्र, तमिननाडु तथा आॅंध्र प्रदेश में व्यापक रूप से थे। तीसरी प्रकार के ग्रामों में कोई केन्द्र नहीं था। अलग अलग मकान काफी फासले पर बने थे। यह अधिकतर केरल में तथा मध्य भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में थे।


यथार्थ रूप से देखा जाये तो भारत के ग्राम कभी भी समरूप अथवा समांगी नहीं थे। घर्म के कारण अथवा जाति के कारण इन के निवासियों के लिये यह आवश्यक तथा सुविधाजनक था कि वह एक सीमित क्षेत्र में अपने रीति रिवाज से तथा अपने अग्रजनों के साये में रहें। सकेन्द्रित ग्रामों में भी यही स्थिति थी। यह कहना सही नहीं हो गा कि इस दूरी के कारण हिंसा अथवा वैमनस्य की प्रवृति थी। विभिन्न समुदायों के अग्रजन आपस में सम्बन्ध रखते थे तथा आपसी सहयोंग से एक शाॅंतिपूर्ण सह आस्तित्व बनाये रखते थे। छोटी मोटी घटनायें तो रहती ही थीं परन्तु यह गम्भीर प्रकार की नहीं थीे, जब तक कि एक जाति विशेष का पलड़ा बहुत भारी न हो जाये या कोई विशेष परिस्थिति न बन पाये। इस शाॅंतिपूर्ण व्यवस्था का एक बड़ा कारण जजमानी पद्धति का था। इस में प्रदाता तथा प्राप्त कर्ता में एक ऐसा सम्बन्ध स्थापित रहता था जो दोनों पक्षों द्वारा मान्य था तथा सह आस्तित्व को तथा संतुलन को बनाये रखता था। इसी कारण यह संतुलन दूरी तथा विरोध होते हुये भी शाॅंतिपूर्ण ग्रामों की धारणा को पोषित करता था तथा अपनी कल्पना की उड़ान से इसे सूक्षम लोकतन्त्र का स्वरूप प्रदान करता था।


परन्तु फिर रुडयार्ड किपलिंग जैसे लोग आये जिन का विचार था कि ब्रिटिश लोगों को पूरे संसार को सुसंस्कृत करने का दायित्व दिया गया है। इसी धारणा के तहत अंग्रेज़ों ने ग्रामों में भी आधुनिकता लाने के लिये प्रयास आरम्भ किया। इस के लिये विभिन्न स्तर पर सरकारी अमला तैनात किया गया। ग्रामवासियों को इस बात के लिये प्रेरित किया गया कि वह अपनी कठिनाईयों को दूर करने के लिये सरकारी अधिकारियों से सम्पर्क करें। इस से पूर्व भूमि तथा अन्य विवादों में वह ग्राम की गणमान्य व्यक्तियों की पंचायत को ही निवेदन करते थे तथा बाहरी व्यक्तियों की सहायता इच्छित नहीं थी। इस स्थिति में परिवर्तन ही नई नीति का उद्देश्य था। ग्रामवािसयों को शासन पर निर्भर बनाने की ओर यह महत्वपूर्ण कदम था।


ग्रामों के जीवन को सुप्रकाशित करने का भार सम्भालने की वकालत करने वाले कार्लमाक्र्स जैसे समाजवादी विद्वानों ने इस संरोधन को अलगाव की संज्ञा दी तथा इसे भौतिक प्रगति में बाधक माना गया। समय पा कर यह दृष्टिकोण एक प्रभावी विचार के रूप विकसित हुआ। नेहरू तथा उन के साथी व्यक्ति इन समाजवादी दार्शनिकों के मुुरीद बन गये तथा जैसे ही उन्हें अवसर मिला, उन्हों ने इसे नीति रूप में अपना लिया।


इस विचारधारा का परिणाम यह हुआ कि स्वतन्त्रता के पश्चात सरकार ने इस तथाकथित पिछड़ेपन को समाप्त करने के लिये कई कार्यक्रम आरम्भ किये। दुर्भाग्यवश इस में उन को मुख्य औज़ार पूरी प्रक्रिया को धन प्रदाय से जोडना था। उस में मुख्य तर्क यह था कि यदि ग्रामीण व्यक्तियों के हाथ में अधिक पैसा आये गा तो उन की प्रगति तीब्रता से हो सके गी तथा उन में आधुनिकता आ जाये गी। धन प्रदाय द्वारा परिवर्तन की यह मनोवृृति अभी तक चल रही है। अधिकतर भारतवासियों ने इस सरकारी धन प्राप्ति की बात को आत्मसात कर लिया है तथा अनुदंान एयं वित्तीय पोशण की यह पद्धति दशकों बाद अभी भी क्रियाशील है बल्कि पहले से अधिक विकसित हुई है। भारतीय अब इस के इतने आदी हो गये हैं कि इस प्रक्रिया को रोकना कठिन है। चाहे रेल दुर्घटना हो अथवा बलात्कार पश्चात हत्या की घटना, सरकार की पहली प्रतिक्रिया परिवार को अथवा पीड़ित व्यक्ति के लिये अनुग्रह राशि की घोशणा होती है। तथा यह पीड़ित व्यक्ति की आकांक्षा भी रहती है। यहाॅं तक कि पुलिस कार्रवाई में मारे गये अपराधियों ेंके परिवार के लिये भी अनुग्रह राष्तिता की माॅग की जाती है तथा दी जाती है। इस मुफ्तखोरी में बार बार किसानों का ऋण माफ करने की बात भी शामिल की जा सकती है। छात्रों को लैप टाप देने, वर्दी देने की बात भी इस में आ जाती है। अद्यतन उदाहरण किसान सम्मान निधि का है।


इन नई योजनाओं के माध्यम से ग्रामों में बाहरी तथा शासकीय हस्तक्षेप की भावना बढ़ गई क्योंकि इस में आर्थिक सहयोग के लिये राशि का वितरण शामिल था। जो पूर्व से संतुलन चला आ रहा था, उस में विघ्न पड़ गया। नये शासक भौतिक प्रगति पाने तथा दर्शाने के लिये इतने उत्सुक थे कि उन्हों ने इस हस्तक्षेप का क्या प्रभाव सामाजिक जीवन पर पड़े गा, इस के बारे में कभी सोचा ही नहीं।


इस हस्तक्षेप में एक महत्वपूर्ण बिन्दु भूमि सम्बन्धी सुधारात्मक कार्रवाई थी। इस में वास्तव में आश्य यह था कि भूमि उसे मिले जो उसे जोत रहा है। 1952 में इस कानून को बनाते समय इस में कई छिद्र रह गये थे जिस से अधिनियम की सदाश्यता को अनदेखा करते हुये कोई विशेष्तता उपलब्धि नहीं हो पाईं। लगभग बीस साल बाद 1970 के आसपास इन कमियों को दूर करने का प्रयास किया गया। परन्तु इस समय तक काफी भूमिधारी अपनी भूमि को अधिकतम सीमा के भीतर लाने में सफल हो गये थे जिस में बटवारा तथा अन्य तरीके शामिल थे। इस कारण इन संशोघनों के उपरान्त भी आंशिक सफलता ही मिल पाई। किसान तथा कृष्तिता मज़दूर के सम्बन्ध पूर्व की भाॅंति ही हावी रहे।


संतुलन में वास्तविक बदलाव एक दूसरी दिशा से आया। हरित क्रॅंति ने कृष्तिताक अर्थव्यवस्था में भारी परिवर्तन किया। इस के कारण ही कृशि में मशीनीकरण तथा नकद फसलों के चलन में वृद्धि हुई। इस पूरे परिवर्तन को एक बहृद सफलता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। परन्तु इस का क्या प्रभाव ग्रामों की सामाजिक व्यवस्था पर पड़ा, इस का अध्ययन किया जाना उचित हो गा। उन्नत बीजों के लिये अधिक मज़दूरों की आवश्यकता हुई। परिणामस्वरूप उन की मज़दूरी में भी वृद्धि हुई। दूसरी ओर नये काम धन्धों में अधिक लोग लगे और स्थानीय मज़दूर मिलने कम हो गये। इस के फलस्वरूप देश के एक भाग ये दूसरे भाग के लिये पलायन में वृद्धि हुई क्यों कि दुर्भाग्य वश सभी क्षेत्रों को विकास एक समान नहीं हुआ।


इस के पश्चात मनरेगा- महात्मा गाॅंधी राश्टीय रोज़गार योजना - के कारण कृशिक अर्थव्यवस्था में भारी परिवर्तन आया। इस से पूर्व भी इसी प्रकार की कई योजनायें थीं जैसे काम के बदले अनाज; राश्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना इत्यादि किन्तु वह लघु पैमाने पर थीं जब कि मनरेगा इन के सामने एक बृहद योजना थी। आय के इस नये स्रोत ने कृशि मज़दूरों के पारिश्रमिक में काफी उछाल को बल दिया। इसी का परिणाम ग्रामीण क्षेत्र में खलबली के रूप में देखने को मिला। इस से उन प्रभावी वर्गों के - जो पुरानी यादों में बसे थे - और पूर्व में वंचित वर्गों - जो परिवर्तित सम्बन्ध चाहते थे - बीच टकराव समाने आया।


हरित क्राॅंति का एक अन्य परिणाम सम्पन्न किसानों के रूप में सामने आया। इस के फलस्वरूप ग्रामीण जगत में एक नया सामाजिक समूह उभरा जिन के पास इतना समय था कि वह राजनीति, व्यापार तथा अन्य कृशेत्तर क्षेत्रों में ध्यान लगा सकते थे।


आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को भी नई स्मृद्धि नई योजनाओं के कार्यान्वयन तथा प्रत्यक्ष सहायता से मिली तथा कई लोगों ने कृशि मज़दूरी का कार्य छोड़ कर दूकानदारी, तकनीकी कामगरी का कार्य आरम्भ कर दिया अथवा शासकीय सेवक बन गये। उन्हों ने अपनी बढ़ती हुई स्मृद्धि के अनुरूप नई प्रतिश्ठा की माॅंग की। दूसरी ओर पूर्व के प्रभावी वर्ग अपना वर्चस्व छोड़ने को तैयार नहीं थे।


इस घटनाक्रम से दोनां वर्गों में टकराव की स्थिति उत्पन्न होना कोई अजीब बात नहीं है। यह टकराव राजनैतिक क्षेत्र में भी देखने को मिलता है। सम्पन्न किसानों द्वारा अपने जैसे दूसरे राज्यों के वैसी ही स्थिति में स्थित किसानों से बंधित समूह बनाने की प्रवृति स्वाभाविक है। इस गठजोड़ का राजनैतिक शक्ति के लिये प्रयास करना भी स्वाभाविक ही है। यही बात पूर्व वंचित तथा हाल में ही सम्पन्न व्यक्तियों के लिये भी सही है। राजनीति में वर्ग हित की इस प्रवृति के कारण (देश अथवा राज्य की) समन्वित प्रगति को नज़र अंदाज़ किया जाता है।


ग्रामीण जगत में बदलते हुये पर्यावरण का एक अन्य पक्ष राजनैतिक विकेन्द्रीकरण की नीति है। इस से राजनैतिक संघर्श को ग्रामीण स्तर तक पहुॅंचान में काफी सहायता मिली है। इस में आरक्षण तथा मुुख्य पद को पुरुश एवं महिला में बारी बारी देने का निर्णय भी परिवर्तित सम्बन्धों का कारण है। आरम्भ में ग्राम के प्रभावी व्यक्तियों का ही श्रेश्ठ पदों पर वर्चस्व रहा तथा जहाॅं महिला को भी चुनने की बंदिश थी, वहाॅं पर भी परिवार के मुख्य पुरुश का ही दबदबा रहा। परन्तु यह स्थिति अब बदल रही है। न केवल महिलायें बल्कि अन्य जाति के व्यक्ति भी अब अपने अधिकारों के प्रति सजग एवं आक्रामक हो रहे हैं।


एह महत्वपूर्ण गतिविधि गत दो अथवा तीन दशक में तेज़ी से हो रहा नगरीयकरण है। जनगणना नगरों की 2001 की जनगणना में संख्या 1362 थी जो 2011 की जनगणना में बढ़ कर 3894 हो गई अर्थात दस वर्श में लगभग तीन गुणा वृद्धि। इस गति से संख्या की वृद्धि के कई कारण हैं जिन में इस समय जाने की आवश्यकता नहीं है। जो बात ध्यान देने योग्य है, वह यह कि इस नगरीयकरण के बावजूद अभी तक हमारें मन में यह धारणा बनी हंुई हैं कि भारत ग्रामों में वास करता है। हमारी मनोवृति में इस धारणा का बना रहना यह दर्शाता है कि कहीं तो हमारे विकास कार्यक्रम में कोई चूक हुई है।


भारत में अभी भी नगरीय मानसिकता में गा्रम को सदैव गरीबी, अंध विश्वास, शोशण और अस्वच्छता का प्रतीक दर्शाया जाता है जैसा कि उस समय था जब नेहरू ने 1945 में गाॅंधी जी को अपने पत्र में ग्राम को एक नरक की संज्ञा देते हुये कहा था, ‘‘मुझे समझ नहीं आता है कि किसी ग्राम को कैसे सत्य तथा अहिंसा का वासस्थान माना जाये। गाॅंव सामान्य रूप से बौद्धिक एवं साॅंस्कृतिक रूप से पिछड़ा हुआ है। इस पिछड़ेपन के वातावरण में कोई प्रगति नहीं हो सकती है। संकीर्ण हृदय वाले व्यक्ति के असत्यभाशी तथा हिसंात्मक प्रवृति होने की सम्भावना अधिक होती है’’ं। ग्रामों के प्रति यह भावना ही हमारी नीतिनिर्धाकों का प्रभावित करती रही है तथा वे अपने माई बाप की भावना एवं मनोवृति से उभर नहीं पाये हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सदैव चिरकालिक गरीबी, ऋणग्रसित एवं निराशा के रूप में ही देखा गया है। यद्यपि अर्थव्यवस्था में तथा समाजिक पर्यावरण में भारी परिवर्तन हुआ है, निहित स्वार्थ वाले समूह द्वारा यह दर्शाया जाता है कि ग्रामों के लिये कोई आशा की किरण नहीं है। उन्हें अंधेरे अंधकूप के रूप मे ंप्रस्तुत किया जाता है जिस में शोशण से बचने का एक मात्र रास्ता पलायन है। इसी कारण ग्रामो से नगर की ओर आना प्रगति का परिचायक माना जाता है। इस में गा्रम के अमीर तथा गरीब दोनों ही एक मत हैं कि बेहतर जीवन के लिये ग्राम को अन्यत्र बसने के लिये छोड़ना ही उपयुक्त है।


इस से निकलने का मार्ग क्या है? हमारे विचार में एक मात्र तरीका परिसंचारी पलायन है जिस में ग्रामवासी नगरों में आयें तो नगरवासी गाॅंव की ओर उन्मुख हों। इस से विश्वभावना ग्रामों में भी आये गी। ग्रामों में भी वर्गभेद उसी प्रकार समाप्त हो रहा है जैसा कि नगरों में हो रहा है। परिसंचारी पलायन से इस प्रक्रिया में गति आये गी। यह यर्थाथ है कि अभी भी कृशि जीविका साठ प्रतिशत लोगों के लिये महत्वपूर्ण है। क्रमागत सरकारों का अधिक ध्यान नगरीय क्षेत्रों की ओर ही रहा है यद्यपि प्रचार में ग्राम की प्रगति, किसानों की आय दुगना करने, प्रकार के नारे ही रहते हैं। इन घोशणाओं का कोई प्रभाव नगरीय जीवन के आकर्शण को समाप्त करने में सहायक नहीं हुआ है।


शासन द्वारा स्मार्ट नगर बनाने की योजना आरम्भ की गई है जिस में भारी राशि का निवेश किया जा रहा है। वास्तव में स्मार्ट ग्राम योजना आरम्भ की जाना चाहिये। ग्रामों में बिना किसी सरकारी योजना के पक्के मकान, नई प्रकार की सड़के और गलियाॅं आ रही है पर यह नियोजित ढंग से नहीं हो रहा। स्वच्छ जल प्रदाय तथा जल मल निकास व्यवस्थां का भी होना उतना ही आवश्यक है जो हो नहीं पा रहा है। इन के साथ ही गाॅंव को जोड़ने वाली अच्छी सड़कों का प्रबन्ध भी आवश्यक है। जहाॅं तक शिक्षा, स्वास्थ्य का सम्बन्ध है वह संचार तथा परिवहन व्यवस्था के विश्वासनीय और शीघ्रगामी होने से समाप्त हो जायें गी। एक किलोमीटर के भीतर शाला होने अथवा माॅंग पर शाला जैसे लुभावने नारों की आवश्यकता नहीं रहे गीं। द्वार तक स्वास्थ्य सेवायें पहुॅंचाना आवश्यक नहीं हो गा यदि वह सुुलभता से कुछ दूरी पर ही उपलब्ध हो। जब उच्च स्तरीय जीवन के अन्य साधन हो गें तो यह सब गौण बातें हो जायें गी। यह स्मार्ट ग्राम एक नये भारत के निर्माण की आधार शिला बन सकते हैं।


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