भूमि बंटन और हम
प्राचीन काल से हमारी धारणा रही है कि सभी भूमि गोपाल की। पर गोपाल तो थे, हैं नहीं तो अब भूमि किस की है। राजा ने दावा किया कि वह ही तो गोपाल का, ईश्वर का प्रतिनिधि है अतः सभी भूमि उस की है। सभी ने यह मान लिया। मुसलमान आये तो उन्हें तो खिराज से मतलब था, भूमि किस की है किस की नहीं, इस पचड़े में वह पड़े ही नहीं। पैसा आता रहे वरना .... यह उन की नीति थी। और वह आता रहा। अब लोग चाहे जिस की भी मानें, क्या फरक पड़ता है।
अंग्रेज़ आये तो उन को यह बात अच्छी लगी। पूरा भारत देश ही उन का हो गया। उन्हीं के देने से भूमि किसी को मिली। पर फिर भी सरकार की ही रही। सर्वोच्च न्यायालय चाहे जितना भी कह ले, अंग्रेज़ी ज़माने के कानून तो कानून ही रहें गें। आखिर सर्वोच्च न्यायालय खुद भी तो अंग्रेज़ी काल का है नहीं तो राजा ही सर्वोच्च न्यायालय होता था।
तो खैर यह बात तो अब पक्की हो गई कि सभी भूमि सरकार की है। वह चाहे जिस को दे। चाहे जिस का न दे। परन्तु प्रजातन्त्र की दिक्कत यह है कि राजा ही यानि कि सरकारें ही बदल जाती हैं। स्पष्ट है कि इस के साथ ही भूमि के मालिक भी बदल जाते हैं।
अब हुआ यह कि एक सरकार आई। उस ने कई भूखण्ड अपनों को अथवा अपनों को अनुग्रहित करने वालों को बाँट दिये। जो सरकार में नहीं थे, उन्हें बुरा लगा पर बेचारे करते भी क्या। फिर हालात ने ऐसा कुछ किया कि जन्म भूमि मुक्त हो गई। इस मौके का लाभ उठाते हुये केन्द्र की सरकार ने प्रदेश की सरकार को निकाल बाहर किया। वजह कुछ भी बताई गई हो पर प्रयोजन तो सिद्ध हो ही गया। चलिये अब नई सरकार आ गई।
नई सरकार ने यह किया कि पुरानी सरकार ने जो भू खण्ड अपनों को दे दिये थे, उस की जाँच के लिये भूतपूर्व मुख्य सचिव को नियुक्त किया। इरादा था कि भूमि हथियाने वालों को तथा उन अधिकारियों को जिन की मदद से भूमि हथियाई गई, को दण्डित किया जाये। भूतपूर्व मुख्य सचिव के भागों छी्रका टूटा। वह किस्सा है न कि एक व्यक्ति को मगरमच्छ मारने का ठेका दिया गया। एक दिन मन्त्री दौरे पर निकला तो उस व्यक्ति को मगरमच्छ को खाना खिलाते हुये देखा। यह क्या हो रहा है, पूछने पर उस ने कहा कि मगर बड़ा हो जाये गा तो उसे मारना आसान हो गा। मन्त्री जी खुश हो कर चले गये। साथी ने पूछा यह क्या कह रहे थे। मारने के लिये रखा गया है पालने के लिये नहीं। उस व्यक्ति ने कहा कि अगर मगर मार दें गे तो नौकरी जाती रहे गी। वह अधिक ज़रूरी है। भूतपूर्व मुख्य सचिव भी इसी विचार के थे। जाँच खत्म हो गई तो नौकरी भी गई। सो दो साल में जितनी भूमि आबंटित हुई, उस की जाँच छह साल में भी खत्म नहीं हुई।
इस बीच तब के प्रमुख सचिव राजस्व जो नाम के लिये पूरे राज्य की भूमि देखते थे, डरते रहे कि उन्हें अब बुलाया जाये गा, तब बुलाया जाये गा पर कोई बुलावा आया ही नहीं।
जब भूतपूर्व मुख्य सचिव थोड़े अस्वस्थ हुये तो उन्हों ने सोचा कि जितना दुह सकते थे, दुह लिया, अब तो जाने दो। अपना प्रतिवेदन सरकार को सौंप दिया। अब यह हड्डी सरकार के गले में फंस गई। भूमि तो कब की चली गई थी। लोग भूल भी गये थे। कुछ भूमिधारक इस पाले में भी आ गये थे। अधिकारी अपने चमचे बन गये थे। ऐसे मौके पर सरकार ने वही किया, जो करना चाहिये था। उन्हों ने एक अधिकारी की नियुक्ति कर दी कि वह देखे कि इस भूतपूर्व मुख्य सचिव के प्रतिवेदन पर से किन अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई की जा सकती है। इस के लिये चुना उन्हों ने वह अधिकारी जो उसी महीने में सेवा निवृत होने वाला था।
एक बार फिर बिल्ली के भागों छींका टूटा यद्यपि बिल्ली दूसरी थी। अब सात आठ साल में तैयार प्रतिवेदन कोई दो एक महीनों में तो नहीं निपटाया जा सकता। सरकार को भी यह पता था और उन अधिकारी को भी। वह दो वर्ष तक प्रतिवेदन का अध्ययन करते रहे।
इस दौरान फिर एक चुनाव आ गया। और एक नई सरकार आ गई। इस के साथ ही जाँच और उस सेवानिवृत अधिकरी की नौकरी, दोनों ही समाप्त हो गये।
यह कहना गल्त हो गा कि जिन्हें भूमि मिली थी, उन्हों ने चैन की साँस ली। उन की साँस पहले की तरह चलती रही। क्यों? उन्हें तो पहले दिन से ही मालूम था कि होना जाना कुछ नहीं है। अगर सरकार ने कुछ किया तो भी अदालतें तो हैं। इस नश्वर संसार में कौन सदा रह पाया हैं। अदालतों पर पूरा भरोसा है कि चार पाँच सरकारें तो निकाल ही दें गी। तब तक तो न वह रहें गे, न ही भूमि। भूमि तो चलायमान है, आज इस की, कल उस की। भूमि पर किसी और का नाम हो जाये गा, वापस किस से लें गे। इसी लिये वे चैन की बंसी बजाते रहे।
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