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बौद्धिक वेश्या - राम मोहन राय

  • kewal sethi
  • Feb 26, 2023
  • 3 min read

Updated: Aug 18, 2024

बौद्धिक वेश्या — राम मोहन राय

राम मोहन राय के संस्कृत तथा दर्शन के बारे में विचार



राजा राम मोहन राय को शिक्षा तथा समाज सुधारक के रूप में प्रचारित किया गया है। उन के नाम से राष्ट्रीय पुस्तकालय स्थापित किया गया है।

परन्तु उन की वास्तविकता क्या थी, यह जानना उचित हो गा। मैकाले का नाम तो अंग्रेज़ी पद्धति की शिक्षा के सम्बन्ध में कुख्यात है। यद्यपि सभी सहमत हैं कि उन के द्वारा आरम्भ की गई पद्धति भारतीय अवधारणा से मेल नहीं खाती है पर वह स्वतन्त्रता पश्चात यथावत चलती रही क्योंकि हमारे नये शासक उसी पद्धति से ही ओत प्रोत थे तथा भारतीयता के प्रति उदासीन।

पर मैकाले तो अंग्रेज़ थै। उन्हें हकूमत करना थी, इस कारण उन का रुझान भारतीय पद्धति को निम्न स्तर का दिखाना बनता था। पर कई भारतीय उन से एक कदम आगे ही थे, यह जानना आवश्यक है तथा इस सिलसिले में राम मोहन राय का नाम लेना आवश्यक है।

एक पत्र 11 दिसम्बर 1918 को उन के द्वसरा लिखा गया था जिस में वह कहते हैं, ‘‘(जब कलकत्ता में संस्कृत कालेज की स्थापना की जा रही थी) तो हमारा विचार था कि इंगलैण्ड की सरकार इस के लिये काफी राशि दे रही है तथा इस का उपयोग प्रतिभा वाले तथा सुशिक्षित युरापियन को लगाने के लिये किया जाये गा जो भारत के देशियों (natives) को गणित, प्राकृतिक दर्शन, रसायन शास़्त्र, शरीर रचना तथा अन्य उपयोगी विज्ञान की जानकारी दें गे जिन के कारण युरोप के देश पूर्णता की ओर अग्रसर हुये हैं जिस से वह शेष विश्व के लोगों से ऊपर उठ सके हैं।

‘‘यह पता लगा है कि शासन संस्कृत कालेज की स्थापना हिन्दु पंडितों के आधीन खोल रहा है जो कि वर्तमान में प्रचलित शिक्षा ही दे गा ......... इस संस्था से युवाओं के मन में केवल व्याकरण का विवरण तथा आध्यात्मिता का ज्ञान ही मिले गा जिस का कोई व्यवहारिक लाभ प्राप्तकर्ताओं को नहीं है। इस से छात्रों को केवल दो हज़ार वर्ष पुराना ज्ञान मिले गा जिस में बाद में व्यर्थ तथा शून्य विलक्षणबाद के काल्पनिक बेतुके व्यक्तियों द्वारा अंश जोड़े गये हैं।

‘‘संस्कृत भाषा इतनी कठिन है कि पूरा जीवन ही उस को ठीक से सीखने में निकल जाता है। सदियों से इस के कारण शिक्षा के प्रसार में रूकावट रही है तथा विद्या एक मोटे पर्दे के पीछे रही है जो उस को अर्जित करने के परिश्रम से मेल नहीं खाती है। ’’

राम मोहन राय ने संस्कृत का मज़ाक उड़ाते हुये एक उदाहरण दिया है। उस का तर्क है कि लिंग अथवा वचन दिखाने के लिये क्रिया का जो भेद होता है, वह बेकार बी बात है। उपसर्ग तथा अंतसर्ग अर्थहीन होते है।

भारतीय दर्शन के बारे में वह कहते है, ‘‘यह समझ ने नहीं आता है कि वेदान्त के अनुसार देवता कब और कैसे मूर्ति में प्रवेश करते हैं। इस का क्या सम्बन्ध ईश्वर के अस्तित्व से है। युवा वर्ग वेदान्त के सिद्धॉंतो ंको सीख कर समाज के बेहतर सदस्य नहीं बन पायें गे क्योंकि वह सिखाता है कि सभी दिखने वाली वस्तुओं का वास्तविक आस्तित्व शून्य है। पिता भाई इत्यादि का कोई वास्तविक आस्तित्व नहीं हैं तथा उन के प्रति वास्तवविक अनुराग नहीं हो सकता है और जितनी जल्दी बच्चे उन्हें छोड़ दें, उतना ही विश्व के लिये अच्छा हो गा।

ऐसे ही मीमांसा से कोई वास्तवविक लाभ नहीं होता । मीमांसा कहता हे कि बकरी को मारने पर यदि वेद के कुछ भाग पढ़ें जायें तो उस में कोई पाप नहीं लगता है।

इसी प्रकार न्याय शास्त्र का छात्र का मन भी यह जान कर विकसित नहीं होता कि विश्व को कितने अंव्ययों में बॉंटा जा सकता है। अथवा शरीर का आत्मा से क्या सम्बन्ध है। ’’

संक्षेप में उन के अनुसार पूरा हिन्दु दर्शन बेकार है। इस में संदेह है कि उन्हों ने इसे समझने का प्रयास किया है अथवा केवल ईसाई धर्म का ही ज्ञान प्राप्त किया है। युरोपियन अर्थ की चकाचौंध ने उन्हें शेष बातों से अनभिज्ञ बना दिया लगता है।

फेसबुक पर एक टिप्पणी में राजा राम मोहन राय को बौद्धिक वेश्या कहा गया।

मैं ने इस से सहमति व्यक्त की है। वह संस्कृत विरोधी, भारतीय दर्शन विरोधी, संस्कृत विरोधी थे। उन्हें आम तौर पर राजा कहा जाता है पर वास्तविक में उन्हे राजा केवल उन के विचार मुआफिक होने के कारण अंग्रेज़ों द्वारा कह दिया गया। इस स्थिति में राम मोहन राय को बौद्धिक वेश्या कहना उपयुक्त है। दुख है कि उन के नाम से भारत सरकार ने राष्टीय पुस्तकालय कायम किया है परन्तु इस में आश्चर्य नहीं है क्योंकि उस सरकार में बौद्धिक गुलाम ही थे।

उद्धरण संदर्भ india that is bharat by j.sai deepak pp 323-25 bloomsbury 2021

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