फरियाद
दफा 302 न 304 का मुजरिम हूं मैं
सिर्फ दफा 325 का एक विकिटम हूं मैं
फिर भी आप से उम्र कैद की सज़ा मांगता हूं मैं
शर्त बस एक यही है कि मुजरिम हो जेलर मेरा
कर रहा हूं मैं आज आप के सामने इकबाले जुर्म
कह नहीं सकता कि हो न जाये दफा 25 में गुम
अगर ऐसा है तो दफा 564 में ही इसे ले लीजिये
inherent powers को अपने इस्तेमाल कर लीजिये
हाई कोर्ट में कोई अपील करना मैं न चाहूं गा
सिर्फ आप की बीवी के सामने अरज़ी लगाऊं गा
अभी कुछ दिन पहले मैं जा रहा था बाज़ार से
मुझ पर हमला किया किसी ने कातिल औज़ार से
दफा 325 का मुजरिम था पर मैं न कुछ कह सका
दिल थाम कर मैं बैठ गया दर्द न मैं यह सह सका
चल दिया बिना पूछे हाल मेरा मैं अब क्या आप से कहूं
गवाह था न कोई मौके पर सम्मन करने को मैं कहूं
circumstantial evidence पर ही निर्भर है मेरा केस
दास्तान मेरी बताता है उसी दिन से देखिये मेरा face
सच पुछिये तो दफा 379 के तहत भी आता है वह चोर
दिल चुरा कर ले गया वह आप के राज में यह ज़ुल्म घोर
सीधे बात कर के मैं चाहता था करना इस को कम्पाउण्ड
पर दफा 345(2) में आवश्यक था करना आप को sound
पुलिस को रिपोर्ट न लिखा सका मैं स्वयं था पुलिस अफसर
सोचता था यह गलती आ जाये गी मेरी सी आर के अन्दर
मांग सकता हूं मैं इस के लिये आप से मुजरिम के लिये सज़ा
हरजाने के लिये भी कर सकता हूं दीवानी अदालत में दावा
इन में से कोई भी तरीका नहीं आता है मुझे पसंद
बुध, गांधी, ईसा के असूलों का हूं हमेशा से पाबंद
चाहता हूं मुझे ही दीजिये उम्र कैद की सज़ा
शर्त बस यही है कि मुजरिम हो जेलर मेरा
यानि अपनी बेटी मंजू से मेरा विवाह कर दीजिये
मुझ को अपने परिवार में ही शामिल कर लीजिये
(होशंगाबाद 20-11-64)
(यह कविता एक दोस्त की शादी के समय लिखी गई पर पढ़ी न गई। दुल्हा पुलिस अफसर थे और दुल्हन जि़ला जज की बेटी, यह तो आप समझ ही गये हों गे।)
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