this is election time, even though it is semifinal. so we go to another era, another election and look at the situation then.
फतह का कूच
(राजीव गांधी द्वारा 1984 का चुनाव जीतने के बाद लिखी गई कविता - इस में भी कई रंग हैं)
आफ्रीं ए फातेह दुश्मनाने वतन मरहबा
बचा कर लाया तू काफिले को मानिन्दे नाखुदा
राह थी दुश्वार, मुश्कलात थी छाई जहां तहां
हर तरफ शोर था हर तरफ थी कयामत बरपा
फिसल जाता जो पैर तो हवाले सैलाब हो जाते
बहरे हिन्द के न जाने किस कोने में खो जाते
इक शिकस्त फाश तू ने इन शैतानों को दी
कर दी कयामत बरपा जिस तरफ तू ने नज़र की
बढ़ा चला आता था हर सू लश्करे अग़यार
लगता था कि अब के दें गे गद्दी से उतार
पर दिया तू ने इक नारा बह आवाज़े बुलन्द
सुन कर जिसे दुश्मन रह गया एक दम दंग
कौम का इतिहाद ज़ाहिर है बस तेरे ही नाम से
सुना मुखालफान ने और बस गये काम से
कौम को तू ने अपनी चाल से इस कदर डरा दिया
सारा मुल्क फिर तेरे परचम के नीचे आ गया
कहते हैं कुछ कि तू ने झूट का सहारा लिया
पूछे कोई नादानों से, सच भी कहीं है जीता भला
फिलस्तीन, साउथ अफ्रीका कहां इस ने भला किया
बढ़ना है आगे तो लेना पड़े गा बस झूट का आसरा
इलज़ाम है कि तू ने अख्तयार का गल्त इस्तेमाल किया
पूछो नालायकों से जंग में होता है ऐसा सवाल क्या
कहने वाले यह भी कहते हैं बड़ी ऊंची आवाज़ से
बढ़े गी कौम में फिरकापरस्ती इस गल्त प्रचार से
नहीं जानते कि फिरकापरस्ती कोई गल्त शै है नहीं
सवाल सिर्फ यह है, इस से हमें फायदा है कि नहीं
(अधूरी कविता - नवम्बर 1984)
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