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kewal sethi

प्रजातन्त्र का भविष्य

प्रजातन्त्र का भविष्य


एलैक्ज़ैण्डर पोप का एक प्रसिद्ध दोहा है जिस का हिन्दी रूपानतर इस प्रकार किया जा सकता है -

शासन के स्वरूप पर करें क्यो हम चर्चा

जो भी स्वच्छ प्रशासन दे, वही है अच्छा

और इस के साथ एक और प्रसिद्ध दोहा है -

पुराना निज़ाम बदलता है, देने नये को स्थान

ताकि कर सके न वह पूरी दुनिया को बदनाम


शाासन का स्वरूप सदैव बदलता रहा है। हमें बताया जाता है कि किसी समय भारत में गणतन्त्र थे। वैशाली का उदाहरण दिया जाता है। यूनान की नगर राज्यों का हवाला दिया जाता है। पर इतिहास में इस के अधिक उदाहरण नहीं मिलते कारण कि इतिहास व्यक्तियों के कारनामों को अधिक विस्तार से बताना चाहता है। किस राजा ने कितने युद्ध जीते, कितने क्षेत्र पर अधिकार किया, यह इतिहास का मुख्य अंश है।


कहा तो जाता है कि यह राजा हमारे गौरव के लिये लड़े। सिकन्दर ने यूनान का परचम सारे संसार में, या इस के तत्कालीन ज्ञात जगत के बड़े भूभाग में फहराया। इस्लाम ने एक शताब्दी में ही भारत से स्पैन तक अधिकार कर लिया।


परन्तु दूसरी ओर यह देखा जाये गा कि चाहे कोई राजा हो अथवा खलीफा, उस का एक मात्र ध्येय मनुष्यों के जीवन पर नियन्त्रण करना था। उन के शब्द कानून थे। जिस ने नहीं माना, उन्हें परिणाम भुगतना पड़ा। उन्हों ने अपना अधिकार अपने बेटों को सौंपा ताकि उन का वंश सदैव शकितशाली बना रहे। परन्तु बुद्धि अथवा बल सदैव एक ही परिवार में सीमित नहीं रहता। जैसे ही सम्राट कमज़ोर हुआ, कई क्षेत्र अलग हो गये। वह वहां पर सम्राट के लघु संस्करण बन गये जब तक कि एक नया शकितशाली केन्द्र फिर न बना। यह बात कई सदियों तक चली। राजा मेहरबान हुआ तो जनता को सुख चैन मिला। राजा निरकुंश हुआ तो जनता को कष्ट सहने पड़े। जनता का इस में कोई योगदान नहीं था।


इस क्रम में परिवर्तन हुआ जब कुछ क्षत्रपों ने मिल कर राजा के अधिकार सीमित कर दिये और घोषणा की कि उन की सहमति के बिना कोइ्र कानून नहीं बने गा। इंगलैण्ड में इसे मैग्नाकार्टा के नाम से जाना जाता है। यह अभिजात्य वर्ग का युग था जिस में कुलीनतन्त्र था। सारी सम्पत्ति, सारे अधिकार कुछ वंशों में ही सीमित थी। स्वयं राजा की शक्ति इन सरदारों की सहायता पर निर्भर थी।


यह क्रम सदियों तक चला। परन्तु इस का अन्त तब हुबा जब तथाकथित नइ्र दुनिया अर्थात अमरीका की खोज हुई और वहां के अदभुत खज़ाने को लूट कर युरोप में लाया गया। जब पैसा बढ़ गया तो आपस में बटा भी। नव धनाढय व्यक्तियों ने भी शासन में भागीदारी की मॉंग की। इसी भावना ने नये दार्शनिकों को जन्म दिया। हाब्स, लाक, रूसो, वाल्टेयर, माण्टेसक्यू ने सत्ता बांटने की पुरज़ोर वकालत की। स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व के नारे के तहत प्रजातन्त्र की नींव पड़ी। लोगों को शासन तन्त्र हेतु अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दिया गया। आरम्भ में इस में सीमित संख्या में ही मतदान की अनुमति दी गई। पर प्रक्रिया आकर्शक थी तथा जैसे जैसे नये समूहों की ताकत बढ़ी, वैसे वैसे मतदाताओं की संख्या भी बढ़ी। उल्लेखनीय है कि इंगलैण्ड में महिलाओं को 1931 तक मतदान के अधिकार की प्रतीक्षा करना पड़ी।


मतदान का अर्थ लगाया गया कि सत्ता जनता को सौंप दी गई। वास्तव में ऐसा हुआ नहीं। उन के प्रतिनिधियों को ही सत्ता सुख मिला। रूसो ने एक बार कहा था कि ''अंग्रेज़ केवल मतदान के समय स्वतन्त्र हैं। उस के पश्चात वे फिर पूर्ववत हो जाते हैं''। कानून, जो इन प्रतिनिधियों द्वारा बनाये जाते थे, को बदलना आसान नहीं था। उन के पालन के लिये दमन का मार्ग का त्याग नहीं किया गया। इन प्रतिनिधियों के संगठन थे तथा संगठन पर किसी व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह का वर्चस्व था। कई बार राजतन्त्र केवल इन अधिष्ठताओं के निजी लाभ का स्रोत्र बन कर रह जाता था। यह सही है कि जब जब इस प्रकार का दमन बढ़ जाता था तो उस के विरुद्ध विद्रोह होता था तथा कोई तानाशाह आ जाता था पर वह व्यवस्था स्थाई नहीं रह पाती थी। सब से सफल विद्रोह मार्क्स के दर्शन के कारण हुआ जिस ने विश्व के एक बड़े भाग को अपने अधिकार में ले लिया।


इतिहास ने इस बड़े विद्रोह का भी झेल लिया। मूलत: यह भी एकतन्त्रवाद था तथा जनता की भागीदारी नाम भर की थी। यह सही है कि जन्म के आधार पर सत्ता एक दूसरे को सौंपी नहीं जाती थी किन्तु इस में चयन जैसी कोई बात नहीं थी। पर परिवर्तन तो इस में भी होना ही था। परिवर्तन में समय लगा। उधर पूर्व की शासन पद्धति, जिसे मार्क्स ने पूंजीवाद का नाम दिया था, में भी अदभुत परिवर्तन हुआ यहां तक कि दोनों प्रणालियों में भेद करना कठिन हो गया। दोनों में जनता को अधिक अधिकार देने की बात की जाती है। एक में चुनाव द्वारा प्रतिनिधि चुने जाते हैं। इस कारण उन्हें जनता को बताना पड़ता है कि उन के द्वारा क्या किया गया तथा क्या किया जाना प्रस्तावित है। दूसरे में यह औपचारिकता तो नहीं है परन्तु राज्य को समृद्ध बनाने का प्रयास तो रहता ही है तथा इस स्मृद्धि को बांटना भी पड़ता है ताकि असंतोष सीमा में रहे।


यह प्रबन्धन भी अंतिम है, ऐसी कहना उचित नहीं हो गा। नई तरह की व्यवस्था जन्म ले चुकी है तथा इस का आधार आज की तकनीकी प्रगति है। संचार व्यवस्थायें आज किसी समाचार को सीमित रखने में बाधक हैं। प्रत्येक विशय पर जनता की तत्काल प्रतिक्रिया सम्भव हो गई है। प्रत्येक चार साल में अथवा पांच साल में मत व्यक्त करने के स्थान पर प्रतिक्रिया का वह दौर आ चुका हे जिसे रियल टाईम प्रतिक्रिया कहा जाता है। हम ने फिलीपीन्स में जनता शकित का प्रभाव देखा जिस में जनमत के सामने कई दशकों के तानाशाह को देश छोड़ना पड़ा। हम ने टयूनेशिया में जनमत को तानाशाह का अधिकार समात होते देखा। मिस्र में भी इस प्रक्रिया को दौहराया गया। भारत में अन्ना हज़ारे ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्दोलन चलाया जिये पूरे देश में भरपूर समर्थन मिला, इतना कि सरकार को भी झुकना पड़ा।


यह मार्ग आसान नहीं है। मिस्र में सैना ने फिर से सत्ता सम्भल ली ओर दमन का चक्र जारी रहा। अन्ना हज़ारे के अन्दोलन को राजनैतिकों ने हथियार बना कर सत्ता प्राप्त कर ली। एक अधूरा सा लोकपाल अधिनियम ही बन पाया। पर जैसा कि पूर्व में कहा गया, रूकावटें परिवर्तन को रोक नहीं पातीं। हम फ्रांस का उदाहरण लें। 1789 में क्रांति हुई। उच्च आदशों्र को सामने रख कर हुई परन्तु कुछ वर्षों में ही नैपोलियन ने सम्राट की पदवी धारण कर ली। उस की हार के पश्चात पुन: राजतन्त्र स्थापित हुआ। जनता, जो स्वतन्त्रता की बात मन में बिठा चुकी थी, ने फिर से राजतन्त्र को समाप्त किया। परन्तु एक अन्य नैपोलियन फिर से सम्राट बना, परन्तु उस की जर्मनी से हार के पश्चात एक बार फिर फ्रांस में प्रजातन्त्र की स्थापना हुई। कहने का तात्पर्य यह कि कई भी प्रबन्धन को बदलने के लिये प्रयास बार बार करना पड़ता है परन्तु परिवर्तन हो कर ही रहता है।


यदि इतिहास मार्गदर्शक है तो आगे क्या हो गा, इस का अनुमान लगाया जा सकता है। प्रतिनिधि तो रहें गे क्योंकि बहुत बड़ा समूह किसी निर्णय पर पहुंचने में समर्थ नहीं होता है। परन्तु वास्तविक सत्ता प्रतिनिधियों के हाथ में नहीं हो गी। उसे जनसमूह की बात सुनना हो गी तथा उस के अनुसार कार्य भी करना हो गा। वास्तविक सत्ता समूहों में हो गी। जनता के कइ्र समूह हों गे जो किसी भी विषय पर अपना मत व्यक्त करने के लिये स्वतन्त्र हों गे। ये समूह इन प्रतिनिधिगण को जनता की इच्छा के अनुरूप काम करने पर मजबूर करें गे। संविधान में इन समूहों को वैधानिक मान्यता दी जाये अथवा नहीं, यह गौण विषय है परन्तु इन के आस्तित्व को नकारा नहीं जा सके गा। व्यक्ति के लिये यह आवश्यक नहीं हो गा कि वह किसी एक समूह में ही रहे। वह अनेक समूहों का सदस्य हो सकता है। यह समूह अपना स्वयं का प्रबन्धन करें गे जिस में सभी सदस्यों की भागीदारी रहे गी। यह समूह मिल का नीति निर्धारण करें गे तथा सरकार उस को मानने को बाध्य हो गी। यह कब तक हो पाये गा, यह तो समय ही बताये गा क्योंकि जैसा कि पूर्व में कहा गया है, पूर्व का इतिहास बताता है कि परिवर्तन इतनी सरल प्रक्रिया नहीं है। परन्तु आज के गतिमान संचार जगत में और कोई प्रबन्धन व्यवस्था सफल नहीं हो पाये गी।


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