यह लघु कथा मैं ने 1999 के आस पास लिखी थी पर किस को सुनाते। कोई सुनने को तैयार हो तब न। पर अब तो इण्टरनैट की कृपा से सुनने वाले के कान की तो क्या, पहचान की भी आवश्यकता नहीं है। इस कारण से प्रस्तुत है।
पिटने के बाद
केवल कृष्ण सेठी
घमन्तु पत्रकार होने के नाते मैं उस दिन सुभाष उच्चततर माध्यमिक विद्यालय पहुॅंच गया। देखा कुछ मनचले लड़के नूतन कालेज की लड़कियों से पिट रहे थे। सहज स्वभाव से मैं वहीं पर रुक गया। जैसे ही नाटक का यह अंक समाप्त हुआ, पिटने वाले वहाॅं से हटने लगे। हम एक लड़के के साथ हो लिये। रेलगाड़ी की यात्रा में दो चार मिनट के बाद बातचीत का सिलसिला आरम्भ हो जाता हैं। उसी तर्ज़ पर कुछ देर चलने के बाद हम ने बात शुरू की। ‘‘हे बन्धु, मैं पत्रकार हूॅं। तुम्हारा साक्षात्कार लेना चाहता हूॅं’’। यह सुनते ही उस की बाॅंछें ऐसे खिल गईं जैसे किसी नेता को कुर्सी मिल गई हो, किसी सरकारी अफसर को सरकारी खर्च पर विदेश जाने का अवसर मिल गया हो, किसी पुलिस वाले को सरकारी लाटरी बन्द होने की सूचना मिल गई हो। बोला, ‘‘वाह उस्ताद अभी तक कहाॅं छुपे बैठे थे। पर यह क्या, कैमरा वैमरा तो है नहीं। कैसे पत्रकार हो? सिर्फ पूछो ही पूछो गे। चला पूछो, हम तो तैयार हैं’’।
अब मेरे सामने दो विकल्प थे। एक तो यह कि दूर दर्शन के साक्षाक्तारों की तर्ज़ पर अपना लम्बा भाषण जड़ देता। इस से श्रोता को पता चल जाता है कि साक्षात्कार करने वाला कितना महान व्यक्ति है, कितना ज्ञानवान है। वह तो बस साक्षात्कार देने वाले पर अहसान कर रहा है नहीं तो ---। पर शायद यह इस कारण हो पाता है कि ऐसे साक्षात्कार बन्द कमरे में होते हैं। सामने वाले व्यक्ति के भागने के रास्ते बन्द होते हैं। पर यहाॅं तो खुली सड़क थी। ज़रा सी चूक हुई नहीं कि बना बनाया खेल बिग्ड़ जाये गा। एक दम विषय पर आना ज़रूरी था और दूसरे पक्ष ने पहले ही कैमरे के न होने पर फिकरा कस दिया था।
अतः मैं ने एक दम शुरू किया। ‘‘बन्धु, नाम पता तो रहने दो क्योंकि तुम भी इसे गुप्त रखना चाहो गे। यह बताओ कि पिटने के बाद कैसा लग रहा है। काफी क्रोध आ रहा हो गा?’’ उस ने तपाक से उत्तर दिया, ‘अरे क्रोध तो क्या आये गा। यह तो अनुभव है’। मैं ने भी तपाक से जड़ दिया - इब्तदाय इश्क है, रोता है क्या। आगे आगे देखिये होता है क्या।
मेरी बात को अनसुनी कर उस ने अपना कथन जारी रखा। ‘पर मुझे बड़ी हैरानी हो रही है। अभी तक का अनुभव बेकार गया। अब देखिये न ‘खिलाड़ी’ में कैसे नशे की गोली खा कर आंख मारते मारते हीरो ने हीरोइन का दिल ही मार लिया। और वहीं देखिये कितने लड़के इकठ्ठे हो कर घेर कर लड़कियों को छेड़ रहे थे। मजाल है किसी लड़की ने अपनी चप्पल की तरफ देखा भी हो, उतारना तो अलग बात है’। मैं ने कहा, ‘बन्धु, तुम ने देखा ही हो गा कि सिनेमा में इस छेड़ छाड़ के साथ लय पर गाना गाया जाता है। मैं ने तो तुम लोगों को गाना गाते नहीं सुना’।
लड़का मेरे इस तर्क से विचलित नहीं हुआ। मेरी बुद्धि पर तरस खाते हुए उस ने जेब से चुईंग गम निकाली और मुॅंह में डालते हुए बोला, ‘अरे तुम तो नौसिखिये लगते हो। हीरो कहाॅं गाता है। वह तो केवल होंठ हिलाता है। गाना तो प्ले बैक सिंगर गाता है। हीरो तो बस उछल कूद करता है। सो तो हम कर ही रहे थे, विशेषकर पिटने के समय’। कुछ रुक कर बोला, ‘पर बात यह है कि हम गा भी रहे थे। वास्तव में वहीं से तो किस्सा शुरू हुआ। वह गाना है न - काली तेरी गुत ते परांधा तेरा लाल नी। वही गा रहे थे। बस कमी थी तो बस आकैस्ट्रा की। फिल्म में न जाने कहाॅं से पचास साठ आ जाते हैं आकैस्ट्रा वाले चाहे जंगल हो या पहाड़, कालेज हो या बैडरूम। यहाॅं तो बस सात आठ लड़के ही थे जो लय पर ताली पीट रहे थे। उन में से भी जो मौके पर पिटने की बारी आते ही भाग सके, भाग लिये। गाना चलता रहता तो शायद लड़कियाॅं भी गाना शुरू कर देतीं। अब देखिये न ‘मुकद्दर का सिकन्दर’ में ऐसा ही तो हुआ था’।
एक समय आता है जब साक्षात्कार करने वाला व्यक्ति भविष्य के बारे में ज़रूर पूछता है चाहे साक्षात्कार हस्पताल में मरणासन्न व्यक्ति का ही हो। इस के दो कारण हैं। एक तो यह कि यह समाप्ति का संदेश है। दूसरे भूत काल अथवा वर्तमान के बारे में पूछने के लिये साक्षात्कार करने वाले के पास जानकारी होना चाहिये। अब उपन्यासकार हो तो उस के एक आध उपन्यास का नाम तो पता होना चाहिये। पर भविष्य के बारे में पूछने पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है। उस से अगले उपन्यास की पृष्ठभूमि के बारे में, वैज्ञानिक से अगले आविष्कार के बारे में, डाक्टर से अगले आपरेशन के बारे में, श्रद्धाॅंजलि देने वाले से अगली श्रद्धाॅंजलि के बारे में पूछ सकते हैं। केवल नेता ही ऐसा है जिस से भविष्य की बात नहीं पूछ सकते क्योंकि उस का भूत ही होता है, भविष्य नहीं। हम ने भी इस परम्परा का निर्वाह किया। पूछा, ‘बन्धु, अब आगे का क्या कार्यक्रम है’।
‘उस्ताद, हम ने कल ही पाठ पढ़ा था। पूरी तरह से तो पल्ले नहीं पड़ा पर एक बात ज़रूर थी। उस का हीरो था ब्रूटस या ऐसा ही कोई नाम। उस ने कभी हार नहीं मानी। यह मकड़ी को देख कर था या लड़की को, पता नहीं पर क्या फरक पड़ता है। उस का मंत्र था फिर प्रयास करो। हम ने तभी अध्यापक को आश्वस्त किया था कि हम उसी हीरो के नक्शे कदप पर चलें गे। और भाई, तुम जानते ही हो कि पिटाई तो पहला ही कदम होता है। इस के बाद तो---। अब देखिये न ‘बहारों की मंजि़ल’ में ----’
पर तब तक हम लपक कर मिनी बस में बैठ चुके थे।
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