पुराना रिश्ता
- ‘‘मुझे पहचाना?’’ महिला ने पुरुष से पूछा।
- ‘‘नहीं’’
- ‘‘पहचानो गे भी कैसे। 24 साल बाद मिल रहे हो। ’’
- ‘‘24 साल बाद? पर मुझे पहचान लिया आप ने’’।
- हॉं तुम अधिक नहीं बदले। थोड़े बाल झड़ गये हैं। थोड़े स्फैद हो गये हैं पर शकल वगैरा तो वही है।
- पर हम कहॉं मिले थेे
- याद करो। शादी की बात चल रही थी। और तुम अपनी माता जी और भाई के साथ आये थे।
- ओह, तो आप सुनीता हैं। कुछ बदल गई हैं, इस कारण पहचान नहीं पाया। सारी।
- कोई बोत नहीं। वैसे भी मैं ज़रा मोटी हो गई हूॅं न।
- ज़रा?
- अच्छा अच्छा। थोड़ी ज़यादा।
- थोड़ी ?
- ठीक है। वज़न बढ़ गया हे पर आजकल कम कर रही हूॅं। पता है, दो महीने में तीन किलो कम हो गया है। अच्छा, यह बताओ कि मुझे रिजैक्ट करने के बाद किसे देखा।
- मैं ने रिजैक्ट नहीं किया था। वह तो भैया का ही फैसला था और फिर उन्हों ने मॉं के साथ दूसरी देखी। मैं तो इस बार साथ भी नहीं गया।
- और फिर। लिव्हड हैपीली ऐवर आफटरं
- काश ऐसा होता।
एक आह भर कर उस ने कहा।
- क्यों? क्या हुआ। सुन्दर नहीं थी।
- सुन्दर देख कर ही तो पसन्द की थी।,
- फिर?
- चार महीने तो आराम से निकले फिर असली रूप सामने आ गया। हर दिन मॉं से झगड़ा। मुझे साथ नहीं रहना हैं दूसरा मकान लो।
- फिर मकान लिया और लिव्हड .......
- आप को काफी जल्दी है - लिव्हड हैपीली कहने की। पर ऐसा नहीं है। एकाध साल तो काटा किसी तरह। । भैया अमरीका चले गये। मॉं को छोड़ना नहीं चाहता था। सो रास्ता यह सोचा कि दूसरे शहर में तबादला करा लिया। मॉं के लिये बहाना हो गया। पर अब यह मत कहना कि लिव्हड हैपीली।
- क्यों? अब क्या हुआ?
- स्वभाव। लड़ना स्वभाव था। मॉं नहीं थी तो मैं था। काम करने वाली बाई थी। पड़ौसी थे।
- और इस तरह चौबीस साल काट दिये। बच्चेे?
- एक बेटा हुआ था। अब बंगलौर में नौकरी कर रहा है। दो साल हो गये। श्रीमती जी घर का देखने गई और वहीं रह गईं।
- और तुम?
- मैं ने अपना तबादला वापस करा लिया था। जब झगड़े में ही रहना है तो घर क्या और विदेश क्या। कम से कम अपने घर तो रहे। मॉं का साथ तो रहे गा दुख बॉंटने के लिये।
- चलो, अंत भला सो भला। झगड़ालू बीवी भी गई और ......
- पर, अब तो मॉं भी चली गईं
- सारी।
- उम्र थी। जाना ही था। पर आप सुनाईये, मेरी दास्तान तो थोड़ी लम्बी हो गईं पर आप का जीवन तो ठीक रहा।
- नही। यह भी एक कहानी है। चार साल तो आराम से रहे। फिर एक बार घर से निकले तो वापस ही नहीं लौटे।
- फौजी थे क्या?
- नहीं, फौजी होते तो वार विडो कहलाती। पैंशन पाती पर यह तो नौकरी पेशा ही थे। पुलिस में रिपोर्ट भी कराई। अखबार में विज्ञापन भी दिया। ईनाम देने की भी बात कही। पर गये तो गये, कोई खबर नहीं। कोई पता नहीं।
- और गुज़ारा कैसे हुआ?
- छोटी मोटी नौकरी कर ली ताकि अपना अपनी बेटी को देख सकूॅं। जब सात साल गुज़र गये तो अदालत में अर्ज़ी लगाई। सात साल में तो गुमशुदा आदमी मरा हुआ मान लिया जाता है। अदालत ने मकान मेरे नाम कर दिया। उसे बेचा और कुछ पैसा हाथ आयां। बेटी की पढ़ाई ठीक से हो गई। कम्प्यूटर साईंस में बी टैक है।
- अब मेरी बारी है कहने की - अंत भला सेो भला। बेटी कहॉं है, यहीं पर।
- नहीं, दो साल पहले उस की शादी कर दी। दामाद और वह दोनों पुणे में हैं। और मैं अकेली।
- बेटी के पास नहीं जातीं। या फिर?
- अरे नहीं, दामाद तो बिल्कुल बेटे की तरह है। बहुत ही सुशील। वह तो बुलाता है पर मेरा मन ही नहीं करता यह शहर छोड़ने का। और फिर नौकरी भी तो है।
- पर अकेलापन तो रहता ही है।
- वह तो तुम्हारे साथ भी है।
कुछ देर रुक कर
- अच्छा सुनो, हम साथ साथ रहें तो? तुम भी अकेले, मैं भी अकेली।
- अरे। यह क्या कह रही हो। मैं शादीशुदा हूॅं। मेरी बीवी साथ नहीं है पर है तो।
- तो मैं कौन शादी की कह रही हूॅं। आज कल तो लिव इन की बात है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इजाज़त दे दी है। और फिर हमारा रिश्ता तो पुराना है। तुम्हीं ने तो कहा कि तुम ने रिजैक्ट नहीं किया था। और मैं ने भी तुम्हें रिजैक्ट नहीं किया था। बस थोड़ा वक्त गुजर गया हैं।
- थोड़ा?
- फिर आ गये उसी थोड़े ज़्यादा पर। बताया न वज़न कम कर रही हूॅं। तीन किलो कम हो चुका है, और जो सोचती हॅूं, वह हो कर ही रहता है । चलो अभी तो रैस्तोरेण्ट में खाना खाते है। फिर सोच कर बताना। मेरा फोन नम्बर बता देती हूॅं।
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