1982 में आकाशवाणी ग्वालियर ने एक पॉंच मिनट का कार्यक्रम प्रात: आरम्भ किया था। नाम था —— चिंतन। इस में उनहों ने नगर के गणमान्य व्यक्तियों से अपने विचार व्यक्त करने को कहा था। आयुक्त होने के नाते मेरी गणना भी इन में हा जाती थी। उस समय मैं ने दो तीन बार इस में भाग लिया। मेरे पूछने पर उन्हों ने कहा कि यदि मैं इस का संदर्भ दूॅं तो मैं इसे प्रकाशित भी कर सकता हूॅं। इस कारण उन्हें धन्यवाद के साथ इसे पेश कर रहा हूॅंं। यह विचार बहुत गम्भीर तो नहीं हैं पर जेसे हैं , वैसे पेश हैं —
चिंतन पर उपदेश कुशल बहुतेरे। आज हम इस कहावत को अपने चारों ओर चरितार्थ होते हुये पाते हैं। हर एक अपने आप को अधिक योग्य, अधिक बुद्धिमान, अधिक जानकार मानते हुये दूसरों को अधिक अच्छा बनने का उपदेश देने को तैयार रहता है। दूसरे में कौन से नुक्स है, कौन सी कमी है, किस बात को वह ठीक से नहीं कर रहा है, इस के बारे में हर एक व्यक्ति बताने को तैयार है। यह बात बताने के लिये उसे कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती। दूसरे का नुक्सा तो आराम से नजर आ जाता है। कहते हैं कि दूसरे की आंख का तिनका तो हमें नजर आ जाता है पर अपनी आंख का शहतीर भी नजर नहीं आता। अपनी किसी कमी के बारे में हमें पता ही नहीं चलता। जानकारी हो भी जाये तो भी वह हमें अवगुण नहीं अपितु अपना गुण ही लगता है. लगता है आजकल उपदेश देना भी एक व्यवसाय हो गया है। पहले हमारा संसार आसपास तक ही सीमित था। वह हमें जानते थे, हम उन्हें जानते थे। वह हमारे गुणों और अवगुणों से परिचित थे। हमारी क्षमता से भी वाकिफ थे। उपदेश देने का अवसर और दायरा भी सीमित था। आज के युग में प्रचार प्रसार के साधन विस्तृत हो गये हैं। हम उन लोगों से भी बातें कर सकते हैं जिन्हें हम जानते ही नहीं। उन्हें भी हम उपदेश दे सकते हैं जो हमें जानते नहीं। वह हमारी कमजोरियों से परिचित नहीं हैं उन का विश्वास सहज ही हमारी क्षमता में बना रहता है। कथनी और करनी में अंतर हो सकता है. और इसी कारण उपदेश देने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। साथ-साथ उन की दक्षता भी बढ़ती जा रही है। ऐसे लोगों का धंधा ही बन गया है, मौके, बे मौके, बुलाये, बिना बुलाये, उपदेश देने लगते हैं। और कहीं किसी व्यक्ति के पास कोई पद हुआ, कोई कुर्सी हुई, कोई कृपा करने का साधन हुआ तब तो सोने पर सुहागा। इधर-उधर के सब लोग उन को उपदेश देने हेतु आमंत्रित करें गे। वह भी उसी तत्परता से सभी निमंत्रण स्वीकार करते हुये सभी वर्गों को उपदेश देते हुये नजर आयें गे। चाहे महिलाओं की सभा हो, या मजदूर का जलसा, छात्रों का सम्मेलन हो, अथवा पेंशन प्राप्त व्यक्तियों की बैठक, उन्हें अपने उपदेश देने से कोई नहीं रोक सकता. वह समदर्शी हैं. जानते हैं कि कोई भी बात कहीं भी उपयुक्त हो सकती है। कहीं कुछ भी बोल सकते हैं परन्तु षब्दजाल बुनने की कला आना चाहिये। और सुनने वाला भी यदि सोचे तो देखेगा कि आंखिर इस सब का मतलब क्या है। क्यों यह सब कहा जा रहा है और क्या किया जा रहा है। उस के लिये भी यहे सामान्य खानापुरी है। वक्ता को मालूम है कि उसे क्या कहना है। श्रोता को भी मालूम है कि वक्ता क्या कहेगा। वक्ता सुनने का बहाना करता है पर वह वैसे ही लौट आता है जैसा कि वह गया था. क्या इस का अंत संभव है,। क्या हम ने कभी इस बात पर चिंतन किया है कि हमारा इस प्रक्रिया में क्या योगदान है। क्यों हम अपने समय को अर्थहीन उपदेष सुनने में नष्ट करते हैं। वास्तव में यह हमें रास आता है। समय कट जाता है। हम ने कुछ काम करने की अपेक्षा आराम से उपदेश को सुनने को ही कर्तव्य की इतिश्री मान लिया है। वास्तव में हमें अपने समय का सदुपयोग करना चाहिये और अपने कार्य में जुट जाना चाहिये। इस से खोखले आदेश देने वालों के प्रपंच से बच कर उन्हें भी उन का वास्तविक कार्य करने के लिये प्रेरित कर सकें गे।
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