निमितमात्रं भव सव्यसाचिन
महाभारत का भीषण संग्राम, खड़ी कौरव सैना विशाल
वीर अर्जुन ने शर साधा, लक्ष्य बांध, छोड़ दिया बाण
शत्रु का विनाश देखे गा पल भर में होता हुआ काल
धरती आकाश में हो गी धनुर्धा्री की जय जय कार
पर कृष्ण को पसन्द नहीं आया अर्जुन का यह कर्म
बोले तब वह कर उसे सम्बोधित यह गम्भीर वचन
भूला क्या शिक्षा दे कर लाया था तुम को हे राजन
मुझ से पूछा भी नहीं कि क्या लक्ष्य है क्या है साधन
चला दिया तू ने अस्तर अपना, बिना विचारे मेरा ज्ञान
मेरा लक्ष्य क्या है इस का तुझ को रहा न कोई ध्यान
स्पष्ट कहा था तुझ को मेरे कहने से ही करना संग्राम
तभी विजय मिले गी दल को, पाये सफलता का वरदान
अब बस छोड़ दे तू इस रण को, जा कर कर विश्राम
नया सैनापति चाहिये मुझ को समाप्त हुआ तेरा काम
अब देख शिखण्डी को किस प्रकार वह धर्म है निभाता
पाये गा वह स्थान जो अब तक तुझ को था सुहाता
कितना समझाया था तुझ को निमितमात्रं भव सव्यसाचिन
पर तू अपनी करने पर उतर आया, समाप्त हुए तेरे दिन
कहें कक्कू कवि सीखो तुम भी इस से जीवन का सार
काम उसी अनुसार करो जितना तुम को मिले अधिकार
(टीप - कृष्ण के स्थान पर ममता बैनर्जी तथा अर्जुन के स्थान पर
दिनेश त्रिवेदी रख कर पढ़ें, मुकुल राय शिखण्डी हो सकते हैं)
1. श्री गीता अध्याय 11,33
¼यह कविता तब लिखी गई थी जब तृणमूल कॉंग्रैस के द्वारा दिनेश त्रिवेदी को रेल मन्त्री नियुक्त किया गया। रेल बजट में उस ने किराया बढ़ाने की घोषणा कर दी जो तृणमूल कॉंग्रैस अध्यक्षा ममता बेनर्जी को पसन्द नहीं आई। फलस्वरूप श्री त्रिवेदी को पद से हटना पड़ा)
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