top of page
  • kewal sethi

नैतिक शिक्षा


नैतिक शिक्षा

केवल कृष्ण सेेठी


धर्म निर्पेक्ष तथा धार्मिक शिक्षा में जो विरोधी भावनायें हम ने देखी हैं वह नैतिक शिक्षा के लिये भी लागू होती हैं। कुछ व्यक्ति इस को एक अल्प महत्व का स्थान देना चाहते हैंं। उन के लिये यह केवल ईमानदारी, निष्ठा, हिम्मत, आचार शुद्धि जैसी बातें ही हैं। दूसरे इस में विस्तृत सम्भावनायें पाते हैं। उन का कहना है कि पूरी शिक्षा एक प्रकार से नैतिक शिक्षा ही है।


शिक्षा में सब से महत्वपूर्ण बात तो यह है कि क्या यह हमें स्वतन्त्रता की ओर ले जाती है। यदि हम स्वयं स्वतन्त्र भी हैं तो भी क्या हम उतनी ही स्वतन्त्रता शिक्षा के क्षेत्र में अपने युवकों को देना चाहते हैं। सुकरात ने पूछा था क्या हम अच्छाई को सिखा सकते हैं। सब से बड़ी समस्या अनुशासन के बारे में है। स्वतन्त्रता को सही मायनों में अपनाने के लिये भी अनुशासन की आवश्यकता होती है।


फिर कर्तव्य पालन के लिये प्रेरणा कैसे दी जा सकती है।प्रजातन्त्र में व्यक्ति को महत्व दिया जाता है। इसी कारण माना जाता हे कि शिक्षक का कार्य प्रत्येक छात्र को उस की प्रतिभा के अनुसार शिक्षा दी जाना चाहिये। पर इस का अर्थ यह भी है कि सब छात्र भिन्न भिन्न योग्यता के हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो स्वतन्त्रता की बात ही नहीं उठती। सब एक जैसा व्यवहार करते। भिन्न भिन्न होते हुए भी वह एक जैसे हैं जिस से उन में समान चाहतें भी होती हैं।


चाहे स्वतन्त्रता के प्रति कितना ही मान क्यों न हो पर छात्रों को स्वतन्त्रता देने के बारे में हिचकचाहट है। छात्र परिपक्व नहीं होते, यह माना जाता है। उन्हें उन से वरिष्ठ सदस्यों की बात बिना किसी विरोध के मान लेना चाहिये। दूसरी ओर ऐसे भी हैं कि चाहते हैं कि बच्चों को पूरी आज़ादी दी जाना चाहिये। उन का कहना है कि प्रकृति को अपना काम करने देना चाहिये। चंकि बच्चे अपने को नहीं रोक पाते अत: इस बात के हिमायती कम ही होते हैं। फिर यह भी संदेहास्पद है कि क्या बच्चे उतनी स्वतन्त्रता चाहते भी हैं। वह भी दिशा निर्देश चाहते हैं। आज़ादी में भी कुछ दिशा निर्देश आवश्यक है।


कुछ का मत है कि सव्तन्त्रता केवल अपने में ही अच्छी नहीं है किन्तु उस के उलट नियन्त्रण में काफी दिक्कत है क्यों कि इस से शिक्षकों में स्वेच्छाचारिता बढ़ती है। उस से छात्रों में हीनता ही की भावना बढ़ती है। वह उस का बदला अपने से छोटों पर उतारते हैं। इस तरह यह परम्परा चलती है और इस कारण स्वतन्त्रता की आवश्यकता प्रतिवादित होती है। कुछ अन्य भी हैं जो अधिकार तथा स्वतन्त्रता को विरोधाभासी नहीं मानते हैं। उन का कथन है कि छात्रों को पूरी स्वतन्त्रता इस कारण नहीं दी जा सकती कि इस से अफरातफरी ही फैले गी। असली स्वतन्त्रता का अर्थ है कि नियम जो अनुमति देते हैं वही करना चाहिये।


एक और मत यह भी है कि कानून से बाहर भी काम करने की स्वतन्त्रता होना चाहिये। इसी से पुराने प्रचलित कायदों से हट कर कुछ नया करने की पहल होगी तथा उसी से समाज में प्रगति होगी। समाज को बदलने के लिये नई इच्छा शक्ति ही एक मात्र रास्ता होना चाहिये।


स्वतन्त्रता न केवल मानसिक होना चाहिये वरन् शारीरिक भी होना चाहिये। बिना मानसिक स्वतन्त्रता के शारीरिक स्वतन्त्रता अनुत्तरदायित्व ही होगा।


पर स्वतन्त्रता की बात मान भी ली जाये तो भी यह कैसे तय किया जाये गा कि कब कितनी स्वतन्त्रता होना चाहिये। रसायन शास्त्र की प्रयोगशाला में तब तक किसी को प्रवेश नहीं दिया जा सकता जब तक कि कुछ रसायन शास्त्र के बारे में ज्ञान न हो। समाज में जितनी स्वतन्त्रता हो गी उस से अधिक की कल्पना क्या शिक्षा क्षेत्र में की जा सकती है। स्वानुशासन में प्रशिक्षण क्या शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग नहीं होना चाहिये। अपने कार्य का परिणाम जब तक समझ में न आये तब तक उसे करने की इच्छा न होना ही स्वानुशासन का ध्येय है। इस से छात्र पर बाहरी अनुशासन की आवश्यकता ही नहीं रहे गी।


बात केवल छात्र की स्वतन्त्रता की ही नहीं है। शिक्षक की स्वतन्त्रता के बारे में भी बात की जाना होगा। न तो इस का एकदम विलुप्त किया जा सकता है कि पाठशाला में अफरातफरी फैल जाये तथा न इतना बढ़ाया जा सकता है कि वह जेलखाना हो जाये। जब तक अध्यापक को अपने अनुभव स्वतन्त्रता के माहौल में छात्र तक पहुंचाने का अणिकार न हो तब तक शिक्षा पूरी नहीं मानी जा सकती। पर उसे भी स्वानुशासन में ही रहना होगा।


वस्तुत: अच्छा शिक्षक वह है जो छात्रों में शिक्षा के प्रति इतना लगाव पैदा कर दे कि उस के समक्ष स्वतन्त्रता की बात ही न उठे। किसी नैतिकता का प्रश्न ही न उठे। इस का विकल्प यही है कि छात्र बिना किसी प्रश्न के शिक्षक की बात को शिरोधार्य करें। तीसरा रास्ता यह है कि अनुशासन रखने का दायित्व शिक्षक के स्थान पर पूरी कक्षा का ही हो। यदि कोई ऐसी परियोजना हो जिस में छात्रों का भी उतना ही दायित्व हे जितना शिक्षक का तो उसे पूरा करने की सब की जि़म्मेदारी हो जाये गी।


अगला प्रश्न दण्ड का है। सब कुछ करने के पश्चात भी यदि कोई छात्र कक्षा के साथ न चले अथवा अनुशासन में न रहे तो क्या शिक्षक को उसे दण्ड देने का अधिकार होना चाहिये अथवा नहीं। कुछ को दण्ड के बारे में कोई विश्वास नहीं है। उन के अनुसार इस से कोई लाभ नहीं होता। कुछ का कहना है कि भले ही छात्र को लाभ न हो पर उस को दण्ड देने से अन्य छात्रों को लाभ होता है। पर खतरा यही है कि कहीं भय होने के स्थान पर तिरस्कार की भावना पैदा न हो जाये। कुछ दण्ड को बदले की भावना मान कर चलते हैं। चौथी परिकल्पना यह है कि दण्ड वैसा होना चाहिये जो शिक्षाप्रद हो। इस अर्थ में दण्ड समाज सुधार का लक्ष्य प्राप्त कर लेता है।


अभी तक उन बातों के बारे में सोचा गया है जो सामाजिक दृषिट से महत्वपूर्ण हैं। पर नैतिकता के बारे में भी सोचना चाहिये। सामाजिक दृष्टि से किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये यह महत्वपूर्ण है पर अच्छे बुरे का ज्ञान भी होना आवश्यक है। पर नैतिकता के बारे मेें पहले नहीं बताया जा सकता क्यों कि इस से ज्ञान के आधार पर व्यवहार तय किया जा सकता है कि समाज को किस प्रकार का व्यवहार पसंद है। वास्तव में आवश्यकता इस बात की है कि सदव्यवहार की बात छात्र के मन में बैठ जाये। उस के ज्ञान के बारे में बाद में भी बतलाया जा सकता है जब छात्र अधिक परिपक्व हो जाये।


इसी संदर्भ में यह भी कहा जा सकता है कि नीतिशास्त्र का सम्बन्ध धर्म से भी है। कुछ लोग उन को अलग करना नहीं चाहें गे। पर अन्य लोगों का मत है कि नीति शास्त्र का सम्बन्ध केवल समाज से है। जो समाज को मान्य है वही नीति शास्त्र में होना चाहिये। इसी कारण परिवर्तन तथा स्वतन्त्रता की बात भी उठती है। पर कुछ का कहना है कि समाज से भी ऊपर की शकित के प्रति भी हमारी जवाबदारी है।




नैतिक शिक्षा का क्या सम्बन्ध दूसरे विषयों से होना चाहिये इस में भी मतभेद हैं। कुछ इन्हें एकदम अलग विषय मानते हैं। सामान्य विषय में कुछ परिणाम होते हें जिन तक पहुंचा जाना चाहिये। उन का एक निशिचत ध्येय होता है। पर नीति शास्त्र में ध्येय तो नहीं है वह तो जीवन का अंग ही बन जाना चाहिये। इसी कारण उसे अन्य विषयों की तरह नहीं पढ़ाया जा सकता। नैतिक सिद्धांत इस प्रकार के हैं कि वह सहज हैं। यदि वह सहज नहीं हैं तो वह नैतिकता से दूर हों गे। इस का दूसरा पहलू यह भी है कि सामान्य शिक्षा को ग्रहण करने में कमी हो तो उसे दूर किया जा सकता है। पर नैतिक विषय तो स्वयंमेव ही सिद्ध हो जाते हैं।


पर एक मत यह भी हे कि आज कल हर विषय का नैतिक पहलू भी है। उदाहरण के तौर पर एटम के बारे में जानकारी केवल वैज्ञानिक ही नहीं है। अणु बम्ब बनने के पश्चात उस का नैतिक पहलू भी उस के साथ ही सीखा जाना चाहिये। यदि व्यवहारिक पहलू नहीं सीखा जाये गा तो यह कोरा ज्ञान ही होगा एवं इस का लाभ नहीं होगा। एक प्रश्न यह भी है कि नीति सम्बन्धी ज्ञान इनिद्रयों द्वार प्राप्त नहीं किया जा सकता। अत: तर्क द्वारा इसे मनवाना कठिन है। यर्थाथवादियों को भय है कि ऐसी शिक्षा का अन्य शिक्षा पर क्या प्रभाव पड़े गा जिस में तर्क को ही महत्व दिया जाये गा।


नैतिक बिन्दुओं में क्या शामिल किया जा सकता है इस पर भी विचार किया जाना चाहिये। उदाहरण के तौर पर व्यकित परिश्रमी, हिम्मती, निष्ठावान, लग्नशील हो सकता है पर फिर भी वह नैतिकता की दूसरी बातों को न समझे और नेक चलन न हो। ऊपरी बातें तो किसी अपराधी के लिये भी उतनी ही आवश्यक हैं। अत: नैतिकता की शिक्षा में किन बातों पर ज़ोर दिया जाये यह तय करना भी अत्यावश्यक है।


फिर यह भी प्रश्न है कि क्या केवल शिक्षक के कहने पर ही छात्र द्वारा किसी सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाये गा। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि छात्र का अध्यापक के ऊपर कितना विश्वास है।


वास्तव में प्रतियोगिता धर्मनिर्पेक्षता, मानवतावाद तथा नैतिक शिक्षा के बीच में है। प्रश्न यह भी है कि क्या बिना धर्म के बारे में बात किये नैतिकता की बात की जा सकती है। मानवतावादी यह मानने को तैयार हैं कि नैतिक मूल्यों का उदगम सामाजिक पर्यावरण में ही होता है। धर्मनिर्पेक्ष भी इस से इंकार नहीं कर सकते। धार्मिक मनुष्य तो यह कहते हैं कि नैतिक नियम परमेश्वर ने बनाये हैं तथा उन्हें उन से अलग कर नहीं सीखा जा सकता। मन परिवर्तन के बिना नैतिक मूल्यों को सीखा नहीं जा सकता। <br />एक और बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिये। समाज किसी कर्म के ऊपर से किसी व्यकित के दोषी होने की बात तय करता है। इस के विपरीत धार्मिक व्यकित उस के दोषों को तभी मानते हैं जब उस ने जानबूझ कर नैतिक मूल्यों का उल्लंघन किया हो। उस के विचारों का महत्व है न कि उस के कार्यों का। वह छात्र की आन्तरिक सदेच्छा पर विश्वास नहीं करते। र्इश्वर की कृपा उन के लिये प्रथम आवश्यकता है। धर्म चयन में विश्वास नहीं रखता। चारित्रक शिक्षा और धार्मिक शिक्षा में यही अन्तर है। छात्र के लिये कोर्इ चयन शकित होना चाहिये या नहीं, इस पर मतभेद है। यदि छात्र चयन शकित के आधीन हो तो उस के लिये प्रशिक्षण की आवश्यकता भी होगी। यदि वह सफल नहीं होता है तो उस के लिये न केवल वह वरन प्रशिक्षक भी दोषी होगा। पूरे समाज को भी इस की जि़म्मेदारी लेनी होगी। कुछ का विचार है कि जब छात्र को शिक्षण दे दिया गया है। यही काफी है।


यहां पर प्रश्न यह भी उठता है कि क्या छात्र के लिये यह आवश्यक है कि वह अपनी प्रतिभा का विकास करे। उस ने शिक्षा का अधिकार प्रा्प्त किया है। पर इस में यह अधिकार भी शामिल है कि वह अपने को शिक्षित न करे। केवल कानून द्वारा निधार्रित शिक्षा प्राप्त करने के अतिरिक्त उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाना चाहिये।


चाहे नैतिक शिक्षा प्रत्यक्ष दी जाये अथवा परोक्ष रूप से, उस का तब तक कोई लाभ नहीं है, जब तक कि समाज में उस का व्यवहार करने का अवसर न मिले। इस के लिये शिक्षा कुछ नहीं कर पाये गी वह उस से बाहर का विषय है।



1 view

Recent Posts

See All

बौद्धिक वेश्या राजा राम मोहन राय को शिक्षा तथा समाज सुधारक के रूप में प्रचारित किया गया है। उन के नाम से राष्ट्रीय पुस्तकालय स्थापित किया गया है। परन्तु उन की वास्तविकता क्या थी, यह जानना उचित हो गा।

हम सब एक की सन्तान हैं मौलाना अरशद मदानी ने कहा कि ओम और अल्लाह एक ही है। इस बात के विरोध में जैन साधु और दूसरे सदन से उठकर चले गए। हिंदू संतों ने इस का विरोध किया है। मेरे विचार में विरोध की गुंजाइश

teaching is an art there was a sports school for animals. the sports chosen were jumping, swimming, running, and flying. all sorts of animals were there as students – elephants, eagles, rabbits, torto

bottom of page