top of page
  • kewal sethi

निकली राधा  घर से

निकली राधा  घर से


निकली राधा घर से


आज काम करते समय मैं बरसात की रात की कव्वाली गुनगुना रहा था। उस में मिसरा आता है

जब जब कृष्ण की बंसी बाजी निकली राधा घर से

ज्ञान ध्यान को भुला के, लोक लाज को तज के


मुझे अचानक ख्याल आया कि यह कितनी बेहूदा बात है। हम सत्रहवीं शताब्दि के रीति रिवाज को यहाॅं कयूूं लागू कर रहे हैं। सत्रहवीं सदी वह ज़माना था जब मुस्लिम शासक थे। इस्लाम में औरतों का घर से निकलना बन्द था। यदि कभी निकलना भी हो तो मर्द के साथ और वह भी पूरी तरह बुर्के में लिपटी हुई। शकल नहीं दिखनी चाहिये।

ज़ाहिर है कि इस माहौल में उन्हें राधा का घर से निकलना, वह भी रास के लिये, बाॅंसुरी की आवाज़ पर, लोक लाज के खिलाफ लगे गा। पर एक मिनट के लिये सोचिये। क्या इस्लाम के इस बेतुके रीति रिवाज को उस के 3000 साल पूर्व के घटनाक्रम पर लागू करना कितना हास्यास्पद होता यदि वह त्रासदी न होता। वह काल था कृषि प्रधान। पशुचारण का काल। इस काल में महिलाओं का पर्दे में रहने का कोई प्रश्न नहीं था। आज भी ग्राम्य जगत में औरतें खेत में तथा अन्यत्र कार्य करती हैं। आदिवासी क्षेत्र में कोई अलग अलग रखे जाने का भी प्रश्न नहीं है। बस्तर के मढ़इ मेले में क्या लड़के लड़कियाॅं अलग अलग रहती है? उस में सभी बराबर का भाग लेते हैं


अतः राधा जब रास लीला के लिये घर से निकलती है तो इस में लोक लज को तज देने का या ज्ञान ध्यान को भुलाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। और इस से आगे बढ़ कर क्ववाली में शब्द आते हैं - लाज राखो मेंरे घूॅंघट पट की। कहाॅं घूॅंघट, कैसा घूॅंघट। यह भी उस काल के तथ्यों से मेल नहीं खाता हैं।


मैं ने त्रासदी की बात की है। क्योंकि इस में एक और बात भी सामने आती है। राधा तथा कृष्ण दोनों दिव्य पवित्र आत्मायें हैं। वह भगवान का रूप हैं। उन के लिये बीसवीं शताब्दि की अवधारणाये लागू करना सरासर गल्त है। इस संदर्भ में लाज रखने को कोई भी उल्लेख निन्दनीय है। किसी की लाज खतरे में नहीं है जिस की रक्षा की जाना है।


वास्तव में इस प्रकार का साहित्य एक गलत बुद्धि की देन हैं। इस में हमारे पवित्र रिश्तों को बदनाम करने का प्रयास किया जाता है। कई बार श्री कृष्ण का उल्लेख करते समय उन के दिव्य रूप को भुला दिया जाता है। रास लीला की बात होती है - गलत तरीके से। नाग लीला की बात होती हे - गलत तरीके से। जिन का मन दूषित होता है अथवा जिन का जीवन ऐसे वातावरण में बीता है कि उन के विचार दूषित हो जाते है, उन से ऐसी अपेक्षा की जा सकती है। यहाॅं मैं उन लोगों की सोच रहा हूॅं जो जातिवाद के कारण अथवा अन्य धर्म के होने के कारण जानबूझ कर गलत व्याख्या करते हैं। उन की बीमारी का कोई इलाज नहीं है।


परन्तु जब हिन्दु भी इस तरह की बात करते हैं तो दुख होता है। यह बात हमेशा जानबूझ कर नहीं होती है। हमारे मन में ही वह भावना विभिन्न माध्यम से भर दी जाती है कि हम उसी तरह से सेाचने लगते हैं जैसी कि अपेक्षा होती है। कई बार हमें इस तरह से समझाया जाता है कि हिन्दु धर्म सदैव सहिष्णु रहा है और इस में उन बातों को भी अनदेखा किया जाना चाहिये जो हमारे धार्मिक विचारों को कलुषित कर पेश करते हैं। जब हम ऐसा करते हैं तो वह और प्रोत्साहित होते हैं। अपने आप पर हॅंसना अच्छी बात है पर वह सीमा के भीतर ही होना चाहिये। तथा हम अनजाने ही ऐसी बात कहते हैं जो हमें शोभा नहीं देती। मैं उन साधारण लोगों की सोच रहा हूूं जो इन्हें दिव्य आत्मा मानते हैं पर अज्ञानतावश इस प्रकार का व्यवहार करते हैं। इस प्रयास का प्रतिकार बचपन से ही किया जाना आवश्यक है। हमोर दिव्य व्यक्तियों के प्रति श्रद्धा का भाव अपनी सन्तान में तथा अपने पहचान वालों में उत्पन्न करना आवष्यक है।


1 view

Recent Posts

See All

संख्या और ऋगवेद

संख्या और ऋगवेद ऋग्वेद की दस पुस्तकों, जिनमें एक हजार अट्ठाईस कविताएँ शामिल हैं, में संख्याओं के लगभग तीन हजार नाम बिखरे हुए हैं। उनमें...

भारत के गणितज्ञ एवं उन की रचनायें

भारत के गणितज्ञ एवं उन की रचनायें भारत में गणित एवे खगोल शास्त्र ज्ञान को तीन चरणों में देखा जा सकता है। 1. वैदिक काल जिस में सुलभशास्त्र...

ताओ वाद

ताओ वाद चीन में तीन प्रकार की विचार धाराएं चलती है। ताओवाद, कन्फ्यूशियस वाद तथा बौद्ध विचार। तीनों का मिलन ही चीन की संस्कृति को परिभाषित...

Comments


bottom of page