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न्यायाधीशों की आचार संहिता

kewal sethi

न्यायाधीशों की आचार संहिता

केवल कृष्ण सेठी


(यह लेख मूलत: 7 दिसम्बर 1999 को लिखा गया था जो पुरोने कागज़ देखने पर प्राप्त हुआ। इसे ज्यों का त्यों प्रकाशित किया जा रहा है)


सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों ने एक आचार संहिता बनाई है। इस के अनुसार सभी न्यायाधीश अपनी सम्पत्ति की घोषणा करें गे। यह तय किया गया हे कि न्यायधीश अपने निकट के संबंधियों यथा पत्नि, बच्चे तथा दामाद को अपने समक्ष किसी की पैरवी के लिये उपस्थित नहीं होने दें गे। वह किसी ऐसे अभिभाषक से घनिष्ठ संबंध नहीं बनायें गे जोकि उन के सामने उपस्थित होते रहते हैं। वह किसी सार्वजनिक संस्था के चुनाव नहीं लड़ें गे। किसी निकट संबंधी को छोड् कर वह किसी से कोई कीमती तोहफा स्वीकार नहीं करें गे। शेअर तथा बाण्ड में व्यापार के रूप में क्रय विक्रय नहीं करें गे और सामान्य तौर पर ऐसा कोई कार्य नहीं करें गे जोकि उन के पद की मर्यादा के अनुरूप न हो।


यदि कोई भी संस्था अपने बारे में विचार कर कुछ सिद्धाँत अपनाती हे तो उस का स्वागत किया जाना चाहिए। पर प्रश्न यह उठता है कि इस प्रकार की संहिता को अपनाने की वर्तमान में क्या आवश्यकता थी। देश के एक प्रमुख अंग्रेûजी दैनिक टाईम्ज आफ इंडिया लिखता है कि अपनी स्वतंत्रता को सुदृढ़ करने के लिये यह आचार संहिता अपनाई गई है। इंडियन एक्सप्रैस के अनुसार न्याय व्यवस्था को अधिक उत्तरदायी बनाने की दृष्टी से यह कदम उठाया गया है। उस का यह भी कथन है कि सरकार ने जो निर्णय एक विधि आयोग बनाने का लिया है जिस में न्यायाधीशों के लिये आचार संहिता को बनाने का भी मुद्दा भी शामिल किया गया था, को रोकने के लिये यह कदम उठाया गया है। यह बात टाईम्जृ आफ इण्डिया के विचार से भी मेल खाती हे कि न्याय व्यवस्था की स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिये यह कदम उठाया गया है। अर्थात इस कदम के पीछे जनता के प्रति अपना दायित्त्व समझने की बात नहीं है वरन सरकार से एक कदम आगे रहने की बात ही प्रमुख है। इस से कई प्रश्न उठते हैं जिन पर विचार किया जाना आवश्यक है।


भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मु­ा एक आस्था का प्रश्न बन गया है। काँग्रैस ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इस मु­े को उठाया था। उस समय यह विचार था कि अंग्रेûजी शासन अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये न्यायपालिका का दुर्पयोग कर रहा है। उन के विरुद्ध जो निर्णय लिये जाते हैं वह कार्यपालिका के निर्देश के अनुसार लिये जाते हैं। जिस प्रकार गांधी जी के डांडी मार्च तथा नमक आंदोलन से भावनात्मक संबंध जुड़ गया था उसी प्रकार का भाव न्यायपालिका की स्वतंत्रता के प्रति भी हो गया है। आज यदि नमक पर कर लगाया जाता है तो तुरन्त गांधी जी के नाम की दुहाई दी जाती है परन्तु शराब जिस से काफी बड़ी आय होती है के बारे में उन के विचार भुला दिये जाते हैं। उसी प्रकार न्यायपालिका के प्रति अंधी आस्था रही है। पर इस का दुर्पयोग किया जाता रहा है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छन्दता के रूप में लिया जा रहा है। न्यायालय में भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक फैल चुका है। सालों तक मुक­मे चलते रहते हैं। पेशी दर पेशी इंसान बचपन से बुढ़ापे की ओर बढ़ जाता है पर न तो फौजदारी का कोई निर्णय हो पाता है और न ही दीवानी का। आज आम आदमी का विश्वास न्याय व्यवस्था से उठ रहा है। स्पष्ट है कि स्थिति इतनी बिगड़ चुकी थी कि सरकार को भी इस के बारे में विचार करने की आवश्यकता आ पड़ी। यह सर्व विदित है कि प्रजातंत्र में सरकार ही जनता का प्रतिनिधित्व करती है। शेष संस्थायें भले ही वरिष्ठ, अनुभवी तथा विद्वान व्यक्तियों से परिपूर्ण हों वह प्रजातंत्र में चुने हुए प्रतिनिधियों का स्थान नहीं ले सकतीं। इसी कारण सरकार ने घोषणा की कि एक राष्टीय विधि आयोग का गठन किया जाये गा जोकि न्यायधीशों की नियुक्ति, स्थानान्तर, आचार संहिता पर विचार करे गा। स्पष्ट है कि इसी के तारतम्य में आचार संहिता संबंधी निर्णय लिया गया है। चाहे जिस कारण भी यह निर्णय लिया गया हो यदि इस का पालन किया जाता है तो इस का स्वागत किया जाना चाहिए। पर क्या हमारा अनुभव इस की अनुमति देता है।


मेल जोल कम रखना, संस्था के चुनाव न लड़ना, सगे संबंधियों को अपने सामने आने की अनुमति न देना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। कोई भी भ्रष्ट व्यक्ति इतनी सावधानी तो बरतता ही है कि वह ऐसा काम न करे जिस से बेईमानी साफ झ्लकती हो। यह तो केवल दिखावे की बात है कि इन पर प्रतिबंध लगाया गया है। इन से कोई अन्तर आने की अपेक्षा नहीं है। यदि वास्तव में भ्रष्टाचार पर काबू पाना है तो उस के तरीके दूसरे ही हों गे। मूल बात तो यह है कि न्यायाधीश समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझें। आज तो वह यह समझ्ते हैं कि उन्हें कोई ईश्वरीय अधिकार प्राप्त हो गये हैं और वह दूसरे नागरिकों से ऊपर हो गए हैं। उन को अन्य नागरिकों पर रौअब जमाने का हक मिल गया है। इसी के चलते वह वरिष्ठ अधिकारियों को अपने समक्ष किसी कारणवश या नाम मात्र कारण से भी बुला लेते हैं और उन्हें घण्टों तक बिठा कर परेशान करते हैं। वह यह नहीं समझ्ते कि जितनी देर वह अधिकारी उन के समक्ष है, उतनी देर वह जनता के प्रति अपना कर्तव्य नहीं निभा रहा है। जो बात सामान्य नागरिक द्वारा वकील द्वारा बतलाई जा सकती है, वह भी अधिकारी द्वारा स्वयं आ कर बताई जाना चाहिए। इस के पीछे भावना यही होती है कि ्अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की जाये। इस श्रेष्ठता की भावना का प्रदर्शन ही सारे फसाद की जड़ है। सम्मन, ज़मानत नामा, अन्य अभिलेख तथा आदेश की भाषा अभी तक बदली नहीं जा सकी है और उन में अभी भी यह आभास होता है जैसे किसी निम्न श्रेणी के व्यक्ति से सम्पर्क करना हो। न्यायाधीशों को युअर लार्डशिप कहना आज भी अनिवार्य है।


इस श्रेष्ठता का दूसरे रूप में प्रदर्शन किसी भी पुलिस प्रकरण में खामियाँ डूँढने के रूप में होता है। इस से अपराधी को छूटने का अवसर रहता है। यदि कोई अपराधी छूट जाए तो इस से न्याय व्यवस्था में लोगों की आस्था को कितनी क्षति पहूँचती है, इस से सरोकार न्यायाधीशों का नहीं रहता है। अभी हाल में एक प्रकरण में ऐसा ही हुआ है। प्रकरण था प्रियदर्शिनी मट्टू का जिस के साथ बलात्कार किया गया तथा उस के पश्चात उस की हत्या कर दी गई। आरोपी के विरुद्ध प्रकरण चला और उसे संदेह का लाभ दे कर बरी कर दिया गया। लेकिन गौर करने की बात यह है कि न्यायाधीश ने निर्णय देते हुए कहा है कि वह पूरी तरह से निश्चिंत है कि आरोपी ने ही यह अपराध किया है परन्तु चूँकि वह एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का बेटा है अतः उस के विरुद्ध प्रकरण बनाने में सी बी आई ने जान बूझ कर लापरवाही बरती है और प्रकरण में कोताही की है। प्रश्न यह है कि जब न्यायाधीश इस बारे में संतुष्ट था कि अपराध आरोपी ने ही किया है तो उसे दण्ड क्यों नहीं दिया जा सकता था। न्यायाधीश से अपेक्षित है कि उस ने अपनी राय अपने समक्ष प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर ही बनाई होगीं। जब साक्ष्य से वह संतुष्ट थे तो फिर उसे दोषी क्यों नही कहा गया और दण्ड क्यों नहीं दिया गया। सी बी आई ने गल्त कार्य किया होगा पर क्या इसी का सहारा ले कर आरोपी को बरी कर देना उचित था। क्या इस से अपराधियों का मनोबल नहीं बढ़े गा। क्या यह समाज के प्रति न्याय है। दोषी मान कर भी दण्ड न देना क्या संदेश देता है।


इसी प्रकार के आदेश नज़रबंदी कानून के तहत दिये गए। एक व्यक्ति को देश की सुरक्षा की दृष्टि से एक वर्ष के लिये नज़रबंद किया गया। नज़रबंदी के आदेश में दस बारह कारण बताये गए थे। उसे इस आधार पर छोड़ दिया गया कि उन में से एक कारण के बारे में साक्ष्य संतोषजनक नहीं था। शेष नौ कारणों के विरुद्ध कुछ नहीं कहा गया। यह माना जा सकता है कि वह सही थे। भले ही यह आदेश कानूनी रूप से सही हो पर इस का प्रभाव क्या होता है। यदि वह एक भी आधार पर नज़रबंद रखने के योग्य था तो क्या यह जनता के हित में नहीं था कि उसे एक वर्ष के लिये शरारत करने से रोका जाता।


क्षोभ इस बात का है कि आजकल मूल सार की बात पर ध्यान न दिया जा कर केवल ऊपरी दिखावट पर ही ध्यान दिया जाता है। कहा जाता है कि न्याय होना ही नहीं चाहिए, वह दिखना भी चाहिए। यही बात अन्याय के लिये भी कही जा सकती है कि अन्याय नहीं होना चाहिए और यह दिखना भी नहीं चाहिए कि अन्याय हो रहा है। पर यहाँ स्पष्ट रूप से यह दिख रहा है। यह तो बड़ी बात है पर एक छोटी बात को देखें। यह जानते हुए भी प्रकरण में पेशी केवल प्रकरण को टालने के लिये माँगी जा रही है, मुकद्द­मा मुलतवी कर दिया जाता है। अदालत में इस के लिये क्या क्या बहाने बनाए जाते हैं, यह फिल्म दामिनी में दर्शाया गया था। वकील अदालत में दिल का दौरा पड़ने का नाटक करता है और उस के आधार पर तारीख दे दी जाती है। क्या न्यायधीश ने यह जानने का प्रयास किया कि उस के पश्चात क्या वह वकील हस्पताल में भरती हुआ या फिर सीधे अपने घर चला गया। क्या उस के विरुद्ध अनैतिक तरीके अपनाने के लिये उसे जीवन भर के लिये वकालत के अयोग्य मानने की कारवाई नहीं की जा सकती थी। खैर वह तो फिल्म की बात थी पर हम सब जानते हैं कि वास्तविक जीवन में भी यही नाटक खेला जा रहा है। और किसी के विरुद्ध कभी कोई कारवाई नहीं होती है। बल्कि उदारता पूर्वक कार्य करने कड़े निर्देश होते हैं। मुकद्द­मे को लम्बा खैंचने का एक अन्य नायाब तरीका पेशी पर अनुपस्थित हो जाना है। इस के तीस दिन के बाद प्रकरण को पुनः नम्बर पर लेने का प्रार्थनापत्र लगाया जाता है। फिर दूसरे पक्ष को नोटिस और सुनवाई का नाटक। अन्त में यह कह कर प्रकरण को नम्बर पर ले लिया जाता है कि उच्च न्यायलय के निर्णय हैं कि प्रकरण पुनः नम्बर पर लेने में उदारता बरतना चाहिए। वकील की गल्ती की सज़ा मौकिल को नहीं देना चाहिए यद्यपि मौकिल ने अभी भी उसी गल्ती करने वाले वकील को अपना वकील बनाया हुआ है तथा वही वकील यह बात भी कह रहा है। इस तरह के कुछ नहीं तो उच्च न्यायलय तथा सर्वोच्च न्यायालय के दर्जन भर प्रकरण हों गे जिन के कारण इस तरह प्रकरण को लम्बित रखने का इनाम दिया जा सकता है।


इस आचार संहिता में कहीं यह नहीं कहा गया है कि इसे लागू कैसे किया जाये गा। जैसा कि पूर्व में कहा गया है किसी भी व्यक्ति से इसी तरह के व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। इस के लिये किसी आचार संहिता को अपनाने की आवश्यकता नहीं है। इस का लाभ तभी है जब इस को लागू करने का कोई तरीका निकाला जाए। क्या दोषी को किसी उल्लंघन की सज़ा दी जाए गी। क्या इस के लिये कोई वैधानिक आधार उपलब्ध कराया जाए गा। क्या इस के लिये संसद से कहा जाए गा कि वह इस के लिये कानून बनाए। यदि ऐसा नहीं होता है तो यह केवल घोषणा मात्र ही सिद्ध होगा।

एक बात और देखें। किसी भी प्रशासकीय अधिकारी को अपने काम में गल्ती करने पर उस के विरुद्ध विभागीय जाँच करने का प्रावधान है। यहाँ यह कहना उचित होगा कि बात केवल बेईमानी और भ्रष्टाचार की नहीं हो रही है जिस के लिये विभागीय जाँच के अतिरिक्त अपराधिक प्रकरण भी चलाया जा सकता है। बात है प्रशासनिक कार्य में नियमों का पालन न करने की या प्रक्रिया को पूरी तरह न अपनाने की या उस में लापरवाही बरतने की। इन सभी में प्रशासनिक अधिकारियों के विरुद्ध विभागीय कारवाई की जाती है। क्या किसी न्यायाधीश के विरुद्ध इस प्रकार की कारवाई कभी की जाती है। कहा यह जाता है कि यदि पक्षकार संतुष्ट नहीं है तो वह अपील में जा सकता है पर क्या वरिष्ठ न्यायालयों का यह दायित्व नहीं है कि वह इस प्रकार के प्रकरणों में गल्त निर्णय करने वाले न्यायाधीश के विरुद्ध कारवाई करें। एक बहुत प्रसिद्ध प्रकरण का स्मरण करें। एक व्यक्ति बलबीर सिंह को हत्या के आरोप में मृत्यूदण्ड दिया गया। उच्च न्यायालय ने इसे यथावत रखा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उस के प्रति कुछ भी साक्ष्य नहीं है। स्पष्टतः ही भावनाओं के तहत उसे प्राणदण्ड दिया गया था जब कि उस के विरुद्ध साक्ष्य नही था। क्या इस प्रकरण में इस प्रकार भावना प्रधान निर्णय देने वालों के विरुद्ध कोई कारवाई की गई। यह तो एक ऐसा प्रकरण था जिस पर सारे विश्व की नज़र थी पर जहाँ पर सार्वजनिक रुचि नहीं होती है उन प्रकरणों में क्या होता होगा उस की कल्पना ही की जा सकती है। इन के ऊपर देख रेख करने की ज़िम्मेदारी भी किसी पर होना चाहिए। संयुक्त राज्य अमरीका में जहाँ न्यायाधीशों को भी चुनाव लड़ना पड़ता है, अपने निणयों के बारे में स्पष्टीकरण देना होता हैं पर हमारे यहाँ न्यायपालिका की स्वतंत्रता के नाम पर सभी गलत निर्णय बिना किसी टिप्पणी के निकल जाते है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता की यह गल्त व्याख्या है। इस को भी समाप्त किया जाना चाहिए। तभी इस प्रकार की आचार संहिताओं का कोई लाभ होगा। नहीं तो दो चार रोज़ में इसे भी भुला दिया जाए गा।




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