देश के प्रति कर्तव्य
आप का पहला कर्तव्य, जैसा कि अन्यत्र कहा गया है, महत्व की दृष्टि से मानवता के प्रति है। नागरिक, पिता, होने से पूर्व आप मनुष्य है। यदि आप पूरे विश्व परिवार को अपना नहीं मानते, परमात्मा के बनाये जीव को अपना नहीं मानते तो आप ईश्वर के प्रति समर्पित नहीं हो सकते। परन्तु यह भी सत्य है कि बिना देश के आप निराधार हो जाते हैं। उस के बिना न आप का नाम है, न कोई चिन्ह, न कोई आवाज़, न कोई अधिकार। आप बिना झण्डे के सैना, बिना जल के कुँवा, बिना वेद के ब्राह्मण जैसे हो जाओ गे। केवल अपना हित साधने से किसी का हित नहीं सधता है। आपसी व्यवहार के लिये कोई भूमि तैयार नहीं होती है। धन प्राप्ति भले ही हो जाये किन्तु आदर की अपेक्षा करना बेकार है। मनीषियों ने देश का स्थान इतना ऊँचा माना है कि उसे माता कह कर पुकारा है। उद्योग, धन्धे, कारखाने सब देश के साथ ही हैं। यह अविवादित सत्य है कि देश ही वह धुरी है जिस के आधार पर हम मानवता की सेवा कर सकते हैं। यदि हमें इस धुरी का अवलम्बन न हो तो हम न केवल देश के लिये वरन्् मानवता के लिये भी अनुपयोगी हो जायें गे। यदि देश का मान है तो ही आप का भी मान है।
देश के प्रति कर्तव्य किसी भी रूप में सामने आ सकते हैं। हम जो भी कार्य करने उसे देश का कार्य समझ कर करने में ही आनन्द का अनुभव होता है। हमारा देश एक ही है तथा इसे बाँटा नहीं जा सकता। जिस प्रकार शरीर के किसी भी अंग पर वार होने से सभी अंग प्रभावित होते हैं, उसी प्रकार देश के किसी भी भाग को कोई क्षति पहुँचे, पीड़ा सभी नागरिकों को होना चाहिये। हर नागरिक को दूसरे नागरिकों के लिये भी अपने को उत्तरदायी मानना चाहिये। देश के बाहर भी तथा अन्दर भी हमारा व्यवहार ऐसा होना चाहिये कि देश का नाम ऊँचा हो।
देश की पहचान केवल क्षेत्र से नहीं होती। उस की अपनी अस्मिता, अपना संदर्भ, अपना आदर्श होता है। इस की अपनी संस्कृति, अपनी परम्परायें, अपने संस्कार होते हैं। किसी देश की महानता का परिचय उस के आदर्श पुरुषों तथा महिलाओं से ही होता है। उस के पवित्र ग्रन्थों तथा उस के पावन स्थानों से लगाया जा सकता है। भारत इस दृष्टि से सम्पन्न है। यह सब प्रतीक हमारी देश के प्रति श्रद्धा को पुष्टि प्रदान करते हैं। सहस्राब्दियों का इस का इतिहास हमें प्राचीन गौरव की अनुभूति कराता है। इस पर मान करना तथा इस छवि को बनाये रखने का संकल्प ही सत्य अर्थों में देश के प्रति कर्तव्य है।
देश के सभी नागरिक बराबर अधिकारों तथा एक समान कर्तव्यों वाले हैं जो एक दूसरे के भातृत्व भाव में एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर हैं। देश केवल लोगों का जमघट नहीं है, यह परिस्थितिवश एक स्थान पर लाये गये व्यक्ति नहीं हैं जो कुछ समय पश्चात एक दूसरे से अलग हो जायें गे। यह एक परिसंघ है, सब का भविष्य इस में जुड़ा हुआ है। इस में पूजा पद्धति के, जातपात के, लिं्रग भेद के अथवा निवास स्थान के भेद भाव का कोई स्थान नहीं है। किसी के अधिकार हनन का इस में कोई स्थान नहीं है। हर नागरिक का सभी प्रकार के भेद भाव के विरुद्ध संघर्ष करना पावन कर्तव्य है।
केवल एक ही भेद की अनुमति है। यह भेद प्रतिभा का है। यह ईश्वर का वरदान है, किसी व्यक्ति की कृपा नहीं। इस कारण प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह अपनी प्रतिभा, अपने श्रम, अपने प्रयास से किसी भी ऊँचाई तक पहुँच सके। परन्तु यह उपलब्धि भी किसी दूसरे का हक मार कर आगे बढ़ने की नहीं होनी चाहिये। इस में किसी अवरोध को उत्पन्न करना देश के प्रति द्रोह है। हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह भ्रातृत्व को आगे बढ़ाने में सहायक भूमिका का निर्वाह करे। शेष सभी अधिकार ¬समान है। कोई ऐसा अधिकार जो सभी नागरिकों को प्राप्त नहीं है, अतिक्रमण है, अत्याचार है। इस का विरोध किया जाना भी कर्तव्य है।
आप का देश आप का मंदिर होना चाहिये जिस में देव आप का ईश्वर होना चाहिये। और इस मंदिर में सभी समान हैं। यही परम सत्य है। इस का कोई विकल्प नहीं है। जितने भी कानून हैं, उन्हें इस कसौटी पर परखना हो गा। यदि वे इस पर खरे उतरते हैं, तो ही वे पालन योग्य है अन्यथा उन में संशोधन करना हो गा। वास्तव में कानून को सभी के हितों का ध्यान रखना हो गा, सभी की मनोभावना को प्रतिबिम्बित करना हो गा। एक प्रकार से पूरे देश को ही विधि का निर्माता होना चाहिये। किसी एक संस्था को इस का अधिकार सौंपना अथवा किसी एक संस्था को इस की व्याख्या करने का अधिकार सौंपना स्वीकार्य नहीं हो सकता। अंतिम निर्णय जनता का, नागरिकों का, देश का ही होना चाहिये।
देश केवल भूभाग नहीं है। भूभाग केवल एक आधार है। आपसी प्रेम का भाव, आपसी सदभाव का भाव, आपसी सहयोग ही इसे देश बनाता है। जब तक एक भी व्यक्ति इस में अशिक्षित है, जब तक एक भी व्यक्ति इस में जीवनयापन के अवसर से वंचित है, जब तक एक भी व्यक्ति अपने विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता से वंचित है, देश वह नहीं है जो होना चाहिये। तब तक हमें चैन से नहीं बैठना है।
स्वतन्त्र मतदान, शिक्षा तथा रोज़गार का अवसर - यह तीनों ही देश की प्रगति के स्तम्भ हैं तथा यही हमारा लक्ष्य होना चाहिये। कहा गया है कि स्वतन्त्रता के लिये सतत सतर्कता की आवश्यकता है। अपने अधिकारों का सर्व स्थान पर, सर्व परिस्थितियों में, रक्षा करना देश के प्रति प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। इन को प्रतिदिन सुदृढ़ करने का निश्चय होना चाहिये। यही देश की पुकार है।
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