दिल आज फिर
दिल आज फिर गमगीन है कोई नगमा गाईये
है तकाज़ा यह हाल का फिर कोई जाम उठाईये
मुद्दतें हुई हैं हम से बहारों को जुदा हुए
कब तक याद की लाशों को गले लगाईये
बुझ चुकी है आग सिर्फ राख है अब बाकी
क्यों मार मार कर फूंकें दिल अपना जलाईये
याद रह रह कर तड़पा जाती है गुज़रे दौर की
भूलता नहीं है वह ज़माना, चाहे कितना भुलाईये
अब शहरे खामोशां ही है हमारी किस्मत में
क्यों छेड़ कर कोर्इ साज़ इन्हें आज सताईये
बैठा हूं मैं तो तुम्हारे ही इंतज़ार में ए रकीब
अब आप ही आ कर दिल इन का बहलाईये
टूट जाता है दिल, पड़ती है जब भी चोट कोई
शीशों से नाज़ुक है यह, क्यों इन्हें आज़माईये
रुक गई है इक मोड़ पर आ के रफ़्तारे जि़ंदगी
अब आप ही इस को नई मंजि़ल दिखाईये
औरों का दिल क्या बहलाओ गे आज तुम कक्कू कवि
कर के कोशिश अपनी यह मन्हूसियत तो मिटाईये
(रेल गाड़ी - फरवरी 1986)
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