देश किन का है?
केवल कृष्ण सेठी
हमारे एक मित्र से एक बार बहस हो गई। हमारा कहना था कि यह देश मूर्ख बनाने वालों तथा मूर्ख बनने वालों का देश है। आप देखिए कि अंग्रेज़ों ने लगभग दो सौ साल तक हमें मूर्ख बनाया और जाते जाते भी दो देश बना कर आपस में लड़ा कर मूर्ख बना गये। उन के जाने के पश्चात कुछ लोगों ने बागडोर संभाल ली और हमें मूर्ख बनाते जा रहे हैं। कहा यह जाता है कि हम उन के बलिदान की कीमत अदा कर रहे हैं। देखिए उन के परिवार ने कितना बलिदान किया। पैरिस से कपड़े धुलवाने वालों ने देश में ही कपड़े धुलवाने शुरू कर दिए और उन का यह स्वदेशी अंदोलन में योगदान इतना महान था कि गॉंधी जी ने सब को एक ओर रख कर उन्हें बागडोर सौंप दी। तब से वह बराबर देश की सेवा किए जा रहे हैं। आदमी के पुण्य सात पीढ़ियों तक साथ देते हैं और अभी उन की पीढ़ि़यॉं ही कितनी हुई हैं। उन की देखा देखी दूसरे नेताओं ने भी जनता को मूर्ख बनानेे का बीड़ा उठा लिया है। और वह इतने उतावले हैं कि कोई भी तरीका अपना कर मतदाताओं को मूर्ख्र बनाते हैं और उन की सेवा किए चले जाते हैं। तभी तो उन्हों ने गरीबी हटाने का प्रण किया। विघ्नसंतोषी कहते हैं कि गरीबी तो उन्हीं की ही हट रही है। जैसे वह यह न जानते हों कि यह लोग भी तो देश का हिस्सा ही हैं। वह ठीक कहते हैं कि उन की गरीबी हटी तो देश में किसी की तो हटी।
उन के बाद ओर आये। उन्हों ने वायदे किये। जनता ने न्हें गद्दी पर बिठा दिया। ओर वह मंदिर बनाने में जुट गये क्योंकि यह मूर्ख बनाने का अच्छा तरीका लगां। बाकी वायदे भूल गये या उल्हें संजो कर रख लिया ताकि बवक्ते ज़रूरत काम आयें। जनता मूर्ख बन कर सोचने लगी, एक मौका और दे दो, शायद वायदे पूरे कर दें। सो फिर उन्हें सत्ता दे दी। अब के उन्हों ने एक वायदा और पूरा कर दिया। और तीसरी बार के लिये सामने आ गय। परन्तु इस बार उन का सामना एक और मूर्ख बनाने वाले से हो गया। उस ने इतने वायदे किये कि वायदे भी शमिंदा हो गये। अब मुकाबला हो गया दो मूर्ख बनाने वालों में। एक को तो जीतना ही था। एक जीत गया, दूसरा मन मसोस कर रह गया।
अरे नेताओं की छोड़ो, क्या दुकानदार ग्राहकों को मूर्ख नहीं बना रहा है। दफतर में अधिकारी बैठ कर जनता को मूर्ख बना रहा है तो कर्मचारी अपने अधिकारी को ही मूर्ख बना रहा है। यानि कि हर कोई इसी ताक में है कि दूसरे को मूर्ख कैसे बनाया जाए। दूसरी ओर सामान्य नागरिक हैं कि मूर्ख बनता जा रहा है। कई बार नारे खोखले निकले फिर भी उन का साथ नहीं छोड़ता। दुकानदार मिलावटी सामान बेचता है पर सामान तो उसी से लेना है। कोई प्रतिक्रिया भी नहीं। अधिकारी भ्रष्टाचारी, कर्मचारी कामचोर है पर उन्हीं के हाथ पैर जोड़़ता है। यह सारी प्रणाली ही इन मूर्ख बनने वालों के द्वारा निभाई जा रही है।
पर हमारे मित्र इस सीधी सी बात से इंकार करते हैं। उन का कहना है कि कोई मूर्ख नहीं बना रहा न ही कोई बन रहा है। उन का तर्क है कि यह देश तो वस्तुतः मसखरों का देश है। मसखरे का काम लोगों को हंसाना है। उन का मन बहलाना है। वही हमारे नेतागण कर रहे हैं। नेता कहते हैं कि हम गरीबी हटा दें गे। मतदाता जानता है कि ऐसे झूटे वादे तो करना ही होता है। पर वह इसे एक अच्छा मज़ाक मान कर इसका लुत्फ उठाता है। और प्रसन्न हो कर पॉंच वर्ष का पट्टा दे देता है। वदले में सरकार से उसे भी पट्टा मिल जाता है। दुकानदार कहता है कि मैं तो अपने को लुटा रहा हॅ। ग्राहक मन ही मन हॅंसता है और उसे पैसा दे कर माल खरीद लेता है। अगर कभी आप भेस बदल कर कर्मचारियों के बीच बैठें तो आप तुरन्त जान जायें कि अधिकारी मूर्ख नहीं बना रहे हैं। वह तो केवल परिहास के ही पात्र है। किसान हो या मज़दूर सभी मुसीबत में भी हॅंस कर अपना मन बहलाते हैं और जीवन काट देते हैं। और जो नई नई बातें सोची जा रही हैं वह तो हास्यास्पद होती ही हैं। इण्डिया इज़ इन्दिरा कहने वाले क्या विदूशक नहीं थे। नेता जी की चप्पल उठाने वाले क्या हॅंसी का पात्र नहीं थे। समाजवाद का नारा देने वाले जब सरकारी उद्योगों का निजीकरण करने की बात करते हैं तो क्या आप को हॅंसी नहीं आती। एक तरफ़ यह सब अपने विदूशक पन से मन बहला रहे हैं और दूसरी तरफ़ सामान्य लोग वाह वाही करते हैं। किसी भी समारोह को ले लीजिये, सुनने वालों की भीड़ लग जाती है। उन्हें मालूम है कि क्या कहा जाये गा। वह सुनने नहीं आए हैं, सभा का आनन्द लेने आए हैं। विदूशकों का करतब देखने आए हैं।
जब हमारी बहस एक दूसरे को मूर्ख बनाने और हॅसाने की हद से गुज़र कर गम्भीर हो गई तो हम ने अपने तीसरे मित्र से झगड़ा निपटाने की प्रार्थना की। परन्तु जैसा कि अकसर होता है समस्या और भी गम्भीर हो गई। क्योकि उन का एक अपना अलग ही मत था। उन का कहना था कि हम झगड़ किस बात पर रहे हैं क्योंकि दोनों ही सही हैं और दोनों ही गल्त हैं। अब यह एक आश्चर्यजनक बात थी क्योंकि दोनों ही सही या दोनों ही गल्त कैसे हो सकते थे। हमारे तीसरे मित्र ने इसे इस प्रकार समझाया। जो व्यक्ति मूर्ख बनाता है वह तो मूर्ख बनाता ही है पर मसखरी भी तो वही कर रहा है। सब जानते हैं कि यह विदूशक जो कि रस्सी पर झूलने के दिखावटी प्रयास में अपनी पैंट उतरवा देता है तथा हमें हॅंसने पर मजबूर करता है, वास्तव में एक मंझा हुआ करतबबाज़ है। वह केवल नाटक कर रहा है। अर्थात वह हमें वास्तव में मूर्ख बना रहा है। वह विदूशक जो एक दूसरे को लकड़ी से मार रहे हैं वह वास्तव में केवल खोखली लकड़ी का प्रयोग कर रहे हैं जिस से चोट पहॅंचने की कोई संभावना नहीं है। यह सांसद जो चीख चीख कर एक दूसरे को कोस रहे हैं, वह नाटक कर रहे हैं। और अभी जब सांसदों के भत्ते बढ़ाने का विधेयक आए गा तो यह सब शॉंत और एकमत हो जायें गे। सत्तर लाख की बस में बैठना होगा तो उन में कोई विरोध नहीं होगा पर बस का किराया पंद्रह पैसे बढ़ाए जायें गे तो उन का पारा चढ़ जाए गा। झगड़ा केवल दिखावटी है और हमारे मनोरंजन के लिये है ही। वह भी हमें मूर्ख बना रहे हैं। केवल अंतर इतना है कि विदूशक हमें हॅंसा कर मूर्ख बनाते हैं। दूसरे लोगों की तरह गम्भीर रह कर नहीं। और जो गम्भीर रह कर मूर्ख बना रहा है वह भी अपने दिल में हॅंस रहा है। और हम भी यह जानते हैं कि यही नेता जो अभी हमें नशाबंदी पर इतना सुन्दर भाषण दे कर गया है अब जा कर अंग्रेज़ी छाने गा। जो स्वर्ग दिलाने का वायदा कर के गया है वह किसी अप्सरा से वादा कर के आया है। वह केवल दिखावा कर रहा है और यद्यपि वह गम्भीर होने का नाटक कर रहा है पर वह वास्तव में विदूशक ही है। वह भीतर ही भीतर हम पर हॅंस रहा है। इस तरह से यदि वास्तव में यह देश मूर्खों या विदूशकों का देश है तो यह दोनों ही सही हैं
पर कुछ लोगों की नज़र में वास्तव में ऐसा है नहीे। यह देश मूर्खों या विदूशकों का देश नहीं है। यह तो ठेकेदारों का देश है। सभी ठेकेदार हैं। किसी ने धर्म का ठेका ले रखा है। किसी ने देश सुधार का। किसी ने पैसा कमाने का। एक सज्जन थे जो प्रधान मंत्री बन गए। उन्हों ने देश को अंतर्राष्ट्रीय दर्जा दिलाने का ठेका ले लिया था। वह इस हद तक गये कि देश का नाम ही बदल दिया। भारत को भारत नहीं रहने दिया। उन का कहना था कि अगर हम ने इस देश को भारत कहना शुरू कर दिया तो संसार के लोगों को इस के बारे में पता ही नहीं चले गा कि हम हैं कौन और कहॉं हैं। अगर गलती से किसी ने कोई सामान भेज दिया तो वह भारत न आ कर पता नहीं किस देश में उतर जाए और हम पैसे दे कर भी टापते ही रह जायें। उन के करने से और कुछ हुआ हो या न हुआ हो पर हम एक जाने माने एड (सहायता, बीमारी नहीं या यदि आप सहायता को बीमारी कहते हों तो अलग बात है) प्राप्त करने वाली कौम बन गये। नाम इण्डिया होने से विश्व बैंक को या अन्य देशों कोें कोई दिक्कत नहीं आती वरना जाने क्या हो जाता। इसी के चलते उन्हों ने बाम्बे को मुंबई या मद्रास को चन्नै नहीं होने दिया। कहने को तो लोग कहते हैं कि मुंबई या चन्नै हो जाने पर भी लोगों का यहॉं तक कि विदेशियों का भी वहॉं आना नहीं रुका। पर यह तो समय की बात है। उन्हों ने तो ईमानदारी से जिस चीज़ का ठेका लिया था उसे जीते जी निभाया। भाषा के मामले में वह अंग्रेज़ी को पूरी तरह तो लाद नहीं पाए पर उसे सह-शासकीय भाषा बना दिया जिसे हम आज तक हटा नहीं पाए। उन के प्रयास के बावजूद हिंदी शासकीय भाषा बन तो गई पर उन्हों ने अंक तो अंग्रेज़ी के लाद ही दिये। तर्क वही था कि विदेश से आने वाला कैसे जाऩ पाए गा कि वह दिल्ली से कितनी दूर रह गया है। पहुॅंच ही नहीं पाए गा। उस की सोचो। भारतवासी तो कहीं जायें गे नहीं और गए भी तो पूछ पूछ कर पहुॅंच ही जायें गे।
एक ठेका जल्दी से देश की प्रगति का भी था। संविधान में राज्यों की, जो कि स्वतंत्र इकाईयॉं होना थी, की कल्पना की गई थी पर क्या वहॉं के नेता प्रगति को समझ सकें गे। इसलिये उक्त ठेकेदार ने एक योजना आयोग बना दिया जिसका संविधान में कहीं वर्णन नहीं है। यह आयोग सारे शासन से अधिक महत्तवपूर्ण हो गया। सभी विकास की योजनायें आयोग ही देखे गा व स्वीकार करे गा चाहे वह केन्द्र सरकार की हों या राज्य सरकारों की। इस का प्रभार किसी चुने हुए व्यक्ति को नहीं वरण मनोनीत मन पसंद व्यक्ति को दिया जाता था या स्वयं रखा जाता था ताकि प्रगति के ठेके को पूरा करने में रूकावट न आए।
एक हमारे सेशन जी थे। उन्हों ने चुनाव प्रक्रिया को अकेले ही सुधारने का ठेका ले लिया। एक प्रदेश बिहार में तो वह ऐसे ज़िद पकड़ गये कि चुनाव निष्पक्ष करा कर ही दम लें गे। कई बार उसे स्थगित कर दिया। परिणाम यह हुआ कि जिन को वह सबक सिखाना चाहते थे उन के विरोधियों के पास प्रचार करते करते पैसा समाप्त हो गया और नेता जी आराम से जीत गये। आश्चर्य की बात तो यह है कि उन्हों ने जाते जाते अपने ठेके की ज़िम्मेदारी अपने उत्तराधिकारी जो कि उन के रकीब होते थे को सौंप दी और अब वह उत्तराधिकारी और भी अधिक उत्सुक्ता से उसे पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं ताकि कोई यह न कह सके कि वह अच्छे ठेकेदार नहीं हैं।
अल्पवर्ग को बचाने का ठेका तो ऐसा लगता है सभी ने उठा रखा है। यह बात अभी तक तय नहीं हो पाई कि वह उन्हें किस से बचा रहे हैं। जो उन में समझदार हैं वह कह रहे कि हमें इन ठेकेदारों से बचाईये पर यह हैं कि मानते ही नहीं और उन्हें बचाने पर तुले हुए हैं। मुल्ला लोग अलग उन्हें बचाने में लगे हैं और शिक्षा इत्यादि से दूर रख कर सोचते हैं कि ज़माने की बुरी नज़र से उन्हें बचा लिया। कोई झुग्गी वासियों का मसीहा बन कर बैठा है तो किसी ने किसी को मनुवादियों से बचाने का ठेका ले रखा है। हर कोई किसी न किसी के दर्द से पीड़ित है। वह समझता है कि यदि उसने नहीं बचाया तो कोई और बचा ले गा। अतः तन व मन से (धन तो उसी बीचारे का लगता है) उन्हें बचाने में जुटा है।
उद्योगपतियों और व्यापारियों ने पैसा कमाने का ठेका ले लिया है। इस के लिये उन्हें शुध्द घी में गाय की चरबी मिलानी पड़े या सरसों के तेल में पीला धतूरा। काले धन से काम चलाना पड़े या कर चोरी करना हो। शेयर बाज़ार को संचालित करना पड़े या विरोधी उद्योगपति का अनुज्ञा पत्र रुकवाना पड़े, सभी हथकण्डे उचित हैं ताकि पैसे कमाने का ठेका पूरा किया जा सके।
उन की देखा देखी शिक्षकों ने भी अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने का ठेका ले लिया और शिक्षा को भूल गए। अब छात्र पढ़ना चाहें तो टयूशन रख लें या फिर आरक्षण के लिये सड़को पर उतर आयें उन की बला से।
अधिकारियों ने भी सोचा कि वह पीछे क्यों रहें। उन्हों ने भ्रष्टाचार का ठेका ले लिया। और भ्रष्टाचार करने व करवाने लगे। यद्यपि नेतागण उन्हें इस बारे में कड़ी टक्कर दे रहे हैं पर वह भी हार नहीं मान रहे। संघर्ष गम्भीर है लेकिन दोनों पक्ष ठेका पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं।
इन सब के होते हुए उन की राय में इस में क्या शक है कि यह देश वास्तव मेें ठेकेदारों का देश है। अब उन के इस तर्क का हम क्या उत्तर दें। अच्छा हो गा कि आप ही सोचें और किसी नतीजे पर पहुॅंच सकें तो हमें भी खबर करें क्योकि हम ने भी इस गुत्थी को सुलझाने का ठेका ले रखा है जिसे हर हाल में पूरा करना है।
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