दिलेरी और प्रजातन्त्र
आज के लिपिकों की बैठक का विषय था नया अवर सचिव। पर इतना नया भी नहीं। चार पॉंच माह तो हो चुके थे परन्तु श्री सेमवाल ने इस समय में ही मंत्रालय में उथल पुथल मचा दी थी। लिपिकों के एक शाखा से दूसरी शाखा में तबादला। उस में भी कोई कायदा और सिस्टम नही। और तो और मेजें कैसे लगाई जायें गी, यह भी वह चैक करते थे। फाईलें किस तरह रखी जाये गी, यह भी। वह आई ए एस अधिकारी थे। उन्हें इस पद पर लाया गया था जब कि उन का दो चार साल का सेवा काल था। पता नहीं किस साईत में सरकार ने यह निर्णय लिया कि मसूरी में प्रशिक्षण के पश्चात ज़िले के प्रशिक्षण के दौरान आई ए एस अधिकारी को दो महीने गॉंव में रहना पड़े गा ताकि वह वहॉं की समस्या समझ सके। बड़े बड़े महारथी गॉंव की समस्या को नहीं समझ पाये तो यह नये नये अधिकारी दो महीने में क्या समझ पायें गे। पर चलो सरकार की मंशा है, उन का समय नष्ट करने की तो किसी का क्या जाता है। पर इस के साथ एक और फैसला भी लिया जो आज की बैठक में छाया हुआ मुद्दा था। सरकार ने और भी बुरी साईत में कहा कि गॉंव के अनुभव के बाद उन्हें सचिवालय का भी अनुभव देना चाहिये। यानि कि तवे से गिरे तो चूल्हे में फंसे।
सेमवाल साहब ठहरे नई पौध के जिन में सब्र का पुट नहीं। आते ही उन्हों ने अपना रुतबा झाड़ना शुरू किया। उन्हें सचिव ने प्रशासन कक्ष में लगा दिया कि वहॉं से सभी शाखाओं का काम देख सकते हैं। सीखने में आसानी रहे गी। आखिर यही तो प्रशिक्षण का मतलब है। पर वह सेमवाल को जानते नहीं थे।
सेमवाल को इस बात का भी फख्र था कि वह जिस गॉंव में थे, उस की काया पलट कर दी थी। ऐसा साफ सुथरा कर दिया था कि लन्दन भी शर्मा जाये। यहॉं तक कि लोग उन्हें एन जी ओ साहब कहने लगे थे। अब यह गाली थी या प्रशंसा, यह वह नहीं जान पाये क्योंकि वह वहॉं केवल दो माह ही तो थे। और मंत्रालय का कोई लिपिक कभी उस गॉंव में, बल्कि किसी भी गॉंव में, नहीं गया था जो सही बात जान सकता।
पहले तो उन्हों ने सब सहायकों को बुला कर कहा कि उन का हुकुम अंतिम हैं। उस का पालन किया जाये। एक फाईल पर सहायक ने अवर सचिव/ उप सचिव लिख दिया था। सेमवाल जी नाराज़। यह क्या है। उप सचिव के पास फाईल क्यों जाये। मैं हूॅं न। आई आई टी पास आई ए एस अधिकारी। और यह उप सचिव क्या है अनपढ़। तरक्की पाते पाते यहॉं आ गया पर है तो अनपढ़। सहायक ने कहा कि पढ़ाई के बारे में तो ज्ञान नहीं है पर कायदा कहता है कि यह फाईल उप सचिव को जाना चाहिये। सेमवाल कहने लगे फिर मैरे आई आई टी का स्नातक होने का क्या फायदा। और पता है - आई आठ्र टी के लिये तीन लाख लोग परीक्षा देते हैं। ओर उस के बाद तीन लाख लोग बैठते हैं आई ए एस की परीक्षा में। उन में से कितने आई ए एस में आ पाते हैं। मेरा आदेश अंतिम रहे गा।
आगे बढ़े तो उन्हों ने अपने कमरे में ए सी लगवाने के लिये क्रय के आदेश दे दिये। सहायक ने फिर कहा कि अवर सचिव को ए सी नहीं दिया जाता, कूलर ही रहता है। पर सेमवाल ने वही पुराना राग अलापा। मेरा आदेश अंतिम हैं। फिर चार गोदरेज की कुर्सियॉं भी खरीद लीं और उस में बीस हज़ार खर्च कर दियें। घर के लिये एक बढ़िया सोफा भी खरीद लिया। अनपढ़ उप सचिव ने बुला कर समझाया तो उन्हों ने कहा मैं आई आई अी पास आई ए ण्स अधिकारी हूॅं। लोग मिलने आयें गे तो क्या उन्हें चारपाई पर बिठाऊॅं गा। उप सचिव की बात को अवर सचिव श्री सेमवाल ने अनदेखा कर दिया। उप सचिव ने तब सचिव से बात की और सचिव ने आदेश निकाल दिया कि अवर सचिव के किसी आदेश का पालन न किया जाये जब तक उप सचिव उस पर सहमति न दे। साथ ही सोफा की कीमत वसूल करने के आदेश भी दे दिये।
यहीं से झगड़ा बढ़ा। अवर सचिव में बाकी अवरसचिवों को अपने कमरे में बुलवाया। प्रशासन के प्रभारी थे, इस कारण सभी अवर सचिव आये। सेमवाल साहब का कहना था कि बे सब मिल कर सचिव के आदेश का विरोध करें। आखिर में मंत्रालय में इस तरह की अधोषित आपात स्थिति नहीं चलनी चाहिये। पण्डया अवर सचिव ने विरोध किया। पहले वह ही प्रशासन के चार्ज में थे। उन्हें खटक रहा था कि उन्हें हटा दिया गया। उन्हों ने कहा कि उप सचिव बहुत सुलझे हुये हैं। उन से सही से बात की जाये तो वह किसी अच्छे सुझाव का विरोध नहीं करते। सेमवाल का जवाब था कि हैं तो वह अनपढ़ ही। और फिर मैं आई ए एस हूॅं। यूनियन पब्लिक सर्विस ने उन्हें तीन तीन परीक्षा और साक्षात्कार के बाद चुना हैं। कुछ वर्षों में वह सचिव बनने ही वाले हैं। वह तो यहॉं तक कहे कि खुली बहस करा ली जाये कि वैधानिक स्थिति क्या है। कुछ अवर सचिव तो सचिव से नाराज़ थे क्योंकि वह समय की पाबन्दी और समय पर फाईलों को निपटाने पर ज़ोर देते थे जो पूर्व परम्परा के विरुद्ध था। वह आराम से ग्याहर बजे आते। दो घण्टे चाय पानी में बिताते और फिर ठीक पॉंच बजे घर चल देते। काम थोड़ा लम्बित हो तो उस की चिन्ता क्यों की जाये। सरकार है सरक सरक कर ही चले गी। क्यों अफरातफरी मचाई जाये। पर इस सचिव ने सब कार्यक्रम बिगाड़ दिया। अब कोई अवर सचिव सुरक्षित नहीं। उन्हों ने सेमवाल साहब की हिमायत क्ी।
पर पूरी बात इस पर अटक गई कि बिल्ली के गले में घण्टी कौन बॉंधे। सभी एक दूसरे का मुॅंह देखने लगे। और सेमवाल के साथ जाने को कोई भी राज़ी नहीं हुआ। सेमवाल वैसे तो खूब बिगड़े पर अकेले ही सचिव के यहॉं जायें, इस की हिम्मत नहीं पड़ी।
लिपिकों की बैठक में भी उसी तरह के विरोधी भाव देखे गये। दिलेरी ने कहा कि यह झागड़ा अवर सचिव का निजी है। इस में लिपिकों पर काई फरक नहीं पड़ता। कोउ नृप भये, हमें का हानि वाली मंथरा नीति ही उन्हें ठीक लगी। एक लिपिक ने कहा कि अहमद साहब जो अवर सचिव थे और जिन का दूसरे विभाग में स्थानानतर हो गया था, जहॉं ऊपर की आमदनी कम थी यानि कि कलैण्डर वगैरा मिलने की सम्भावना भी नहीं थी, ने उस मन्त्रालय में भी प्रचार करना आरम्भ कर दिया कि यहॉं के सचिव हमेशा मनमानी करते हैं और इन्हें हटाया जाना चाहिये। कुछ लिपिकों की राय थी कि यह गल्त है। कम से कम अफसरों पर थोड़ा सा कण्ट्रेाल तो लगा है। मन्त्रालय का काम तो कुछ बेहतर ही हुआ है। न भी हुआ हो तो यह मंत्रालय तो हमारा है और हमारा ही रहे गा। सचिव, अवर सचिव तो आते जाते रहें गे।
बैठक में कोई आम राय नहीं बन पाई इस कारण मामला अगली बैठक तक उठा रखा गया।
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