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kewal sethi

दिलेरी और दिनचर्या

दिलेरी और दिनचर्या


दिलेरी बस से उतर कर घर की ओर जाने लगा। एक ई रिक्शा वाला बोला - आईये बाबू जी, घर तक पहुॅंचा दूॅं।

दिलेरी ने सोचा कि दस रुपये लगें गे। इन दस रुपयों में और भी बहुत से काम सिद्ध हो सकते हैं। वह खामोश रहा और चलता रहा।

ई रिक्शा आगे बढ़ गया।

एक व्योवृद्ध व्यक्ति आगे जा रहा था। हो गा कोई सत्तर अस्सी के करीब। ई रिक्शा वाले ने उन से भी कहा - आओ दद्दा, घर छोड़ दूॅं।

दद्दा बोले - क्या यह मेरी उम्र है ई रिक्शा लेने की। किसी टीनएजर से पूछो।

दिलेरी को अजीब लगा यह बात सुन कर। उस ने अपनी चाल थोड़ी तेज़ की और उस बुज़र्ग के बराबर आ गया।

कुछ देर चलने से हम सफर बन जाते है और बात चीत हो सकती है। उस का फायदा उठाते हुये दिलेरी ने कहा - दादा, मैं एक बात पूछ सकता हूॅं।

उस व्यक्ति ने कहा - एक क्यों, दो बात पूछ सकते हो।

- जैसा आप का हुकुम, दो बातें ही पूछना है। एक आप ने यह क्यों कहा कि कोई उम्र है मेरी ई रिक्शा लेने की। दूसरे यह क्यों कहा कि किसी टीन एजर को पकड़ो।

- बेटा, मुझे ऐसा लगता है कि तुम साईकल से दफतर आते जाते हो।

- दादा, आप ने सही कहा। वह तो मेरी साईकल तकलीफ दे रही थी, इस लिये मरम्मत के लिये दी है और बस से आना जाना पड़ रहा है।

- सही है। मैं ने भी साईकल से ही दूर दूर तक सफर किया है। जब स्कूल में था तो पैदल दौड़ लगा कर जाते रहे। फिर साईकल मिली तो उस पर चले। और यह बताओ, तुम सुबह सैर पर जाते हो कि नहीं

- वक्त ही कहॉं मिल पाता है, दादा। दफतर के लिये तैयारी करना होती है। बच्चों को स्कूल छोड़ना होता है।

- पर सैर के लिये कुछ वक्त निकालना चाहिये। सुबह नहीं तो शाम को। अब हम तो शाम को निकल जाते थे। चलते चलते अपने जैसे दोस्त मिल जाते थे। दुनिया का हाल भी मालूम होता था और सैर भी हो जाती थी। उसी का असर है कि अभी भी पैदल चलने में कोई तकलीफ नहीं होती। मेरी उम्र के दस में से नौ को कोई कष्ट नहीं होता हो गा।

- यह बात तो मैं ने मान ली कि जवानी में इतना चले कि चलना फितरत बन गया। पर वे टीनएजर वाली बात?

- वह तो ऐसा है कि अब रहन सहन का तरीका बदल गया है। पर जब मैं टीनएजर कहता हूॅं तो उस का मतलब उन्नीस तक का नहीं है 25, 26 साल के जवान भी उस में आ जाते हैं। इन लोगों पर कभी कभी बहुत रहम आता है। कितनी तनाव भरी ज़िंदगी है उन की। जब देखो, टारगैट और टारगैट डेट। इस वक्त तक यह हो जाना चाहिये, इस दिन तक इतने प्रतिशत सेल बढ़ना चाहिये। टाईम लिमिट, हर बात में। और यह हाल उन का ही नहीं है उन के बास का भी हैं। फिर उस के बास का भी है। सब भाग रहं है। लक्ष्य पूर्ति की ओर। शाम को कब लौटें गे, मालूम नहीं।

तुम्हारे सामने तो ऐसी बात नहीं हे न?

- नहीं, समय सीमा तो नहीं होती पर काम तो निपटाना ही पड़ता है।

- वह तो है पर टैंशन नहीं पालना चाहिये। आज का काम कल पर मत छोड़ो पर कल के काम पर आज मेहनत मत करो। कल आये गा, अपने आप उस का हल भी आये गा।

- पर इस सब का ई रिक्शा लेने से क्या तालुक्क है, वह समझ में नहीं आया।

- वह भी इसी का नतीजा है। इतनी टैंशन के बाद रिलैक्स होना भी तो ज़रूरी है। उन जैसे ही और लोग, एक दूसरे से मिलने के लिये उतावले। आखिर जिंदगी इसी के लिये तो है - मिलना, बात करना। हम सैर में कर लेते थे, वह जिम में करते हैं, या किसी कैफे में, किसी होटल में। सर पर इतना बोझ कि बिना शराब के मुॅंह ही नहीं खुलता। देर होना तो लाज़िमी है।

- और फिर

- अब थक टूट कर आये गे तो ई रिक्शा नहीं लें गे तो क्या करें गे। और फिर सुबह देर से उठना ही पड़ता है। नींद तो पूरी करना ही है। फिर भागम भाग। पैदल मैट्रो स्टेशन तक जाने का टाईम नहीं। ई रिक्शा मिले तो चलें।


दिलेरी बेचारा क्या कहे। माना कि उस के सामने कोई समय सीमा नहीं। पर दूसरी प्रकार की टैंशन तो रहती है। खास कर महीने के चौथे हफते में। जब वह किराने वाली दुकान के सामने से उस हफते गुज़रता है तो ऐसा लगता है कि दुकानदार भी कलैण्डर पर नज़र टिकाये बैठा है। उस की अपनी टैंशन हो गी। वही जानता हो गा।


हर सफर का अन्त होता है। मोड़ आ गया और दिलेरी और दद्दा अपने अपने रास्ते चल दिये। एक सेहत बचाने के लिये, दूसरा पैसा बचाने के लिये।

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