दर्द होशंगाबादी
हम हसरतों के दीप जलाने में रह गये
वह हम को सब्ज़ बाग दिखाने में रह गये
जो चल पड़े वह मंज़िले मकसूद पा गये
हम एक दूसरे को गिराने में ही रह गये
जिन में था अज़्म, छीन कर साकी से पी गये
हम अपने खुश्क होंट दिखाने में ही रह गये
मेरा जनाज़ा उन की गली से गुज़र गया
वो थे कि अपनी ज़ुल्फ़ सजाने में रह गये
सब की दुआयें तेरे ही दर से हुई कबूल
एक हम ही नामुराद ज़माने में रह गये
जिन पत्थरों से दिये थे उन्हों ने हम को ज़ख्म
हम प्यार से वह ही संग उठाने में रह गये
कब का रवाना काफ़िला-ए- दर्द हो चुका
हम दोस्तों से हाथ मिलाने में ही रह गये
होशंगाबाद
1979
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