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तारीक गलियाँ

  • kewal sethi
  • Jul 7, 2020
  • 1 min read

तारीक गलियाँ


ताजिर थे वह मगरिब के

जिन के लिये इनसान सरमाया थे

सियासत दान थे यह मशरिक के

इन्हें बस वोट बैंक नज़र आते थे

न कोई हजूम था सड़कों पर

न जि़ंदाबाद मुर्दाबाद के नारे थे

गलियाँ थी सारी सूनी सूनी

न जाने किस दर्द के यह मारे थे

मायूसी थी चारों इतराफ छाई हुई

इक अजीब सा नज़ारा था

पड़ोसी पड़ोसी से अजनबी था

न जाने किस का क्या इरादा था


उन तारीक रूहों में कब कोई झाँक पाया है

जिन्हों ने तरक्की इंसान के नाम पर सब लुटाया है

कौन किस का हिस्सेदार बन पाया है दुख उठाने के लिये

यहाँ हर एक ने अपना अपना सलीब खुद ही उठाया है

घूम के देख आया मैं उन गलियों में इक सयाह की तरह

कब कौन किस के दुख का भागी दार बन पाया है


(अधूरी कविता

एक साम्प्रदायिक दंगे के बाद)

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