तब और अब
इन दिनों मेरी पुस्तक
मैं अविनीत तो नहीं होना चाहता परन्तु एक महान लेखक के बारे मे में मेरे विचार बदल गय हैं तो उस का कारण बताना अनुचित नहीं हो गा।
पचास की दशक में दिल्ली पब्लिक लाईब्रेरी, जो घर से आठ किलोमीटर पर थी, ओर पैदल ही आना जाना पड़ता था, से किताबें ला कर पढ़ीं। लेखकों में कन्हैया लाल मुंशी पसंदीदा लेखक थे। उन की पुस्तकें भगवान परशुराम, लोपामुद्रा, लोमहर्षिणी, जय सोमनाथ, इत्यादि बहुत बढ़िया लगेीं थीं। कई पात्रों जैसे सुदास, लोपामुद्रा के नाम अभी भी याद हैं।
इस के बाद वहाॅं की उन की पुस्तकों का स्टाक समाप्त हो गया। दूसरे पुस्कालय में वे मिली नहीं।
समय बीत गया।
सत्तर वर्षों के अन्तराल के बाद केन्द्रीय सचिवालय में उन की कुछ पुस्तकें दिखीं। उन में से ‘पाटन का प्रभुत्व’ ले आया। काफ़ी उत्सुकता थी इस के बारे में। काफी चाव से पढ़ना आरम्भ किया।
उपन्यास को कल समाप्त कर लिया। अंतिम चार अध्यायों में तो केवल पृष्ठ बदलने का ही काम किया। तब तक रुचि समाप्त हो गई थी। उपन्यास में चरित्र वर्णन अजीब सा। महा वीर एक पल में रोने लगें। तीर तथा तलवार के घाव लगे व्यक्ति का इलाज चल रहा हो और वे इस प्रकार उठ बैठें कि जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो। पल में तौला, पल में माशा। दृढ़ प्रतिज्ञा लेना बल्कि अपनी प्रेमिका को भी दिलवाना, स्वयं ही उसे छोड़ना। सामान्य तौर पर उपन्यास का महत्व इस में है कि किसी पात्र से सहानुभूति हो जाये। पर ऐसा कुछ नहीं है।
कई बातें तो समझ के बाहर थी, पति की मृत्यु के बाद सूतक में ही रानी मीनल देवी पाटन छोड़ गई। क्यों? चन्द्रावती से सैना लेने के लिये ताकि पाटन जिस में वह रानी थी, को सम्भवित शत्रु से बचाया जा सके। संदेश भिजवा देती, काफी था। चन्द्रावती उन का अपना था। नायक देव प्रसाद पत्नि के वियोग में 15 वर्ष रहे। कोई बात नहीं। पर जब वह मिली तो अपनी पूरी शूरवीरता भूल गये। अपना इरादा भूल गये अपना वचन भूल गये। वैसे उसे बड़ा जवानमर्द दिखाया गया है?
एक व्यक्ति यति आया और उन के महल को आग लगा गया। उस के सैनिक सब कहाॅं गये। न आग बुझाने वाला कोई, न उन को बचाने वाला कोई। छत से नदी में कूद गये। पर वह यति वहाॅं भी था। और किसी ने ध्यान नहंीं दिया। किसी को नहीं दिखा। यति ने नदी में ही पीछा किया। नायक ने उसें पकड़ लिया और साथ ले कर डुबकी लगा दी। पर यति साॅंस रोके रहा और न केवल बच गया बल्कि किनारे के पास भी आ गया और नायक को भी ले आया, जहाॅं यति के साथी तीर चलाने लगे। नायक के सिपाहियों का अता पता नहीं। वह बाद में वहाॅं आये जब नायक मर गया। यति पकड़ा गया, उस के साथी मार दिये गये पर यति का बाल बांका नहीं किया। कुछ समय बाद यति छूट गया और जिन सिपाहियों ने पकड़ा था, वह उस के साथी हो गये। पता नहीं उन के नेता का क्या हुआ।
दोपहर में पाटन के द्वार बन्द कर दिये जायें गे, यह घोषणा हो गई। नायक महोदय अपने बेटे को दरवाज़े के पास खड़ा कर के बोले कि मैं अभी गया और अभी आया। उसे दरवाज़े के दूसरी तरफ खड़ा कर जाते पर नहीं, इस ओर खड़ा किया। और वह बेटा भी जड़ बन कर खड़ा रहा। दरवाज़ा बन्द हो रहा है पर वह नहीं हिला। आज्ञा नहीं थी। बाप आया, दूर से बन्द दरवाज़ा देखा। पास ही एक पहाड़ी थी, उस से घोड़ा कुदा कर बाहर। बेटे का ख्याल नहीं आया। बेटा बन्दी हो गया।
इसी प्रकार की और कई घटनाएं हैं, जो की समझ में नहीं आती। मीनल।देवी का चरित्र बदल जाता है। मुंजाल का चरित्र बदल जाता है। सभी विश्वसनीय सा प्रतीत होता है।
समझ में नहीं आता कि क्या उस समय - पचास के दशक में - ऐसे ही उपन्यास थे। हम उस समय जान नहीं पाये या अब हमारा टेस्ट बदल गया है? या कोई और बात है जिस में लोपामुद्रा, सुदास इत्यादि के बारे में पढ़ना सही लगता था क्योंकि वह इतिहास के पूर्व का वर्णन है और पाटन की कथा मध्यकालीन युग की है।
जो हो, किसी तरीके से उपन्यास समाप्त कर लिया। इतना ही काफी है। और लाने का विचार नहीं है।
इन दिनों मेरी पुस्तक
पचास की दशक में दिल्ली पब्लिक लाईब्रेरीए जो घर से आठ किलोमीटर पर थीए से बहुत सी किताबें ला कर पढ़ीं। लेखकों में कन्हैया लाल मुंशी पसंदीदा लेखक थे। उन की पुस्तकें जय सोमनाथए भगवान परशुराम इत्यादि बहुत बढ़िया लगे थे। कई पात्रों जैसे सुदासए लोपामुद्रा के नाम अभी भी याद हैं।
इस के बाद वहाॅं की उन की पुस्तकों का स्टाक समाप्त हो गया। दूसरे पुस्कालय में वे मिली नहीं।
समय बीत गया।
सत्तर वर्षों के बाद केन्द्रीय सचिवालय में उन की कुछ पुस्तकें दिखीं। उन में से ष्पाटन का प्रभुत्वष् ले आया। काफ़ी उत्सुकता थी इस के बारे में। काफी चाव से पढ़ना आरम्भ किया।
उपन्यास को कल समाप्त कर लिया। अंतिम चार अध्यायों में तो केवल पृष्ठ बदलने का ही काम किया। तब तक रुचि समाप्त हो गई थी। उपन्यास में चरित्र वर्णन अजीब सा था। महावीर एक पल में रोने लगें। तीर तथा तलवार के घाव लगे व्यक्ति का इलाज चल रहा हो और वे इस प्रकार उठ बैठें कि जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो। पल में तौलाए पल में माशा। दृढ़ प्रतिज्ञा लेना बल्कि अपनी प्रेमिका को भी दिलवानाए स्वयं ही उसे छोड़ना। सामान्य तौर पर उपन्यास का महत्व इस में है कि किसी पात्र से सहानुभूति हो जाये। पर ऐसा कुछ नहीं है।
कई बातें तो समझ के बाहर थीए पति की मृत्यु के बाद सूतक में ही रानी मीनल देवी पाटन छोड़ गई। क्योंघ् चन्द्रावती से सैना लेने के लिये ताकि पाटनए जिस में वह रानी थीए को सम्भावित शत्रु से बचाया जा सके। संदेश भिजवा देतीए काफी था। चन्द्रावती उन का अपना था। नायक देव प्रसाद पत्नि के वियोग में 15 वर्ष रहे। कोई बात नहीं। पर जब वह मिली तो अपनी पूरी शूरवीरता भूल गये। अपना इरादा भूल गये अपना वचन भूल गये। वैसे उसे बड़ा जवानमर्द दिखाया गया हैघ्
एक व्यक्ति यति आया और उन के महल को आग लगा गया। उस के सैनिक सब कहाॅं गये। न आग बुझाने वाला कोईए न उन को बचाने वाला कोई। छत से नदी में कूद गये। पर वह व्यक्ति वहाॅं भी था। किसी को नहीं दिखा। उस ने नदी में ही पीछा किया। नायक ने उसें पकड़ लिया और साथ ले कर डुबकी लगा दी। पर वह सांस रोके रहा और न केवल बच गया बल्कि किनारे के पास भी आ गया और नायक को भी ले आयाए जहाॅं उस के साथी तीर चलाने लगे। नायक के सिपाहियों का अता पता नहीं। वह बाद में वहाॅं आये यति पकड़ा गयाए उस के साथी मार दिये गये पर यति का बाल बांका नहीं किया।
दोपहर में पाटन के द्वार बन्द कर दिये जायें गेए यह घोषणा हो गई। नायक महोदय अपने बेटे को दरवाज़े के पास खड़ा कर के बोले कि मैं अभी गया और अभी आया। उसे दरवाज़े के दूसरी तरफ खड़ा कर जाते पर नहींए इस ओर खड़ा किया। और वह बेटा भी जड़ बन कर खड़ा रहा। दरवाज़ा बन्द हो रहा है पर वह नहीं हिला। आज्ञा नहीं थी। बाप आयाए दूर से बन्द दरवाज़ा देखा। पास ही एक पहाड़ी थीए उस से घोड़ा कुदा कर बाहर। बेटे का ख्याल नहीं आया। बेटा बन्दी हो गया।
इसी प्रकार की और कई घटनाएं हैंए जो कि समझ में नहीं आती। मीनल।देवी का चरित्र बदल जाता है। मुंजाल का चरित्र बदल जाता है। सभी अविश्वसनीय सा प्रतीत होता है।
समझ में नहीं आता कि क्या उस समय . पचास के दशक में . ऐसे ही उपन्यास थे। हम जान नहीं पाये या हमारा टेस्ट बदल गया हैघ् या कोई और बात है जिस में लोपामुद्राए सुदास इत्यादि के बारे में पढ़ना सही लगता था क्योंकि वह इतिहास के पूर्व का वर्णन है और पाटन की कथा मध्यकालीन युग की है।
जो होए किसी तरीके से उपन्यास समाप्त कर लिया। इतना ही काफी है। और लाने का विचार नहीं है।
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