- kewal sethi
जुलियस न्येरेरे
जुलियस न्येरेरे
केवल कृष्ण सेठी
मेरा दृढ़ विश्वास है कि विधाता हर देश में तथा हर काल में एक ऐसा महापुरुष भेजता है जो उस देश के लिये तथा उस काल के लिये उपयुक्त होता है। मैं अवतार की बात नहीं कर रहा जिस के लिये भगवान कृष्ण ने कहा था ‘‘सम्भवामि युगे युगे’’। मैं सामान्य मनुष्य की बात कर रहा हूँ। भारत में महात्मा गाँधी हुए तो इण्डोनेशिया में स्वीकारनों। वियतनाम में हो ची मिन्ह हुए तो क्यूबा में कास्ट्रो। इस लेख में हम तंगान्यीका की बात करें। जो अंग्रेज़ों की दासता में था। उस में जो महापुरुष हुये, उन का नाम था जुलियस न्येरेरे। उन्हों ने स्वतन्त्रता संग्राम में अग्रणी भाग लिया और अपने दल के एक छत्र नेता रहे। स्वतन्त्रता के बाद कुछ समय तक प्रधान मन्त्री तथा बीस वर्ष (1965 से 1985) तक राष्ट्रपति रहें। 1985 में पद छोड़ने के बाद भी वह चौदह वर्ष जीवित रहे।
यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हो ने देश को आर्थिक तथा औद्योगिक ऊँचाईयों तक पहुँचाया पर उन का अपना एक दर्शन था। इसी दर्शन का प्रतिपादन करने के लिये यह लेख लिखा जा रहा है। इस का कितना भाग भारत के लिये उपयुक्त है अथवा स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद कार्रवाई के लिये उपयुक्त था, इस पर विचार किया जा सकता है।
जुलियस उन का मूल नाम नहीं था पर वे इसी नाम से जाने जाते हैं। उन का मूल नाम था कमबरागे जो एक वर्षा देवता का नाम है क्योंकि उन के जन्म के समय तेज़ वर्षा हो रही थी। उन का जन्म ज़नाकी कबीले में एक ग्राम मुखिया के यहाँ ग्राम बुटियामा में हुआ था। न्येरेरे एक भुंगे का नाम है जिस ने उन के पिता के जन्म वर्ष 1860 में उन के ग्राम में संक्रामक आक्रमण किया था, तथा यह नाम उन के परिवार से जुड़ गया। वह अपने पिता की पाँचवीं बीवी के तीसरे बेटे थे। उन की माता की जब शादी हुई तो वह 15 वर्ष की थी और उस के पिता 61 वर्ष के। उस ज़माने में व्यक्ति जीवन में कुछ बन पाने के पश्चात ही विवाह करते थे। मुखिया बनने के बाद उन का वैवाहिक जीवन आरम्भ हुआ और जब वह 80 वर्ष होने के बाद मुत्यु को प्राप्त हुए तो उस समय उन की 22 बीवियाँ तथा 26 जीवित बच्चे थे।
न्येरेरे की माता के प्रति उन के पिता को विशेष लगाव था क्योंकिे उन की बीवियों में वही एक थी जो बाओ नाम का खेल कुछ विशेषज्ञता से खेल सकती थी। उन के पिता की मुखिया के रूप में नियुक्ति जर्मन शासकों द्वारा की गई थी। उन का काम शासन द्वारा लगाये गये करों को वसूल करना तथा शासन के पास जमा कराना था। परन्तु इस के अतिरिक्त वह अपना कार्य करने में स्वायतता प्राप्त थे। आदिवासी परम्परा के अनुसार सभी निर्णय बुजर्गो की एक सभा द्वारा लिये जाते थे।
बचपन वैसे ही बीता जैसे आदिवासी कबीले में बीतता है। बकरियाँ और मुर्गियाँ पालना, मक्का तथा अन्य मोटे अनाज की खेती करना इत्यादि। जीवन शैली पूरी तरह भूमि से जुड़ी हुई थी तथा यह बात सदैव उन के साथ रही। कबीले की प्रजातान्त्रिक परम्परा तथा अध्यात्मिकता उन की विरासत थी। धर्म की परिभाषा ऐसे कबीले में करना कठिन है पर वह प्रकृति से जुड़ी हुई थी। भूमि, वन, नदियाँ, झील, पहाड़, सूर्य, चन्द्रमा सभी उस धर्म के भाग थे। यद्यपि बाद में जुलियस ने ईसाई धर्म अपना लिया परन्तु यह भावनायें उन के साथ जुड़ी रहीं।
यह बताना उचित हो गा कि प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात तंगान्ययिका को संयुक्त राष्ट्र के आधीन एक न्यास के रूप में इंगलैण्ड को सौंपा गया था।
जो बात उन्हें दूसरे बच्चों से अलग करती थी, वह उन की शिक्षा के प्रति रुचि थी। उन के बड़े भाई एडवर्ड ने उन का दाखिला ग्राम से बाहर एक शाला में करा दिया। होनहार छात्र होने के कारण उस के बाद एक और बड़ेी शाला में गये। पिता की मृत्यु के पश्चात वह अपने गाँव में लौटे तथा इतिहास एवे जीव विज्ञान के अध्यापक बने। 1949 में उन्हें ब्रिटिश विश्वविद्यालय में छात्रवृति मिली और वह एडिनबर्रा में पढ़ाई के लिये गये। जुलियस की रुचि आरम्भ से ही सार्वजनिक क्षेत्र में थी तथा वह अपनी शाला में संगोष्ठियों में भाग लेते रहे थे। इस कारण जब छात्रवृति मिली तो उन्हों ने विज्ञान के स्थान पर मानविकी विषय चुना तथा उस में भी हानर्स के स्थान पर साधारण उपाधि को चुना। उन का विचार था कि इस से उन्हें विशेषेज्ञता के स्थान पर एक बहृत क्षेत्र की जानकारी मिल सके गी। महाविद्यालय के दिनों में ही उन्हों ने एक निबन्ध लिखा जिस का मूल विचार था कि ‘‘हम अपने ध्येय तक बनावटी विचारों अथवा केवल अभिलाषी सोच से नहीं पहुँच सकते वरन् ईमानदारी से सोच कर, ईमानदारी से अपने विचार व्यक्त कर, और ईमानदारी से अपनी जीवन व्यतीत कर के ही ध्येय को पा सकते हैं। युरोपीय अधिकारी अपना कार्य केवल दोमुखी व्यवहार से चलाते हैं तथा भारतीय व्यापारी केवल कपट का ही सहारा लेते हैं। अफ्रीका वासी दिखावटी तौर पर तो युरोपीय लोगों से प्रेम करते हैं किन्तु वास्तव में वह ईष्या एवं द्वेष से भरे हुए हैं’’। उन की राजनैतिक सोच थी कि आपसी प्रजाति चेतना की तभी सभी समाप्ति हो सकती है जब सभी प्रजातियाँ सामाजिक, आर्थिक तथा उस से अधिक राजनैतिक समानता को अपनायें।
देश से अनुपस्थिति के दौरान युरोपीय लोगों ने भूमि को अपने नाम करने का प्रयास किया। इस का अर्थ वहाँ रहने वाली अफ्रीकी लोगों को भूमि से बेदखल करना था। इस के विरुद्ध एक संगठन तन्गानयिका अफ्रीकन एसासिऐशन - टी ए ए - का गठन किया गया। इस संगठन ने संयुक्त राष्ट्र में विरोध प्रकट किया गया यद्यपि कोई संकल्प पारित नहीं हो सका। परन्तु इस का परिणाम यह हुआ कि अफ्रीकी लोगों को एक जुट होने का अवसर मिला तथा एक सहकारी संगठन बनाया गया। इस का मूल उद्देश्य कपास के व्यापार पर नियन्त्रण प्राप्त करना था। जब न्येरेरे स्वदेश लौटे तो उन्हों ने इस संगठन में सदस्यता ली। 1953 में वह इस के अध्यक्ष चुने गये। परन्तु वह इसे राजनीतिक दल के रूप में देखना चाहते थे अतः 1954 में राजनैतिक दल तानू का गठन किया। (तानू मतलब तंगान्ययिका अफ्रीकन नेशनल यूनियन)। इस का लक्ष्य देश को स्वशासन तथा स्वतन्त्रता की ओर ले जाना था जिस में प्रजाति अलगाव की कोई उपस्थिति न रहे। यद्यपि इस दल की सदस्याता केवल अफ्रीकी लोगों के लिये ही थी किन्तु दूसरी प्रजातियों से सहयोग नीति का भाग था।
ब्रिटिश शासकों ने प्रतिनिधित्व देने के नाम पर एक बहुजातीय सदन की घोषणा की। इस में सभी जातियों (युरोपीय, एशियन, अफ्रीकी) को समान प्रतिनिधत्व दिया जाना था यद्यपि अफ्रीकी कुल जनसंख्या के 98 प्रतिशत थे। शिक्षा के प्रति शासन का रवैया केवल गिने चुने लोगों को ही शिक्षित करने का था। तानू की माँग थी कि वेतन वृद्धि पर बंदिश लगा कर अधिक राशि शिक्षा के लिये प्रदान की जाये तथा इस का उपयोग जनता का जीवन स्तर सुधारने के लिये किया जाये। राजनैतिक गतिविधियों को कमज़ोर करने के लिये शिक्षित लोगों को बेहतर नौकरियों का लालच दिया गया किन्तु न्येरेरे तथा अन्य ने इस प्रलोभन को स्वीकार नहीं किया। धीरे धीरे तानू की सदस्य संख्या में वृद्धि होती गई। न्येरेरे ने अन्य प्रजातियों के साथ मधुर सम्बन्ध बनाये रखा तथा इस से उन्हें उन के विरोध का अधिक सामना नहीं करना पड़ा।
न्येरेरे ने पूरे देश का दौरा करना आरम्भ किया तथा सदस्यता अभियान चलाया। इसी समय एक महिला बीबी तीती सदस्य बनी जो बहुत ओजस्वी तथा उद्यमी थीं। उन्हों ने महिला सदस्यों के लिये अभियान आरम्भ किया जो कि अफ्रीका के लिये नई बात थी। कुछ समय में ही महिला सदस्यों की संख्या पुरुषों की संख्या से अधिक हो गई। एक और विशेषता न्येरेरे में यह थी कि वह स्थापित कानून का पूर्ण रूप से पालन करने पर ज़ोर देते थे यद्यपि कई सदस्य अधिक उग्र कार्रवाई चाहते थे।
शासन द्वारा इस बढ़ती हुई लोकप्रियता के कारण एक अन्य प्रतिद्वन्द्वी दल को आरम्भ करना चाहा परन्तु उन का प्रयास सफल नहीं हो पाया। शासन ने तानू की बैठकों पर रोक लगाने के आदेश दिये किन्तु न्येरेर ने इस का उत्तर लोगों के घरों में जा कर सीमित संख्या में लोगों से बैठक कर के निकाला। शासन ने यह भी प्रयास किया कि अफ्रीका के लिये एक संघ बनाया जाये जिस से अलग अलग देश में गतिविधि सीमित हो सके तथा गोरे लोगों का वर्चस्व बना रह सके। परन्तु यह योजना भी सफलीभूत नहीं हो सकी।
1958 में शासन द्वारा राष्ट्रीय एसैम्बली के चुनाव कराये गये जो सीमित मतदाताओं के आधार पर तथा तीनों प्रजातियों के लिये पंद्रह पंद्रह स्थानों के लिये था। तानू के कई नेता इस का बहिष्कार करने के पक्ष में थे किन्तु न्येरेरे उन्हें इस में भाग लेने के लिये राज़ी कर सके। चुनाव में तानू ने 15 के 15 स्थान प्राप्त कर लिये तथा शासन पोषित दल को एक भी स्थान नहीं मिला। यहाँ यह बताना भी उचित हो गा कि शासन द्वारा सदस्यों को नामित करने की शक्ति थी जिन की संख्या चुने गये सदस्यों से अधिक थे। काफी समय तक न्येरेरे तथा गर्वनर जनरल टवाईनिंग तक संघर्ष रहा। टवाईनिंग पुरानी विचारधारा के थे तथा स्वतन्त्रता के विरोधी। परन्तु जब गर्वनर जनरल बदल गये तथा उदारवादी टर्नबुल ने पद ग्रहण किया तो न्येरेरे का मार्ग सरल हेा गया। न्येरेरे ने अब उहुरू ना काज़ी (स्वतन्त्रता तथा रोज़गार) का नारा दिया। 1959 में जो मन्त्री मण्डल बना, उस में तीन अफ्रीकन, एक युरोपीय तथा एक एशियन था। न्येरेरे स्वयं बाहर रहे। यह उल्लेखनीय है कि न्येरेर विरोध की नहीं वरन् सहयोग की बात करते रहे। उन्हों ने उपनिवेशवाद की भी बुराई करने से अपने को दूर रखा।
अगले चुनाव 1962 में होना थे किन्तु उन्हें दो वर्ष पूर्व ही कराया गया। इस में समान संख्या में तीनों प्रजातियों के स्थान की प्रथा भी समाप्त कर दी गई। चुनाव में 52 अफ्रीकन, 16 यूरोपीय तथा 11 एशियन चुने गये। एक गोवा वासी तथा एक अरब भी चुने गये। तानू ने एक छोड़ कर शेष सभी अफ्रीकन स्थान प्राप्त किये। मन्त्री मण्डल में तीन अफ्रीकन, एक युरोपीय तथा एक एशियन को रखा गया।
1963 में तंगानयिका को स्वायतता प्राप्त हुई। इस में न्येरेर को प्रधान मन्त्री बनाया गया। इस के साथ ही नया दौर आरम्भ हुआ। सब को समानता का दर्जा दिया गया। कानून व्यवस्था को बनाये रखने का वचन दिया गया। नागरिकता के लिये गैर अफ्रीकन को निर्णय लेने के लिये दो वर्ष का समय दिया गया। हर व्यक्ति जो पाँच वर्ष से तंगानयिका में था, नागरिक बन सकता था। तानू की सदस्यता गैर अफ्रीकन के लिये भी खोल दी गई। यह भी निर्णय लिया गया कि श्रम का स्थानीयकरण किया जाये गा न कि अफ्रीकीकरण। वेतन वृद्धि पर रोक लगा दी गई।
न्येरेरे ने छह सप्ताह के मश्चात प्रधान मन्त्री पद छोड़ दिया क्योंकि वह दल को नई दिशा देने के बारे में सोच रहे थे। उन के त्यागपत्र के पश्चात श्रमिक संगठनों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। अफ्रीकीकरण को प्रोत्साहित किया गया। निवारक निरोध कानून भी लागू किया गया। सब से अधिक महत्वपूर्ण था कि आदिवासी कबीलों के मुखिया को राजनीति से अलग करने का निर्णय लिया गया यद्यपि वह अपने कबीले में आन्तरिक व्यवस्था पूर्ववत कर सकते थे।
क्या कारण था न्येरेरे के प्रधान मन्त्री पद से हटने का। उस का कथन था कि वह लोगों से सम्पर्क स्थापित करना चाहता है। उन के आवश्यकताओं, उन की आशाओं, उन की अपेक्षाओं से अवगत होना चाहता है। नौ महीने वह सत्ता से बाहर रहा, इस अवधि में उस ने देश का सघन दौरा किया। इसी बीच उस ने राजनीति पर अपने विचार ‘उहुरू ना उज्जामा’ (स्वतन्त्रता तथा परिवारवाद) लेख में व्यक्त किये। उस का तर्क है कि समाजवाद वास्तव में आपस में मिल बाँट कर व्यवस्था करने का नाम है। समाज को इस प्रकार का होना चाहिये कि हर एक व्यक्ति जो काम करने का इच्छुक है, उसे चिन्ता करने की आवश्यकता न हो कि उस के सेवानिवृति के पश्चात अथवा उस के पश्चात उस के बीवी बच्चों का क्या हो गा। वह आश्वस्त होना चाहिये कि समाज उन का ध्यान रखे गा। समाजवाद वास्तव में परिवार का ही विस्तृत रूप है। इस में पूरा देश बल्कि पूरा विश्व आ सकता है। उस की मानता थी कि एक सीमित औद्योगिक वातावरण में श्रमिक संगठनों का कोई स्थान नहीं है। उस का यह भी विचार था कि अफ्रीका की परम्पारिक संस्कृति उस से कहीं बेहतर है जो गोरे लोग सिखाना या लाना चाहते हैं। यद्यपि इन आदर्शों को पूरी तरह लागू नहीं किया गया है किन्तु वह प्रयास करने योग्य आदर्श हैं।
स्वायतता के एक वर्ष पूरा होने के पश्चात तंगानयिका को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हो गई तथा उस में राष्ट्रपति प्रणाली अपनाई गई। न्येरेरे प्रथम राष्ट्रपति चुने गये। उन्हें 11,27,978 मत मिले जबकि उन के विरोधी को 21,276। परन्तु जुलियस न्येरेर इस से प्रसन्न नहीं थे। कुल मतदाता के केवल 25 प्रतिशत ने ही मतदान में भाग लिया था। उन का कहना था कि ऐसा प्रतीत होता है कि परिणाम के बारे में आश्वस्त होने के कारण मतदाता मतदान के लिये नहीं आते। यह प्रजातन्त्र के लिये उपयुक्त नहीं है। प्रजातन्त्र में प्रजा की पूरी तरह भागीदारी होना चाहिये। उन का विचार था कि इस के दल को आधार तल तक जाना हो गा।
तानू ही एक मात्र दल था जिस ने स्वतन्त्रता के लिये संघर्ष किया और उस का देश में पूर्ण वर्चस्व था। देश में एक दलीय पद्धति लागू की गई परन्तु इस के लिये पाश्चात्य रंग में रंगे सदस्यों को समझाने में 18 महीने लगे। देश में एक दलीय प्रणाली लागू तो की गई, परन्तु इस में दल के सदस्यों द्वारा प्रत्याशी चुनने पर ज़ोर दिया गया। दल द्वारा प्राथमिक चयन के पश्चात प्रत्येक क्षेत्र के लिये दो प्रत्याशी नामित किये गये। मतदाताओं को उन में किसी एक को उस की सेवा, उस के चरित्र, उस की पात्रता पर से चुनना था। दोनों प्रत्याशी अपनी सेवा तथा अपने विचार प्रकट कर सकते थे। परिणाम यह हुआ कि मतदान की प्रतिशतता बढ़ कर 76.1 प्रतिशत हो गई। यह भी उल्लेखनीय है कि चुने गये 107 प्रत्याशियों में से 86 प्रथम बार चुने गये थे।
न्येरेरे ने अपने विचार समाज के बारे में भी व्यक्त किये हैं। उन का कहना था कि जब समाज का गठन इस प्रकार होता है कि वह हर एक व्यक्ति का ध्यान रखती है, वही आदर्श समाज है और अफ्रीकन समाज ऐसा करने में सफल रहा है। इस में अमीर तथा गरीब सभी को पूर्ण सुरक्षा उपलब्ध रहती है। जब कभी किसी प्राकृतिक आपदा से दुर्भिक्ष आया तो वह अमीर, गरीब दोनों के लिये आया। कोई व्यक्ति भूख से नहीं मरा न ही उस के आत्म सम्मान में कोई कमी आने दी गई। वह समाज की सम्पत्ति पर निर्भर रह सका। यही समाजवाद था। यही समाजवाद है। व्यक्तिगत सम्पत्ति एकत्र करने वाला समाजवाद समाजवाद नहीं है, वह तो विरोधाभासी हो जाये गा। समाजवाद में यह देखना आवश्यक है कि व्यक्ति को उस के परिश्रम की उचित प्रतिपूर्ति हो।
उन का दृढ़ विश्वास था कि न तो अफ्रीका वासियों को समाजवाद सिखाने की आवश्यकता है, न हीं प्रजातन्त्र। दोनों उस की पूर्व परम्परा एवं संस्कृति के स्तम्भ हैं। हम उन्हीं से अपने विचार प्राप्त कर सकते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि परिवार की परिभाषा का विस्तार किया जाये। उस में पूरा कबीला, पूरा देश बल्कि पूरे विश्व को समोह लिया जाना चाहिये। उज्जामा - परिवार वाद - में ही समाजवाद है। यह पूँजीवाद के विरुद्ध है जिस में मनुष्य मनुष्य का शोषण करता है। यह समाजवाद के विरुद्ध है जिस में सदैव वर्ग संघर्ष की बात की जाती है।
स्वतन्त्रता के एक वर्ष पूर्व विश्व बैंक ने एक तीन वर्षीय विकास कार्यक्रम आरम्भ किया था। इस में उद्योग के विकास पर ज़ोर दिया गया था और अपेक्षा थी कि समय पा कर छोटे उद्योग भी आयें गे और जीवन स्तर सुधरे गा। 1965 तक यह स्पष्ट था कि यह योजना अपने लक्ष्य पाने में असमर्थ रही है। एक नई व्यवस्था चाहिये थी। अर्थव्यवस्था के बारे में उन का विचार था कि विकासशील देशों ने उद्योग के लिये, सिंचाई के लिये, आधारभूत संरचना बनाने पर ज़ोर दिया है। परन्तु उन्हें संदेह था कि क्या यह तंगानयिका के लिये भी उपयुक्त हो गा। इन का विचार था कि नहीं, क्योंकि उद्योग पूरी तरह विदेशियों के हाथ में था। उन के लिये प्रचुर मात्रा में पूूंजी चाहिये हो गी। नियन्त्रण भी उन्हीं का रहे गा। उन का अनुभव था कि लम्बी अवधि तक किसानों को व्यवसायिक फसलें जैसे काफी, कपास तथा सीसल उगाने के लिये कहा जाता रहा। इन का उपयोग केवल निर्यात के लिये किया गया तथा यह पूरी तरह विश्व बाज़ार पर निर्भर था कि क्या दरें मिलें गी। इस से सदैव अनिश्चतता की स्थिति बनी रहती थी। खाद्यान्न का आयात भी करना पड़ता था। उन का ग्रामीण क्षेत्र का अध्ययन उन्हें बताता था कि किसान की माँग अधिक सुनिश्चित जीवन शैली की थी।
परन्तु इस सब के बीच उन की निरन्तर चिन्ता बनी रही कि देश में समानता तथा नेताओं में जन सम्पर्क बना रहे। बहुत सेाच विचार के बाद 1967 में अरुषा घोषणा आई। इस में उन्हों ने अपने विचार खुल कर व्यक्त किये तथा इन्हें दल द्वारा भी अपनाया गया। उन का दर्शन था कि देश तथा देश के शासकों के लिये एक समान आदर्श होना चाहिये। यदि जनता से किफायत की अपेक्षा करना है तो प्रतिनिधिगण को भी मितव्ययता का पालन करना चाहिये। यह स्पष्ट घोषणा की गई कि देश के प्राकृतिक स्रोतों पर समाज का अधिकार है। मुख्य बात गरीबी तथा अन्याय को हटाना था। इस में धन एकत्रिकरण मुख्य बाधा के रूप में देखा गया। खाद्यान्न, स्वास्थ्य तथा शिक्षा मुख्य लक्ष्य होना चाहिये। किसानों की भूमिका को प्रथम स्थान पर माना गया।
अरुषा घोषणा का दूसरा पहलू यह था कि तानू दल के सभी सदस्यों को दल की नीतियों तथा आदर्श का पालन करना हो गा। वह किसी कम्पनी के भागीदार अथवा निदेशक नहीं हो सकते। उन की एक से अधिक आय का स्रोत नहीं हो गा। किराये पर देने के लिये मकान भी नहीं हो गा। स्वयं न्येरेरे ने अपना मकान बेच दिया। उस की पत्नि एक कुक्कट पालन केन्द्र चलाती थीं, उसे भी उस ने एक सहकारी समिति को सौंप दिया। अन्य नेताओं तथा सदस्यों को भी ऐसा करने को कहा गया। इस से कई सदस्यों की असहमति थी परन्तु उन्हें दल की सदस्यता छोड़नी पड़ी। मुख्य महिला नेता बीबी तीती ने भी दल से त्यागपत्र दे दिया।
दूसरी ओर समाजवाद लाने के लिये कई महत्वपूर्ण निर्णय लिये गये। अरुषा घोषणा अपनाने के एक सप्ताह के भीतर ही बैंक, बीमा कम्पनियों, सीसल मिलों तथा बहृत व्यापार संगठनों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। बाद में इस का विस्तार तेल कम्पनियों, थोक व्यापार, किराये पर उठाई गई सम्पत्ति तथा व्यवसायिक भवनों तक किया गया।
अरुषा घोषणा का एक और पहलू शिक्षा के सुधार का था। शाला फार्म, कृषि सम्बन्धी विषयों का पाठन तथा कार्यशाला तथा अधिक तकनीकी प्रशिक्षण का आरम्भ किया गया। उन्हों ने छात्रों के लिये दो वर्ष की राष्ट्रीय सेवा का कार्यक्रम आरम्भ किया। जब छात्रों ने इस का विरोध किया तो उन्हों ने सभी छात्रों को ग्रामों में वापस भेज दिया, यह कहते हुए कि राष्ट्र उन पर व्यय कर रहा है तथा उन्हें राष्ट्र की सेवा करना चाहिये। उन्हें तब तक वापस नहीं आने दिया गया जब तक उन्हों ने वाँछित सेवा काल पूरा नहीं कर लिया।
कृषि के लिये उन का प्रथम प्रयोग ग्राम विकास समितियाँ बनाने का था। इन्हें ग्राम स्थापन अभिकरण भी कहा गया। इन के लिये प्रचुर धनराशि भी उपलब्ध कराई गई। परन्तु यह प्रयोग सफल नहीं हुआ क्योंकि प्रशिक्षित प्रबंधकों के अभाव में अपेक्षित परिणाम नहीं आ पाये। इस कारण उन्हों ने अपना लक्ष्य परिवर्तित करते हुए ग्रामों में स्वयं सहायता समूह पर केन्द्रित किया। स्वनिर्भर उज्जमा ग्राम बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया गया जिन में वित्तीय पोषण को गौण स्थान था।
दल को और नागरिक उन्मुख बनाने के लिये न्येरेरे द्वारा 1971 में एक और घोषणा मवानगोज़ो जारी की गई। इस में दल के नेताओं के बीच समानता बनाने का आवाहन किया गया। यह भी कहा गया कि दल के नेता को अभिमानी, अतिव्ययी, तिरस्कारयुक्त अथवा कठोर नहीं होना चाहिये। उन का कर्तव्य है कि दल के कर्ता भी यदि उद्दण्ड हों तो उन पर अंकुश लगाया जाये। दल का कर्तव्य है कि वह तथा विशेषज्ञ उन योजनाओं को कार्यान्वयन करें जो जनता द्वारा सहमति से बनाई गई हैं। जनता को योजना बनाने के लिये आवश्यक जानकारी भी दल द्वारा दी जाना चाहियै।
सारांश में न्येरेरे का पूरा प्रयास जनता के हित में कार्य करने वाले दल तथा जनता के बीच रहने वाले दल की छवि बनाये रखने का था। देश की परम्पराओं को यथावत रखते हुए नागरिकों को प्रगति के पद पर ले जाने का था। यही उन का दर्शन था तथा यही उन का सन्देश। उन की यात्रा उहुरू ना काज़ी (स्वतन्त्रता तथा रोज़गार) से आरम्भ हो कर उहुरू ना उज्जामा (स्वतन्त्रता तथा समाजवाद) हो कर उहुरू ना मयानदेलियो (स्वतन्त्रता तथा विकास) तक चली।
(पुनश्चः - न्येरेरे 1985 तक राष्ट्रपति रहे और फिर त्यागपत्र दे दिया। इस बीच उन को कई बार अपने आदर्शाें के बारे में समझौता करना पड़ा। जब ग्रामों को स्वनिर्भर बनाने के गति धीमी रही तो 1973 में उन्हों ने तीन वर्ष में सभी ग्रामों को उज्जामा ग्राम घोषित करने का आवाहन किया। इस का परिणाम अधिकारियों द्वारा ज़्यादती कर ग्रामीणों से घोषणाये करवाई गई। इस तरह प्रबोधन द्वारा प्रगति का सिद्धाँत का उल्लंघन किया गया।
जब सैना ने ब्रिटिश अधिकारियों को हटाने की माँग की तथा इस हेतु विद्रोह किया तो ब्रिटिश सैना की सहायता से इसे असफल किया गया। इस के पश्चात उन्हों ने पूरी सैना को ही समाप्त कर दिया तथा उस के स्थान पर स्वयंसेवक जत्था तैयार किया गया। जंज़ीबार में जब अरब नियन्त्रित शासन लागू किया गया तो उन्हों ने हस्तक्षेप करते हुए सैना भेजी तथा बहुमत का राज स्थापित करने में सहायता कीं। बाद में जंजीबार को मिला कर तनज़ानिया नाम से नया देश बना। 1979 में तनज़ानिया ने युगण्डा पर आग्रमण किया तथा ईदी अमीन को हटाने में सफलता प्राप्त की।
समाजवाद का पालन करते हुए यद्यपि शिक्षा में काफी प्रगति हुई तथा देश पूरे अफ्रीका में सब से अधिक शिक्षित हो गया किन्तु गरीबी की स्थिति पूर्ववत ही रही। समाजवाद तथा राष्ट्रीयकरण की नीति सफल नहीं रही। विश्व बैंक की सहायता लेना पड़ी तथा समाजवाद का त्याग करना पड़ा। 1992 में बहु दलीय व्यवस्था स्थापित की गई। इस प्रकार यद्यपि न्येरेरे के विचारों का उतना प्रभुत्व नहीं रहा जितनी अपेक्षा थी पर इस लेख का आश्य केवल उन के विचार दिखाने का था विशेषतया परम्परा आधारित व्यवस्था तथा दलीय अनुशासन पर उन के द्वारा दिया गया ज़ोर। काश काँग्रैस ने भी स्वतन्त्रता के पश्चात सादगी के जीवन पर बल दिया होता।)