top of page

जापान आधुनिक राष्ट्र कैसे बना

  • kewal sethi
  • Sep 20, 2020
  • 9 min read

जापान आधुनिक राष्ट्र कैसे बना

केवल कृष्ण सेठी


आज जापान एक स्मृद्ध देश है किन्तु यह हमेशा ऐसा नहीं था। अन्य देशों की तरह इसे भी सामन्तवाद के दौर से गुज़रना पड़ा। इसे भी विदेशी यूरोपीय देशों ने पंगु बनाने का प्रयास किया। किन्तु इस में कुछ ऐसी बात थी जिस के कारण वे सफल नहीं हो पाये। 1905 में रूस जापान युद्ध में विजयी होने से जापान की गणना बड़ी शक्तियों में होने लगी। इस विजय की क्या पृष्ठभूमि थी तथा यह रूपान्तर कैसे हुआ, इस का अध्ययन इस लेख में किया गया है।


जापान के प्रथम सम्राट जिम्मु तेनो थे। उन के काल का पता नहीं है। उस ने सभी कबीलों का अपनी आधीनता स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया। परन्तु वह अपने अपने क्षेत्र में स्थापित रहे। व्यक्ति की योग्यता के अनुरूप सम्राट की शक्ति घटती बढ़ती रहती थी। वर्ष 643 में तैकवा नामक शासन सुधार किये गये। सभी भूमि को राज्य सम्पत्ति घोषित कर दिया गया। शासक वर्ग को वेतन के स्थान पर भूमि दी गई। बाद में राज्य अधिकारियों ने अन्य भूमि को क्रय भी कर लिया। इस प्रकार सामन्ती युग का आरम्भ हुआ। इन राज्य अधिकारियों को दाइम्यो कहा गया। उन्हें अपने क्षेत्र में प्रशासन के लिये अधिकारों का प्रत्यावर्तन किया गया।


इस सुधार के फलस्वरूप दो वर्ग बन गये - शासक तथा शासित। बाद में शासक वर्ग भी दो भागों में विभक्त हो गया - एक नागरिक शासक वर्ग तथा दूसरा सैन्य वर्ग। नागरिक शासकों ने केन्द्रीय पदों पर अधिकार जमा लिया जब कि सैन्य वर्ग प्रांतों में शक्तिशाली रहा। नागरिक वर्ग सैन्य शक्ति किे सहारे के बिना प्रशासन चला नहीं सकता था अत: वास्तव में सैन्य शक्ति ही एक मात्र सत्ता का केन्द्र रही। दाइम्यों की ओर से भूमि का प्रबन्ध करने वाले को कारा तथा लड़ने वाले को समुराई कहा गया। सुमराई वर्ग ने ज्ञानार्जन में भी अगुवाई की। इस प्रकार समुराई वर्ग बौद्धिक वर्ग भी बन गया।


वर्ष 1192 के पश्चात सम्राट दाइम्यों के हाथ की कठपुतली रह गये। सफल दाइम्यों को सम्राट की ओर से शोगुन की उपाधि देने पर बाध्य होना पड़ा। यधपि यह पद सम्राट द्वारा दिया जाता था किन्तु यह न्यूनाधिक वंशानुगत हो गया। पहला शोगुन यारीतोमों था। यह उपाधि एक कुल से दूसरे कुल में अन्तरित होती रही। इस के लिये दाइम्यों आपस में लड़ते रहते थे। परन्तु हिडोयेशी के पश्चात लगभग वर्ष 1610 से यह एक ही कुल तोकुगावा में रह गई। इसे इस कुल में लाने का श्रेय इयीयासु का था तथा यह पद 250 वर्ष तक इसी कुल में रहा। इस वंश ने येदो (वर्तमान टोक्यो) में मुख्यालय बनाया जब कि सम्राट क्योतो में रहते थे। इस वंश के सब से शक्तिशाली होने का कारण सम्भवत: यह था कि जापान के चावल उत्पादन का 37 प्रतिशत भाग उन के क्षेत्र में होता था। इस के अतिरिक्त चाँदी तथा सोने की खदानें भी इसी क्षेत्र में थीं। शोगुन ने व्यवस्था की कि दाइम्यों को अपना परिवार येतो में रखना हो गा जिस से विद्रोह की सम्भावना कम हो जाती थी।


ताकुगवा के शासन काल में अधिकाँशत: शाँति रही। अनुशासन, आज्ञाकारिता तथा राष्ट्रीय एकता रही। इस का आधार शिण्टो धर्म रहा जिस में इन गुणों पर विशेष ज़ोर दिया जाता था। इस काल में आर्थिक सुधार भी हुए। चावल द्रव्य के स्थान पर मुद्रा द्रव्य का चलन हुआ। नगरों का महत्व बढ़ा तथा व्यापारियों का महत्व भी बढ़ा। कृषकों की उपज तथा उन के लगान पर निर्भर दाइम्यों की आर्थिक सिथति बहुत अच्छी नहीं थी। धीरे धीरे इन व्यापारियों ने दाईम्यों को ऋण देना आरम्भ किया, रोटी बेटी का नाता जोड़ा तथा कालान्तर में समाज के सब से महत्वपूर्ण अंग बन गये। इस काल में शिक्षा का विस्तार भी हुआ।


विदेशियों का आगमन 1542 में आरम्भ हुआ। पहले आने वाले पुर्तगाली थे। नाम तो व्यापार का था किन्तु धर्म परिवर्तन के लिये की भी चेष्ठा की गई तथा इस के लिये बल प्रयोग भी किया जाता रहा। कहा जाता है कि सतारहवीं शताब्दी तक लगभग 30 लाख लोग ईसाई बन चुके थे। पुर्तगालियों के अतिरिक्त डच तथा अंग्रेज़ भी आये। इन की आपसी खींच तान से जापानी शंकित हो गये। वर्ष 1587 में ईसाई धर्म के प्रचार पर रोक लगाई गई किन्तु इस प्रावधान का पालन न हो सका। वर्ष 1612 में विदेशियों पर अतिरिक्त प्रतिबन्ध लगाये गये तथा वर्ष 1647 में पूर्णतया सम्बन्घ विच्छेद कर दिया गया। जापानियों की विदेश यात्रा पर भी प्रतिबन्ध लगा दिये गये। विदेशी सम्पर्क के लिये केवल नागासाकी को रखा गया। वहाँ डच लोगों को रहने की भी अनुमति दी गई। इस खिड़की से व्यापार होने के अतिरिक्त विदेशी ज्ञान भी जापान में आता रहा। साथ ही जापानी छात्र विदेश जा कर भी ज्ञान अर्जित करते रहे।


1852 में एडमाईरल पैरी ने नागासाकी की बजाये शक्ति प्रिदर्शन के इरादे से अन्य स्थान पर लंगर डाला तथा विदेशी नाविकों को आवश्यक सहूलियत देने के लिये अमरीकी राष्ट्रपति का पत्र शोगुन को दिया। उस समय शोगुन की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। उस ने टालने के इरादे से विचार करने के लिये समय मांगा। एक वर्ष का समय दे कर पैरी चीन की ओर चला गया किन्तु रूसी बेड़े के नागासाकी पहुँचने तथा फ्राँसीसी बेडे के भी जापानी सागर में पहुँचने के कारण वह समय से पहले ही लौट आया। शोगुन को संधि पर हस्ताक्षर करने पड़े। पैरी से कानगवा की इस संधि में अमरीकी जहाज़ों के लिये दो और बन्दरगाहें खोल दी गईं। शिमोदा में वाणिज्य दूत के रहने की भी अनुमति दी गई। इस जापानी संधि के पीछे सम्भवत: चीन के विरुद्ध विदेशियों की 1842 में विजय थी। अमरीका के पश्चात 1854 में बि्रटेन से तथा 1855 में रूस से ऐसी ही संधि की गई। 1858 में अमरीका से एक नई संधि में चार और बन्दरगाहें खोल दी गईं। येदो तथा ओसाका में भी विदेशियों को रहने की अनुमति मिल गई। विदेशी मुद्रा में विनिमय की बात भी मान ली गई। इसी प्रकार की संधियाँ अन्य देशों से भी की गईं।


इन संधियों के फलस्वरूप शोगुन की शक्ति में और कमी हुई। व्यापारी तथा सम्राट इन संधियों के विरुद्ध थे। विदेशियों से संधि के कारण व्यापारियों को हानि का अंदेशा रहा अत: उन्हों ने शोगुन के विरुद्ध मुहिम चलाई। सम्राट के प्रति सम्मान तथा बर्बरों के निष्काषण की मांग के साथ उस का आरम्भ हुआ। 1863 में शोगुन को मानना पड़ा कि दाइम्यों तथा सम्राट के बीच सीधा सम्पर्क हो सकता है। बंधक प्रथा भी समाप्त कर दी गई। 1866 में संतानहीन शोगुन की मृत्यु हो गई तथा दरबार समर्थक गुट के एक व्यक्ति् के हाथ में सत्ता आई। अन्ततोगवा 1867 में सम्राट मेजी ने सत्ता की बागडोर सम्भाली अत: मेजी युग का प्रारम्भ हुआ। शोगुन समर्थकों ने विद्रोह किया किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिल पाई।


प्रशासन सुधार का आरम्भ हुआ। शोगुन के क्षेत्र पर केन्द्रीय शासन का प्रशासनिक एवं वित्तीय नियन्त्रण था। अन्य दाइम्यों को भी इस बात के लिये राज़ी कर लिया गया कि वह अपनी भूमि केन्द्रीय शासन को सौंप दें। इस के बदले में उन्हें इन क्षेत्रों का राज्यपाल नियुक्त कर दिया तथा पूर्व की आय का आधा भाग वेतन के रूप में दिया गया। समुराई वर्ग को निवृति वेतन की व्यवस्था की गई। बाद में चार वर्ष की पैंशन के बराबर राशि देकर पैंशन समाप्त कर दी गई। 1871 तक यह प्रक्रिया पूरी हो गई। आवाजाही पर से नियन्त्रण हटा लिया गया। व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता दी गई। अनिवार्य सैनिक सेवा की प्रथा आरम्भ की गई एवं नव सेना का गठन भी किया गया।


इस के पश्चात सुधार का दौर आरम्भ हुआ। प्रजातन्त्रीय व्यवस्था की और कदम बढ़ायें गये। 1874 में प्रथम राजनैतिक दल का गठन किया गया। 1878 में स्थानीय स्वशासन को संगठित किया गया। 1887 में पाश्चात्य देशों के संविधान का अध्ययन कर संविधान बनाया गया। इस में सम्राट के अधिकार परिभाषित किये गये। प्रीवी कौंसिल तथा मंत्रीपरिषद की स्थापना की गई जिस में सम्राट द्वारा मनोनीत व्यक्ति थे। इस के अतिरिक्त सलाहकार समिति का गठन किया गया। सलाहकार समिति में उन लोगों को रखा गया जो रक्तहीन क्रांति के बड़े नेता थे। इस समिति की राय ही अंतिम मानी जाती थी। संसद को डायट कहा गया तथा इस के दो सदन थे। इन का चुनाव जनता द्वारा किया जाता था परन्तु मतदाताओं की संख्या सीमित थी। कराधान डायट की स्वीकृति से ही हो सकता था। पर यदि बजट पारित न हो तो गत वर्ष का बजट को ही मान्यता दे दी जाती थी। प्रजा के अधिकारों तथा कर्तव्यों का वर्णन संविधान में दिया गया है।


वास्तविक सत्ता सम्राट द्वारा मनोनीत व्यक्तियों के हाथ में थी परन्तु डायट के माध्यम से जनता से भी बात हो जाती थी। परन्तु यह व्यवस्था अधिक प्रभावी नहीं रही। मन्त्री परिषद डायट के प्रति जवाबदेह नहीं थी। इस से आपसी मतभेद बढ़े परन्तु वे खुले विद्रोह तक नहीं पहुँच पाये।


नये शासन ने शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया। अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था हुई। यह आरम्भ में चार वर्ष की थी तथा बाद में बढ़ा कर छह वर्ष की गई। शिक्षा का ध्येय अनुशासन तथा चारित्रिक गठन था। 6 वर्ष के पश्चात 5 वर्षीय मिडिल शाला थी। इन में व्यवसायिक शिक्षा दी जाती थी। विकल्प में दो वर्ष का अंशकालीन पाठयक्रम उन लोगों के लिये था जो आगे नहीं पढ़ना चाहते थे। मिडिल शाला के पश्चात उच्च विधालय थे जिन में दो अथवा तीन वर्ष तक उच्च श्रेणी के कारीगर तथा टैकनीशियन तैयार करने के लिये प्रशिक्षण दिया जाता था। अन्त में 5 अथवा 6 वर्ष के लिये विश्वविधालय थे जिन में 3 वर्ष अध्ययन तथा शेष समय में शोध किया जाता था। शिक्षा में सहूलियत के लिये जापानी लिपि, जो मूलत: चीन से आयात की गई थी, में सुधार किया गया। 1871 में आरम्भ की गई इस शिक्षा व्यवस्था से वर्ष 1900 तक साक्षरता लगभग 100 प्रतिशत हो गई थी।


शिक्षा के अतिरिक्त भूमि सुधार पर भी ध्यान दिया गया। 1872 में भूमि पर कृषको का अधिकार मान्य कर उन्हें भूमि के प्रमाण पत्र दिये गये। लगान मुद्रा में लिया जाने लगा पर इस की दर काफी अधिक थी। कृषकों की 25 से 30 प्रतिशत आय इस में निकल जाती थी। फलस्वरूप वास्तव में भूमि पर कृषक केवल मज़दूर बन कर रह गये तथा भूमि अन्य द्वारा क्रय कर ली गई।


विपरीत संधि के कारण सोना चाँदी देश के बाहर जाते रहे। 1873 में काग़ज़ी मुद्रा का प्रचलन किया गया। व्यवस्था सुधार के लिये औधोगिक क्षेत्र पर ध्यान केनिद्रत किया गया। 1890 तक कई कारखाने स्थापित हो गये जिन में कपड़ा, सीमेंट, मशान के पुर्जे, रेशम इत्यादि का निर्माण होता था। उत्खनन के कार्य में आधुनिकता लाई गई। संचार साधनों में भी इसी प्रकार आधुनिकता लाई गई। 1894 तक 2118 मील लम्बी रेल लाईन हो गई। शासन के अतिरिक्त निजी रेल चलाने के भी व्यवस्था की गई।


इस तेज़ी से विकास का मुख्य कारण जापानियों की अनुशासित तथा परिश्रमी जनशक्ति, उन का सादा रहन सहन तथा राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने की अभिवृति थी। बौद्ध मत के स्थान पर शिण्टो मत पर अधिक ध्यान गया। इस धर्म में सम्राट तथा देश के प्रति भक्ति भावना प्रधान थी। पाश्चात्य मूल्यों को पूरी तरह नकारे बिना जापान की विशिष्टता स्थापित करने का अभियान सतत चलाया गया। शिक्षा पर पूरा नियन्त्रण राज्य का था तथा इस का लक्ष्य देश भक्ति किी भावना उत्पन्न करना थी। मेजी शासकों ने सादगी, ब्रह्राचर्य, अनुशासन, उद्यमशीलता, परिश्रम का सुख, ग्रामीण समुदाय में परस्पर सहयोग, एवं व्यक्तिगत उत्तरदायित्व जैसे मूल्यों को जापानी आचरण में ढालने के लिये कन्फयूशियसवादी मान्यताओं का सहारा लिया गया। इस का उद्देश्य लोगों को विलासिता एवं आलस्य से दूर रखना भी था। इस तरह जापान में पारम्परिक मूल्यों को छोड़े बिना औधोगिक प्रगति की प्रक्रिया आरम्भ हुई और अभी भी यह जापानी चरित्र की विशेषतायें हैं।


वर्ष 1894 तक जापान काफी विकसित हो परराष्ट्रों में बराबर का सदस्य बनने के लिये तैयार था। इस बीच 1870 के पश्चात एक पक्षीय संधियों को समाप्त करने का प्रयास भी किया गया किन्तु विशेष सफलता नहीं मिली। 1894 में इंगलैंड ने सन्धि संशोधन स्वीकार कर लिया परन्तु इसे 1899 से लागू होना था। अमरीका ने भी इसी प्रकार का संशोधन मान्य कर लिया। इस से पूर्व जापान में औद्योगिक प्रगति के लिये कच्चे माल की आवश्यकता बढ़ रही थी। जनसंख्या बढ़ने से भूक्षेत्र भी कम हो रहा था। अत: विस्तारवादी प्रक्रिया का आरम्भ हुआ। जापान ने आस पास के देशों पर प्रभुत्व स्थापित करने का अभियान आरम्भ किया। कच्चे माल के लिये कोरिया उपयुक्त स्थान था। इस पर चीन का प्रभुत्व था अत: चीन से टकराहट अपरिहार्य थी। चीन की उपेक्षा कर जापान ने कोरिया से सीधे सम्पर्क करने का प्रयास किया परन्तु यह सफल नहीं हो सका। दूसरी ओर जापानी लोगों का बसाने का प्रश्न था पर आस पास के द्वीपों पर चीन का प्रभुत्व था।


चीन के साथ पहला मतभेद लियु चियू द्वीपों पर से आरम्भ हुआ। इन द्वीपों पर जापानी रहते थे किन्तु परम्परा से वे चीन को वार्षिक खिराज भेजते थे। उन के कुछ मल्लाहों को फारमोसा (ताईवान) के लोगों ने मार डाला जिस पर से जापान ने चीन से प्रतिपूर्ति की राशि मांगी जो अस्वीकार कर दी गई। 1874 में जापान ने फारमोसा के एक भाग पर अधिकार कर लिया। अक्तूबर 1874 में चीन ने समझौता कर लिया तथा क्षतिपूर्ति देना स्वीकार कर लिया। यह जापान की प्रथम बड़ी सफलता थी।


इस संधि का लाभ उठा कर जापान ने कोरिया में भी हस्ताक्षेप किया। कोरिया को सन्यासियों के देश के नाम से जाना जाता था। प्रथानुसार कोरिया पर चीन का प्रभुत्व था किन्तु चीन इस ओर से उदासीन था। एक और जापान तथा दूसरी ओर रूस कोरिया को अपने प्रभुत्व क्षेत्र में लाना चाहते थे। जापान द्वारा कोरिया को एक संधि के लिये मजबूर किया गया। इस के अनुसार तीन बन्दरगाह जापानी जहाजों के लिये खोल दिये गये। कोरिया ने रूस तथा अन्य देशों से भी इस प्रकार की संधि की। इस प्रकार कोरिया ने अपने स्वतन्त्र होने का परिचय दिया। परन्तु जापान को इस से संतुष्टि नहीं हुई। उस ने षडयन्त्र कर कोरिया के सम्राट को बन्दी बना लिया तथा अपनी नौसैना की एक टुकड़ी वहाँ भेज दी। इस पर चीन ने हस्ताक्षेप कर जापानी सैना को खदेड़ दिया तथा कोरिया सम्राट को मुक्त करा लिया। प्रतिक्रिया में जापान ने और सैना कोरिया में भेजी। अन्तत: 1885 में एक संधि के अनुसार कोरिया ने प्रतिपूर्ति करना मान लिया। कोरिया से दोनों देशों की सैनायें वापस बुला ली गईं।


जापान की गणना विश्व शक्तियों में तब होने लगी जब उस ने चीन को 1895 में तथा रूस को 1905 में पराजित किया परन्तु इस की नींव 1875 तक पड़ चुकी थी। संक्षेप में जापान के इस कायाकल्प से अनेक बातें सीखी जा सकती हैं। परन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात हमारे नेता पाश्चात्य रंग में इतने रंगे हुए थे कि उन में पूर्व की ओर देखने का भावना ही उत्पन्न नहीं हुई। उपभोक्तावाद की अन्धी दौड़ ने हमें उस स्थान पर पहुँचा दिया है जहाँ परिश्रम के स्थान पर येन केन प्रकारेण धनवान बनने की धुन ही प्रबल हो गई है। क्या अब बहुत विलम्ब हो चुका है? सम्भवत: विलम्ब कभी नहीं होता। वह कहते हैं कि ''जब जागे तभी सवेरा'। पर प्रश्न है कि क्या हम जागें गे।

Recent Posts

See All
nitrous oxide and the blame game

nitrous oxide and the blame game it was amusing to read that according to a research described in journal earth system science data that...

 
 
 
i am not a criminal

a plea i am not a criminal i am a simple business man, simple at heart and simple in my conduct. like all businessmen, i buy my stuff...

 
 
 
exclusivness

daughter of an auto driver has successfully competed in the central services examination. examination and will join the prestigious ias...

 
 
 

Comments


bottom of page